अप्रैल 24 राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के रूप में मनाया जाता है। देशव्यापी लोकतांत्रिक सुधारों के लिए काम करने वाले लोक उम्मीदवार अभियान के मुख्य सुधारों की मांग में से एक पंचायती राज सुधार भी है। हम यह मानते हैं कि पंचायती राज को वास्तविक स्वायत्तता दी जाए और पंचायती राज के ढांचे को सशक्त किया जाए, ताकि यह सही मायनों में ‘तीसरी सरकार’ वाला काम अपने आप कर सके।
"सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, अपितु यह तो गांव के प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता है।"
महात्मा गांधी के ये शब्द इस ओर इशारा करते हैं कि उन्होंने भारत की आजादी को भारत के गांवों की आजादी के रूप में देखा था, इसलिए उनका मानना था कि जब तक भारत के गांवों को आजादी नहीं मिलती तब तक भारत की आजादी अधूरी है। गांधी (Mahatma Gandhi) जी की कल्पना 'गांवों को आजादी' यानि कि लोकतंत्र में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी तथा सत्ता का सही अर्थों में विकेंद्रीकरण जैसी घोषणाओं को आज से लगभग 30 वर्ष पूर्व देश में नए पंचायती राज को लागू किया गया था। हालांकि, यह बहुत अलग बात है कि जिन महत्वपूर्ण पहलुओं के ध्यान में रखकर के पंचायती राज को लागू किया गया था, वह अभी अपने उन महत्वपूर्ण पहलुओं से बहुत दूर खड़ा दिखाई पड़ता है।
पंचायत (Panchayat) शब्द दो शब्दों ‘पंच’ और ‘आयत’ के मेल से बना है। पंच का अर्थ है पांच और आयत का अर्थ है सभा। पंचायत को पांच सदस्यों की सभा कहा जाता है, जो स्थानीय समुदायों के विकास और उत्थान के लिए काम करते हैं और स्थानीय स्तर पर कई तरह के विवादों का हल निकालते हैं।
भारत में पंचायतों का इतिहास बहुत पुराना है। प्राचीन काल में आपसी झगड़ों का फैसला पंचायत ही करती थी, किंतु ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान सारे काम का जिम्मा प्रांतीय सरकारों के हाथ में चला गया। स्वतंत्रता के पश्चात संविधान निर्माण के दौरान संविधान सभा में, पंचायती राज के विषय पर सक्रिय बहस हुई थी। अनेक सदस्यों ने ग्रामों और ग्राम पंचायतों (Gram Panchayat) को संविधान में उचित स्थान देने के महत्व पर बल दिया था। इसके परिणामस्वरूप अनुच्छेद - 31-क जोड़ा गया जो बताता है कि 'राज्य ग्राम पंचायतों के संगठन के लिए, कदम उठाएगा और उन्हें ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने मे समर्थ बनाने के लिए आवश्यक होंगी। इस अनुच्छेद को बाद में पुनः संख्याकित कर के अनुच्छेद 40 किया गया तथा यह संविधान के राज्य नीति निदेशक सिद्धांतों का भाग बना। तथापि, पंचायतों को प्रभाव में लाने के लिए आवश्यक विधान तत्काल नहीं बनाया गया।
भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम (Community Development Program) की शुरुआत 1952 में की गई। लेकिन, आम जनता इस कार्यक्रम से सीधे तौर पर जुड़ नहीं पाई। इसी समस्या के निदान के लिए बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में 1957 में एक समिति गठित की गई। और इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के लिए त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की वकालत की। राष्ट्रीय विकास परिषद ने भी इस समिति की सिफारिशों को सही माना।
