'फुले' फिल्म पर विवाद की आंधी: शिक्षा और समानता की लड़ाई सिनेमा के ज़रिए राजनीति के केंद्र में

ज्योतिबा (Jyotiba Phule) और सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) की ज़िंदगी शिक्षा, समानता (Equality) और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष की मिसाल रही है। अब उनकी कहानी पर बनी फिल्म 'फुले' (Phule) रिलीज़ से पहले ही विवादों (Controversy) में फंस गई है। ब्राह्मण संगठनों के विरोध और राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप ने इस फिल्म को समाज और राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया है।
समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले पर बनी फिल्म फुले ने रिलीज़ से पहले ही बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है।
समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले पर बनी फिल्म फुले ने रिलीज़ से पहले ही बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है।(AI)
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समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) पर बनी फिल्म फुले ने रिलीज़ से पहले ही बड़ा विवाद (Controversy) खड़ा कर दिया है। ब्राह्मण संगठनों के विरोध और सेंसर बोर्ड की सख़्ती के चलते फिल्म की रिलीज़ रोक दी गई थी। अब सवाल यह है कि आखिर फुले (Phule) दंपत्ति की असली कहानी क्या है ? क्यों उनकी ज़िंदगी और विचारों पर बनी फिल्म कुछ वर्गों को चुभ रही है ? और इस विवाद ने महाराष्ट्र की राजनीति को क्यों गर्मा दिया है ? आइये जानते हैं इस पूरी कहानी को।

जातिवाद का ज़हर और फुले का बचपन

ज्योतिबा फुले (Jyotiba Phule) का जन्म 11 अप्रैल 1827 को महाराष्ट्र के सातारा ज़िले में एक साधारण परिवार में हुआ। उनका असली उपनाम "गोरहे" था, लेकिन फूलों का कारोबार करने के कारण परिवार "फुले" कहलाने लगा। बचपन से ही उन्होंने जातिगत अपमान झेला। फिर एक घटना ने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया। वो अपने ब्राह्मण मित्र की शादी में गए, जहाँ उन्हें सिर्फ़ शूद्र होने की वजह से अपमानित कर भगा दिया गया। यह अनुभव उनके दिल में गहरे रूप से उतर गया और फिर उन्होंने ठान लिया कि जातिवाद के खिलाफ लड़ाई लड़े बिना समाज कभी आगे नहीं बढ़ेगा।

फुले ने समझ लिया कि शिक्षा ही सबसे बड़ा हथियार है। उनके पिता ने समाज के दबाव में आकर पढ़ाई छुड़वाकर खेतों में काम करने के लिए लगा दिया, लेकिन कुछ शुभचिंतकों की मदद से वो स्कॉटिश मिशन स्कूल में पढ़ पाए, और वहीं उन्होंने अमेरिकी और फ्रांसीसी चिंतक थॉमस पेन के विचार पढ़े। इन विचारों ने उन्हें समझाया कि जो धर्म इंसान को नीचा दिखाता है, वह असली धर्म नहीं हो सकता है।

ज्योतिबा फुले ने बचपन से ही  जातिगत अपमान झेला है।
ज्योतिबा फुले ने बचपन से ही जातिगत अपमान झेला है।(AI)

पहली महिला शिक्षिका

ज्योतिबा (Jyotiba Phule) ने सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्रीबाई (Savitribai Phule) को पढ़ाना शुरू किया,लेकिन आपको बता दें यह कदम उस दौर में बेहद क्रांतिकारी था। फिर दोनों ने मिलकर 1 जनवरी 1848 को पुणे के भिड़ेवाड़ा में लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल खोला। सिर्फ 17 साल की उम्र में सावित्रीबाई देश की पहली महिला शिक्षिका बनीं। लेकिन यह रास्ता आसान नहीं था। जब भी वो स्कूल जाती थीं, तो लोग उन पर गोबर और कीचड़ फेंकते थे, गालियाँ देते थे और डराते भी थे। लेकिन सावित्रीबाई ने इतना सब कुछ होने बावजूद भी कभी हार नहीं मानी। एक बार एक बदमाश ने उन्हें धमकाया भी था तो उन्होंने उसको थप्पड़ मार कर उसका जवाब दिया था।

