लड़कियों का विरासत अधिकार: समानता का सपना

लड़कियों का विरासत अधिकार अब केवल क़ानून का मामला नहीं है, बल्कि समाज और परंपरा के बीच असमानता को चुनौती देने वाली लड़ाई बन गया है। यह अधिकार बेटियों को सम्मान, आर्थिक सुरक्षा और समानता देता है, और बताता है कि वास्तविक न्याय तब ही संभव है जब उन्हें भी उनके हक़ की ज़मीन मिले
लड़कियों का विरासत अधिकार  (Sora AI)
लड़कियों का विरासत अधिकार (Sora AI)
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छत्तीसगढ़ के सूरजपुर ज़िले से उठी एक कानूनी लड़ाई ने पूरे देश का ध्यान खींचा है। सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए साफ़ कर दिया कि लड़कियों का विरासत अधिकार किसी भी परंपरा या स्थानीय रिवाज़ के नाम पर छीना नहीं जा सकता। यह निर्णय केवल एक परिवार की नहीं, बल्कि उन तमाम बेटियों की जीत है जिन्हें सदियों से विरासत से बाहर रखा गया।

बेटियों को विरासत से बाहर क्यों रखा गया?

भारतीय समाज में लंबे समय तक यह मान्यता रही कि संपत्ति और ज़मीन पर सिर्फ़ बेटों का हक़ है। बेटियों को “पराया धन” मानकर शादी के बाद उन्हें ससुराल भेज दिया जाता था और उनके हिस्से का अधिकार समाप्त कर दिया जाता था। आदिवासी समाज (Tribal Community) में तो ज़मीन केवल आर्थिक साधन नहीं बल्कि संस्कृति और पहचान का प्रतीक भी रही है। इसलिए वहाँ बेटियों को ज़मीन में हिस्सा देने का डर और गहरा रहा। पितृसत्तात्मक सोच ने इसे और मज़बूत किया पुरुष को स्वामी और महिला को आश्रित मानने वाली मानसिकता ने बेटियों के लिए रास्ते बंद कर दिए।

इतिहास से लेकर आज तक का सफ़र

यदि इतिहास की ओर देखें तो धर्मशास्त्रों में बेटियों को संपत्ति पर बहुत सीमित अधिकार दिया गया। ब्रिटिश (British) शासन में भी पितृसत्तात्मक (Patriarchal) क़ानूनों को ही आगे बढ़ाया गया। आज़ादी के बाद संविधान ने बराबरी का वादा तो किया, लेकिन व्यवहारिक रूप से बदलाव बहुत धीमा रहा। 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में संशोधन कर बेटियों को बेटों के बराबर हिस्सेदारी दी गई, लेकिन आदिवासी समाज अब भी इससे बाहर रहा। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट का हालिया फ़ैसला परिवर्तनकारी साबित हो सकता है।

भारतीय समाज में लंबे समय तक यह मान्यता रही कि संपत्ति और ज़मीन पर सिर्फ़ बेटों का हक़ है। (Sora AI)
भारतीय समाज में लंबे समय तक यह मान्यता रही कि संपत्ति और ज़मीन पर सिर्फ़ बेटों का हक़ है। (Sora AI)

दूसरे समुदायों की स्थिति

विभिन्न धर्मों और समुदायों में लड़कियों का विरासत अधिकार अलग-अलग तरह से लागू होता है। हिंदू  (Hindu) समुदाय में 2005 के बाद बेटियाँ और बेटे समान हक़दार हैं। मुस्लिम समुदाय में बेटियों को हिस्सा मिलता है, लेकिन वह भाई के हिस्से का आधा होता है। ईसाई (Muslim) और पारसी (Parsi) समुदायों में लगभग बराबरी का अधिकार है, हालांकि व्यवहारिक स्तर पर सामाजिक दबाव यहाँ भी मौजूद रहता है। आदिवासी समाज में तो अब तक परंपरा और आधुनिक क़ानून के बीच टकराव बना हुआ था, जिसे यह निर्णय बदल सकता है।

बेटियों को हक़ क्यों ज़रूरी है?

