
महिलाएं और मानसिक स्वास्थ्य संकट
अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) की राजधानी काबुल की एक ऊँची पहाड़ी पर बना एक अस्पताल, जिसे लोग "क़िला" कहते हैं, वहां 100 से भी अधिक महिलाएं मानसिक बीमारियों के इलाज के लिए भर्ती हैं। यह अस्पताल अफ़ग़ान रेड क्रीसेंट सोसाइटी चलाती है और इसे देश में महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य के लिए समर्पित सबसे बड़ा केंद्र माना जाता है। लेकिन यहां भर्ती अधिकांश महिलाएं सिर्फ़ इलाज के लिए ही नहीं, बल्कि मजबूरी में भी पड़ी हैं। उनके पास लौटने के लिए कोई घर नहीं है, और न ही परिवार उन्हें स्वीकार करता है।
ऐसे ही एक लड़की कहानी है जिसका नाम है मरियम, इस लड़की का उम्र लगभग 25 साल है। वो पिछले नौ साल से इस केंद्र में रह रही हैं। कभी उनके भाई उन्हें सिर्फ़ पड़ोसी के घर जाने पर भी पीटते थे और अब उसे घर से निकाल दिया। वह कई दिनों तक सड़कों पर बेघर रहीं। बाद में एक महिला ने उन्हें देखा और इस केंद्र में भर्ती कराया।
मरियम मुस्कुराती हैं, गुनगुनाती भी हैं और वॉलंटियर के तौर पर सेंटर में काम भी करती हैं। लेकिन उनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि उनके पास कहीं जाने की जगह नहीं है। परिवार ने उन्हें ठुकरा दिया है और अब वो सोचती हैं कि अगर उन्हें कभी बाहर निकाला गया तो सिर्फ़ शादी ही उनकी एकमात्र राह हो सकती है। उनका कहना है की “अगर मैं अपने माता-पिता के पास लौटूंगी तो वो मुझे फिर से छोड़ देंगे।”
इस केंद्र में एक और महिला रहती थी जिसका नाम था हबीबा, उनकी उम्र 28 साल है। उनके पति ने दूसरी शादी की और फिर उन्हें घर से निकालने के लिए इस केंद्र में भर्ती करा दिया। हबीबा के तीन बेटे हैं, लेकिन अब वो अपने चाचा के पास रहते हैं। शुरू में वो मां से मिलने आते थे, मगर अब महीनों से उन्होंने अपनी मां का चेहरा तक नहीं देखा। हबीबा कहती हैं की “मैं सिर्फ़ अपने बच्चों से दोबारा मिलना चाहती हूं।” लेकिन हकीकत यह है कि न पति उन्हें रखना चाहता है और न उनकी बूढ़ी मां मदद कर सकती हैं। ऐसे में हबीबा भी इस केंद्र में फंसी हुई हैं।
केंद्र की मनोचिकित्सक सलीमा हलीब बताती हैं कि यहां कुछ महिलाएं 35-40 साल से रह रही हैं। उनके वाले परिवार कभी वापस नहीं आए और वो इसी अस्पताल की दीवारों के बीच जीती और यहीं मर जाती हैं। समाज में मानसिक बीमारियों को बदनामी से जोड़ा जाता है, इसलिए कई परिवार अपनी बेटियों और बहनों को यहां छोड़कर हमेशा के लिए भूल जाते हैं।
शासन और महिलाओं की कैद
अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) की महिलाओं की मुश्किलें केवल मानसिक बीमारियों तक सीमित नहीं हैं। असली समस्या है तालिबानी नियम (Taliban restrictions) और पितृसत्तात्मक परंपराएं।
महिलाओं को घर से बाहर निकलने के लिए पुरुष अभिभावक की ज़रूरत होती है। यात्रा, काम और शिक्षा पर पाबंदियां लगी हुई हैं। आर्थिक अवसर लगभग बंद हैं, इसलिए महिलाएं पुरुष रिश्तेदारों पर पूरी तरह निर्भर हैं। अगर परिवार ही उन्हें छोड़ दे, तो उनके पास कहीं और जाने की जगह नहीं बचती। इन्हीं कारणों से मानसिक स्वास्थ्य केंद्र एक तरह से कैदखाने बन गए हैं। यहां महिलाएं इलाज के नाम पर आ तो जाती हैं, लेकिन लौटने की कोई राह नहीं होती है।
केंद्र की सबसे कम उम्र की मरीज 16 साल की ज़ैनब है। उसे घर पर पैरों में बेड़ियां डालकर रखा जाता था ताकि वह भाग न सके। कई बार वह घर से भागी और पुलिस उसे मीलों दूर से पकड़ कर घर वापस लेकर आये । उसके पिता बताते हैं कि जब ज़ैनब आठ साल की थी तभी उसकी मानसिक स्थिति (mental health) बिगड़नी शुरू हुई, और फिर 2022 में उसके स्कूल पर बमबारी के बाद हालत और खराब हो गई। उसके पिता कहते हैं की “अगर हम उसकी बेड़ियां खोल दें तो वह भाग जाएगी। हमारे लिए और उसके लिए बेहतर है कि वह इसी केंद्र में रहे।” इन सब से ज़ैनब बार-बार रो पड़ती है, ख़ासकर तब रोटी हैं जब वो अपनी मां को रोता देखती है।
क्यों फंसी रहती हैं महिलाएं अफ़ग़ानिस्तान के मानसिक स्वास्थ्य सिस्टम में ?