1848 से 1852 के बीच ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई ने मिलकर 18 स्कूल खोले। सावित्रीबाई लड़कियों, शूद्रों और दलितों को अंग्रेजी पढ़ने के लिए प्रेरित करती थीं और उनसे कहती थीं "अंग्रेजी मैया का दूध पियो, वही शूद्रों को ताक़त देगा।" इन सब के बाद फुले ने महसूस किया कि सिर्फ शिक्षा काफी नहीं है। समाज को धार्मिक और सामाजिक गुलामी से भी आज़ाद कराना होगा। उनकी इसी सोच के साथ उन्होंने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की।

उनकी प्रसिद्ध किताब गुलामगिरी ने जातिवाद और ब्राह्मणवादी पाखंड पर सीधा वार किया। उस किताब में उन्होंने लिखा था कि "ब्राह्मण पुरोहितों ने झूठे ग्रंथों से शूद्रों को अंधभक्ति में फंसाया है। यह सबसे बड़ा अन्याय है।" फुले ने खुद बिना ब्राह्मण पुजारियों के विवाह और नामकरण संस्कार करवाने की परंपरा शुरू की। यह उस समय का बड़ा सामाजिक विद्रोह था।

ज्योतिबा ने सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाना शुरू किया,लेकिन आपको बता दें यह कदम उस दौर में बेहद क्रांतिकारी था।
ज्योतिबा ने सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढ़ाना शुरू किया,लेकिन आपको बता दें यह कदम उस दौर में बेहद क्रांतिकारी था। (AI)

विधवाओं और महिलाओं के लिए संघर्ष

उस दौर में बाल विवाह और विधवाओं की दुर्दशा आम बात थी। छोटी उम्र में ही विधवा हुई महिलाओं के बाल मुंडवाकर उन्हें अपमानित जीवन जीने को मजबूर किया जाता था। ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने इस पर खुलकर आवाज़ उठाई। उन्होंने नाइयों को हड़ताल पर बुलाया और उनसे कहा कि वो विधवाओं का सिर न मुंडें। 1863 में उन्होंने बालहत्या प्रतिबंधक गृह खोला, जिसमें गर्भवती विधवाओं और बलात्कार पीड़िताओं को सुरक्षित आश्रय मिला। ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई ने एक ब्राह्मण विधवा और उसके बच्चे को गोद लेकर पढ़ाया और डॉक्टर बनाया। यह उनकी सामाजिक समानता (Equality) की गहरी सोच का प्रमाण बन गया।

फुले (Phule) सिर्फ़ समाज सुधारक तक ही सीमित नहीं रहे। वो राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों के भी समर्थक रहें हैं। पुणे नगरपालिका के सदस्य रहते हुए उन्होंने अंग्रेज़ वायसराय के स्वागत पर होने वाले फिजूलखर्च का विरोध किया। उनकी ईमानदारी और साहस की मिसाल तब सामने आई, जब उनकी हत्या की साजिश रची गई। उन्होंने हमलावरों से कहा कि "अगर मेरी मौत से तुम्हें फायदा होता है, तो मुझे मार दो।" उनकी उदारता से प्रभावित होकर वही लोग उनके साथी बन गए।

ज्योतिबा ने 63 साल की उम्र तक जातिवाद, स्त्री-शोषण और छुआछूत के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। 28 नवंबर 1890 को उनका निधन हो गया। उनकी चिता को उनकी पत्नी सावित्रीबाई ने अग्नि दी। यह उस दौर का सबसे क्रांतिकारी कदम माना जाता है। पति की राह पर चलते हुए सावित्रीबाई ने सत्यशोधक समाज का नेतृत्व संभाला और कविताओं के माध्यम से जागरूकता फैलाती रहीं। 1897 में प्लेग महामारी के दौरान सेवाभाव करते-करते उनकी भी मृत्यु हो गई।

बाबा साहेब आंबेडकर हमेशा कहते थे कि "मेरे जीवन में तीन गुरु रहें हैं बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले।"