बलवंत राय मेहता समिति (Balwant Rai Mehta Committee) की सिफारिशों के आधार पर सर्वप्रथम आंध्र प्रदेश ने अपने यहाँ कुछ क्षेत्रों में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को लागू किया गया। इसकी सफलता देखकर सबसे पहले राजस्थान राज्य ने 2 अक्टूबर, 1959 को अपने यहाँ नागौर जिले में पंचायतीराज की औपचारिक शुरुआत की। उसके बाद दूसरे राज्यों ने भी पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया, लेकिन इस प्रयास को उतनी सफलता नहीं मिली जितनी आशा की गई थी।
वर्ष 1959 से लेकर 1990 के बीच कई समितियों का गठन किया गया और कई तरह की योजनाएं शुरू तो की गईं किंतु बहुत इनमें भी बहुत सफलता हाथ नहीं लगी। वर्ष 1985 में जी.वी. के राव समिति ने ज़िले को योजना की बुनियादी इकाई बनाने और नियमित चुनाव आयोजित कराने की सिफारिश की जबकि एल. एम. सिंघवी (L. M. Singhvi Committee) (1986) ने पंचायतों को सशक्त करने के लिये उन्हें संवैधानिक दर्जा प्रदान करने तथा अधिक वित्तीय संसाधन सौंपने की सिफारिश की। संशोधन का चरण 64वें संशोधन विधेयक (1989) के साथ शुरू हुआ जिसे राजीव गांधी सरकार द्वारा पंचायत राज संस्थाओं को सशक्त बनाने के उद्देश्य से प्रस्तुत किया गया था लेकिन यह विधेयक राज्य सभा में पारित नहीं हो सका।
संविधान ( 74वाँ संशोधन) विधेयक (पंचायत राज संस्थाओं और नगर पालिकाओं के लिये एक संयुक्त विधेयक) वर्ष 1990 में प्रस्तुत किया गया था लेकिन इसे कभी सदन में चर्चा के लिये नहीं लाया गया। इसके पश्चात प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिम्हा राव के कार्यकाल के दौरान सितंबर 1991 में 72वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में एक व्यापक संशोधन प्रस्तुत किया गया।
73वें और 74वें संविधान संशोधन (73rd and 74th Constitutional Amendments) को दिसंबर, 1992 में संसद द्वारा पारित कर दिया गया। इन संशोधनों के माध्यम से ग्रामीण और शहरी भारत में स्थानीय स्वशासन की नींव डाली गई। 24 अप्रैल, 1993 को संविधान ( 73वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 और 1 जून, 1993 को संविधान (74वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 के रूप में ये कानून प्रवर्तित हुए।
यह गौरतलब है कि पंचायती राज (Panchayati Raj) संस्थाएँ ज़मीनी स्तर पर सरकार तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व के एक और स्तर के निर्माण में सफल तो रही हैं, लेकिन बेहतर प्रशासन प्रदान करने के मामले में वे विफल रही हैं। पंचायती राज कानून का मूल्यांकन करते हुए अपनी पुस्तक 'तीसरी सरकार' में डॉ. चंद्रशेखर प्राण लिखते हैं कि पंचायती राज का जो लक्ष्य महात्मा गांधी से लेकर राजीव गांधी (Rajiv Gandhi) तक विभिन्न रूपों में निर्धारित हुआ, आज जब पंचायती राज लागू हुआ तो उसने कई जगह भटकाव है। वर्तमान समय में जो जमीनी सच्चाई देखने को मिल रही है, उससे लगता है कि लक्ष्य प्राप्ति में भी कई तरह की विसंगतियां आड़े आ रही हैं, जिसमें देश की सरकार की सही सही समझ का अभाव, तीसरी सरकार का झूठा दावा, गांव समाज की टूटन, आधारभूत स्तर पर निर्णय के अधिकार का न होना, पंचायत प्रतिनिधियों में क्रियान्वयन की अपेक्षित क्षमता और कौशल का अभाव तथा अधकचरा और अधूरे मन के साथ दिया गया प्रशासनिक विकेंद्रीकरण जैसे कारण विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं।
लोक उम्मीदवार की वेबसाइट देखें - https://luindia.org/
लोक उम्मीदवार का यह मानना राष्ट्रीय बजट का 7% पंचायतों को सीधा निर्बंध राशि (Untied Fund) के रूप में दिया जाए, ताकि ग्राम पंचायत (तीसरी सरकार) जनता के हित में सुचारु रूप से अपने गाँव का विकास कर सकें, क्योंकि असली स्वराज तभी स्थापित हो सकेगा।
- Saurabh Singh