पारिवारिक अस्वीकार्यता - अधिकतर परिवार अपनी बेटियों को मानसिक रोगी मानकर छोड़ देते हैं। उन्हें बोझ समझा जाता है।
पितृसत्तात्मक समाज - बिना पुरुष अभिभावक के महिलाएं घर से बाहर, काम पर या किसी और जगह नहीं जा सकतीं।
आर्थिक निर्भरता - महिलाओं के पास नौकरी या खुद का जीवन चलाने का साधन नहीं है।
तालिबानी पाबंदियां (Taliban restrictions) - शिक्षा, यात्रा और कामकाज पर लगी रोक ने उन्हें और कमजोर बना दिया है।
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कलंक - समाज में मानसिक बीमारियों को शर्म की चीज़ माना जाता है, इसलिए मरीजों को अक्सर छिपा दिया जाता है या छोड़ दिया जाता है।
अस्पतालों की कमी - मरीजों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन अस्पतालों में जगह सीमित है। कई बार महिलाओं को महीनों तक वेटिंग लिस्ट में रहना पड़ता है। इन कारणों से महिलाएं इस सिस्टम में ऐसी फंस जाती हैं कि बाहर निकलने की राह लगभग बंद हो जाती है।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि 2024 में अफ़ग़ानिस्तान की 68 प्रतिशत महिलाओं ने कहा कि उनका मानसिक स्वास्थ्य “खराब” या “बहुत खराब” है। पिछले चार साल में मरीजों की संख्या कई गुना बढ़ गई है। काबुल के एक और अस्पताल में हर दिन औसतन 50 बाहरी मरीज आते हैं, जिनमें 80 प्रतिशत महिलाएं होती हैं। ज्यादातर महिलाएं अवसाद और पारिवारिक हिंसा से जूझ रही होती हैं।
तालिबान सरकार का कहना है कि उन्होंने महिलाओं के अधिकार सुरक्षित किए हैं और वो स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन हकीकत यह है कि जब तक महिलाएं पुरुष अभिभावक के बगैर स्वतंत्र रूप से इलाज, यात्रा और काम नहीं कर सकतीं, तब तक उनकी स्थिति बेहतर होना नामुमकिन है।
मरियम, हबीबा और ज़ैनब जैसी कहानियां सिर्फ़ कुछ महिलाओं की नहीं हैं, बल्कि पूरे अफ़ग़ानिस्तान की उस पीढ़ी की दास्तान हैं जो युद्ध, परंपराओं और तालिबानी नियमों (Taliban restrictions) के बीच पिस रही है। मानसिक स्वास्थ्य (mental health) केंद्र उनके लिए इलाज की जगह से ज़्यादा कैदखाना बन गए हैं। इन महिलाओं की असली बीमारी सिर्फ़ मानसिक नहीं है, बल्कि समाज और सत्ता द्वारा थोपी गई बंदिशें भी हैं। जब तक अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं को बराबरी, शिक्षा और स्वतंत्रता नहीं मिलेगी, तब तक ये क़िले भरे रहेंगे और महिलाएं चुपचाप वहां दम तोड़ती रहेंगी।
यह पूरी कहानी बताती है कि अफ़ग़ानिस्तान (Afghanistan) के मेंटल हेल्थ (mental health) सिस्टम में महिलाएं क्यों फंसी हुई हैं, क्योंकि वहां उनका समाज, उनका परिवार और उनका सिस्टम तीनों उन्हें आज़ाद नहीं होने देते। [Rh/PS]