उस दौर में छोटी उम्र में ही विधवा हुई महिलाओं के बाल मुंडवाकर उन्हें अपमानित जीवन जीने को मजबूर किया जाता था।
उस दौर में छोटी उम्र में ही विधवा हुई महिलाओं के बाल मुंडवाकर उन्हें अपमानित जीवन जीने को मजबूर किया जाता था।(AI)

फिल्म फुले पर विवाद (Controversy)

इन्हीं क्रांतिकारी जीवन संघर्षों पर आधारित फिल्म फुले (Phule) हाल ही में विवादों में आ गई। फिल्म की रिलीज़ 11 अप्रैल को, ज्योतिबा फुले की जयंती पर होनी थी, लेकिन ब्राह्मण संगठनों के विरोध और सेंसर बोर्ड की आपत्तियों के बाद इसे स्थगित कर दिया गया। विरोध करने वालों का कहना है कि फिल्म में उनके समुदाय को गलत तरीके से दिखाया गया है। वहीं, सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि विरोध इसलिए है क्योंकि फिल्म जातिवाद और भेदभाव की असलियत को उजागर करती है।

फिल्म पर रोक के बाद सबसे पहले आवाज़ प्रकाश आंबेडकर ने उठाई। उन्होंने पुणे के फुले वाड़ा में प्रदर्शन किया और कहा कि कांग्रेस, शिवसेना (यूबीटी) और एनसीपी (शरद पवार) चुप हैं क्योंकि फुले ओबीसी समाज से आते थे। अगर वो मराठा होते, तो ये पार्टियाँ सड़कों पर उतर आतीं। इसके बाद राहुल गांधी भी विवाद में कूद पड़े। उन्होंने भाजपा और आरएसएस पर आरोप लगाया कि वो एक ओर फुले को नमन करते हैं और दूसरी ओर उनके जीवन पर बनी फिल्म को सेंसर करवाते हैं। इस पर भाजपा सांसद और छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज उदयनराजे भोसले ने दावा किया कि लड़कियों का पहला स्कूल फुले दंपत्ति ने नहीं, बल्कि उनके पूर्वज छत्रपति प्रतापराव भोसले ने सातारा में खोला था। इस बयान ने विवाद को और गहरा दिया।

फिल्म के निर्देशक अनंत महादेवन ने कहा कि फिल्म किसी समुदाय को नीचा दिखाने के लिए नहीं बनी है। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि फिल्म पूरी तरह ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित है और इसमें यह भी दिखाया गया है कि कैसे कई ब्राह्मणों ने फुले दंपत्ति की मदद की। इस पुरे विवाद (Controversy) की जड़ है जातिवाद और भेदभाव की सच्चाई दिखाए जाने से समाज का एक हिस्सा असहज महसूस कर रहा है। कुछ वर्ग इसे इतिहास का तोड़-मरोड़ मानते हैं, जबकि सामाजिक कार्यकर्ता कहते हैं कि यह सच्चाई को सामने लाने की कोशिश है।

क्रांतिकारी जीवन संघर्षों पर आधारित फिल्म फुले (Phule) हाल ही में विवादों में आ गई।
क्रांतिकारी जीवन संघर्षों पर आधारित फिल्म फुले (Phule) हाल ही में विवादों में आ गई। (AI)

निष्कर्ष

ज्योतिबा (Jyotiba Phule) और सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) की ज़िंदगी इस बात का सबूत है कि शिक्षा और समानता (Equality) किसी भी समाज की सबसे बड़ी ताक़त होती है। उन्होंने अपमान, विरोध और हमलों के बावजूद हार नहीं मानी और समाज को नई दिशा दी। आज जब उनकी कहानी पर बनी फिल्म विवादों में फंसती है, तो इससे हमें यह सिख मिलता है कि जातिवाद और भेदभाव के ज़हर को खत्म करने की ज़रूरत अभी भी बाक़ी है। [Rh/PS]

समाज सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले पर बनी फिल्म फुले ने रिलीज़ से पहले ही बड़ा विवाद खड़ा कर दिया है।
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