भारतीय शासन प्रणाली का तीसरा आधार स्तंभ न्यायपालिका है। भारत की शासन प्रणाली संघात्मक है। यहां शक्तियों का विभाजन केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारों के मध्य हुआ है, किंतु इन सबके बावजूद भी यहां न्यायपालिका एकीकृत है। इसका अर्थ यह है कि पूरे देश के लिए एक ही सर्वोच्च न्यायालय है और न्याय का वितरण सबके लिए समान है। सर्वोच्च न्यायालय के अधीन विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय हैं तथा प्रत्येक उच्च न्यायालय के अधीन अन्य अदालतों का एक श्रेणीबद्ध तंत्र मजबूत है जिन्हें 'अधिनिस्थ न्यायालय' कहा जाता है, जोकि उच्च न्यायालय के मातहत है तथा उसके नियंत्रण में कार्य करते हैं।
आधुनिक जनतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्थाओं में न्याय को खुला, निष्पक्ष, निरंतर, स्थिर तथा परिकल्पनीय माना जाता है। भारतीय न्याय व्यवस्था में न्याय के महत्व और न्यायपालिका के कार्यों को रेखांकित करते वक्त, सर्वप्रथम विलियम एडवर्ड द्वारा उद्धृत की गई बात को समझ लेना बहुत जरूरी है कि "देर से मिलने वाला न्याय, अन्याय के बराबर होता है।" यह इसलिए जरूरी है क्योंकि भारतीय न्याय व्यवस्था के भीतर न्याय (Justice) की राह ताकते हुए मुकदमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जिसकी वजह से दिन-ब-दिन लंबित मामले बढ़ते जा रहे हैं।
भारत में न्यायालय गरीबों तथा समाज के कमजोर वर्गों को न्याय और राहत प्रदान करने का एक साधन है, किंतु अगर यह प्रक्रिया वर्षों लंबी और देर - सबेर होगी तो क्या यह न्याय का सही रूप होगा? यह प्रश्न किसलिए? यह प्रश्न इसलिए क्योंकि हाल के ही दिनों में ‘इंडियन जस्टिस रिपोर्ट - 2022’ (IJR 2022) की रिपोर्ट सामने आई है। इंडियन जस्टिस रिपोर्ट का उद्देश्य भारत में न्याय वितरण की स्थिति का बड़े पैमाने पर मूल्यांकन करना है और उन क्षेत्रों की पहचान करना है जहां सुधारों की ज़रूरत है।
4 अप्रैल को जारी की गई इंडियन जस्टिस रिपोर्ट (Indian Justice Report) यह बताती है कि भारतीय न्यायपालिका में न्यायाधीशों और बुनियादी ढाँचे की काफी कमी है जिस कारण लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि, मुकदमों का बढ़ता बोझ और निचले न्यायालयों में मामले की निपटान दर (CCR) में गिरावट देखी जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार, दिसंबर 2022 तक, भारत के उच्च न्यायालयों के भीतर 1,108 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या की तुलना में केवल 778 न्यायाधीशों के साथ कार्य कर रहे थे। इसका अर्थ यह है कि 330 न्यायाधीशों के स्थान देशभर के उच्च न्यायालयों में रिक्त पड़े हुए हैं। इसके साथ ही रिपोर्ट बताती है कि देश भर की निचली अदालतें 24,631 न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या की तुलना में केवल 19,288 न्यायाधीशों के साथ कार्य कर रहीं थीं, यानि कि 5,343 न्यायाधीशों के संख्या की कमी के साथ।
सेंटर फॉर सोशल जस्टिस (Center for Social Justice), कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (Commonwealth Human Rights Initiative) और कॉमन कॉज़ (Common Cause) के सहयोग से टाटा ट्रस्ट (Tata Trust) द्वारा जारी की जाने वाली यह रिपोर्ट, यह भी रेखांकित करती है कि पिछले पाँच वर्षों में अधिकांश राज्यों में प्रति न्यायाधीश लंबित मामलों की संख्या में वृद्धि हुई है, जबकि न्यायाधीशों की संख्या में वृद्धि नहीं हुई। उच्च न्यायालयों में औसत लंबितता (pendency) उत्तर प्रदेश में 11.34 वर्ष के साथ सर्वाधिक है। इसके बाद का नंबर आता है पश्चिम बंगाल का जहां औसत लंबितता 9.9 वर्ष है। यदि सबसे कम औसत लंबितता की बात करें तो, 1 वर्ष की औसत लंबितता के साथ त्रिपुरा सबसे आगे है, उसके बाद सिक्किम (1.9 वर्ष) और मेघालय (2.1 वर्ष) का नंबर आता है।
रिपोर्ट में पूरे भारत के उच्च न्यायालयों तथा निचली अदालतों के भीतर सुलझाए गए मुकदमों की दर का भी जिक्र है। रिपोर्ट दर्शाती है कि वर्ष 2018-19 और 2022 के बीच भारत के उच्च न्यायालयों के भीतर मुकदमों के निपटान दर (Case Clearance Rate) में छह प्रतिशत अंक (88.5% से 94.6%) का सुधार तो हुआ है, किंतु निचली अदालतों के भीतर मुकदमों के निपटान दर में 3.6 अंक (93% से 89.4%) की गिरावट दर्ज की गई है।
इंडियन जस्टिस रिपोर्ट 2022 अपनी सिफारिशों में यह कहती है कि न्यायाधीशों एवं बुनियादी ढाँचे की कमी भारतीय न्यायपालिका के लिये एक गंभीर चिंता का विषय है, जिससे लंबित मामलों में वृद्धि हुई है तथा निचले न्यायालयों में मुकदमों के निपटान दर में कमी आई है। सरकार को न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरकर एवं पर्याप्त बुनियादी ढाँचा प्रदान करके न्यायिक प्रणाली की दक्षता में सुधार के उपाय के माध्यम से इस मुद्दे का समाधान करने की आवश्यकता है।
Story By - Saurabh Singh