बेटियों को विरासत का हिस्सा मिलना केवल संपत्ति बाँटने का मुद्दा नहीं है, बल्कि समानता और न्याय का सवाल है। संपत्ति का मालिकाना हक़ महिलाओं को जीवनभर आर्थिक सुरक्षा देता है। यह उनके आत्मसम्मान और निर्णय लेने की क्षमता को मज़बूत करता है। अध्ययनों से साबित हुआ है कि जब महिलाओं के पास ज़मीन या संपत्ति होती है तो वे बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर अधिक निवेश करती हैं। इस तरह लड़कियों का विरासत अधिकार न केवल व्यक्तिगत स्तर पर, बल्कि पूरे समाज और आने वाली पीढ़ियों पर सकारात्मक असर डालता है।

ज़मीनी हक़ीक़त

हालाँकि क़ानून में बेटियों को बराबरी मिल चुकी है, लेकिन वास्तविकता अभी भी अलग है। कई महिलाएँ भाइयों से रिश्ते बिगड़ने के डर से अपने हिस्से की माँग नहीं करतीं। कुछ परिवारों में बेटियों को हक़ माँगने पर लालची या स्वार्थी कहा जाता है। पंचायतों और स्थानीय संस्थाओं में भी महिलाओं की आवाज़ अक्सर दबा दी जाती है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार भारत में केवल 13% ग्रामीण महिलाओं के नाम पर ज़मीन दर्ज है। यह आँकड़ा दिखाता है कि कानून कागज़ पर है, लेकिन ज़मीन पर अभी भी अधूरा है।

विभिन्न धर्मों और समुदायों में लड़कियों का विरासत अधिकार अलग-अलग तरह से लागू होता है। (Sora AI)
विभिन्न धर्मों और समुदायों में लड़कियों का विरासत अधिकार अलग-अलग तरह से लागू होता है। (Sora AI)

आर्थिक और सामाजिक बदलाव की ताक़त

यदि सचमुच बेटियों को विरासत का हक़ दिया जाए और उसका पालन कराया जाए तो यह महिलाओं की स्थिति को पूरी तरह बदल सकता है। उनके पास बातचीत की ताक़त बढ़ेगी, वे घरेलू हिंसा और शोषण के ख़िलाफ़ मज़बूती से खड़ी हो सकेंगी और समाज में उनका सम्मान बढ़ेगा। लड़कियों का विरासत अधिकार मिलने से परिवार की आय में संतुलन आएगा और शिक्षा-स्वास्थ्य पर भी सकारात्मक असर पड़ेगा।

परंपरा बनाम आधुनिक क़ानून

कुछ आदिवासी संगठन यह मानते हैं कि बेटियों को हिस्सा देने से परिवार में विवाद बढ़ेंगे और ज़मीन पर बाहरी लोगों का कब्ज़ा हो जाएगा। लेकिन नई पीढ़ी इसे बदलते समय की ज़रूरत मानती है। वे पूछती हैं, जब बेटियाँ शिक्षा, नौकरी और हर क्षेत्र में बराबरी से आगे बढ़ रही हैं तो ज़मीन पर उनका हिस्सा क्यों न हो? यह टकराव बताता है कि परंपरा और आधुनिक क़ानून के बीच संतुलन बनाना कितना ज़रूरी है।

आगे की चुनौतियाँ और समाधान

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला ऐतिहासिक है, लेकिन इसे लागू करना आसान नहीं होगा। राज्य सरकारों को रेवेन्यू रिकॉर्ड में बेटियों का नाम दर्ज करना होगा। पंचायतों और स्थानीय संस्थाओं को जागरूक करना होगा और महिलाओं को कानूनी व सामाजिक सहारा देना होगा। तभी लड़कियों का विरासत अधिकार केवल कागज़ पर नहीं बल्कि ज़मीन पर भी हक़ीक़त बन पाएगा।

क्या बेटी और बेटा सचमुच बराबर हैं? (Sora AI)
क्या बेटी और बेटा सचमुच बराबर हैं? (Sora AI)

निष्कर्ष

आख़िरकार विरासत का हक़ केवल ज़मीन बाँटने का सवाल नहीं है। यह इस सवाल का जवाब है कि, क्या बेटी और बेटा सचमुच बराबर हैं? जब तक बेटियों को संपत्ति में उनका अधिकार नहीं मिलेगा, तब तक समाज में सच्ची समानता अधूरी रहेगी। सर्वोच्च न्यायालय का यह फ़ैसला एक नई रोशनी है, लेकिन इसे हर गाँव और हर घर तक पहुँचाना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। क्योंकि बराबरी का सपना तभी पूरा होगा जब हर बेटी को उसका विरासत अधिकार मिलेगा। (Rh/Eth/BA)

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