

रुपया डॉलर के मुकाबले रिकॉर्ड निचले स्तर ₹91.03 तक गिरा
गिरावट के पीछे FDI–FPI की निकासी, मजबूत डॉलर और आयात अहम कारण
दबाव के बावजूद बड़े विदेशी मुद्रा भंडार के कारण 1991 जैसा देश पर संकट नहीं
"डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है", 1978 में आई फिल्म डॉन का ये डायलॉग, कहीं ना कहीं भारतीय मुद्रा रुपया पर फिट बैठती है। फिल्म में डॉन को पकड़ना मुश्किल था और यहाँ गिरते हुए रुपए को पकड़ना नामुमकिन है। हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि मंगलवार को डॉलर के मुकाबले रुपया एक बार फिर टूटा और ऐसा टूटा कि अब तक के अपने इतिहास के सबसे निम्न स्तर पर है।
मतलब ये कह सकते हैं कि रुपया अपने शतक को पूरा करने से महज 9 कदम दूर है। अमेरिकी डॉलर के मुकाबले रुपया सबसे निचले स्तर ₹91.03 पर पहुंच गया है। तो ऐसे में हम ये कह सकते हैं, अबकी बार ₹91 पार। हालांकि, राजनीतिक नज़रिये से ये विवाद का विषय हो सकता है लेकिन इससे हटकर हमें ये समझने की जरूरत है कि आखिर डॉलर के मुकाबले रुपया क्यों कमजोर पड़ रहा है। इसके 5 अहम कारण हम आज समझेंगे और साथ ही ये भी समझेंगे कि क्या भारत में फिर से 1991 वाला दौर आ सकता है।
दरअसल, डॉलर के मुकाबले रुपया में पिछले 2 दिन से गिरावट देखने को मिल रही है। सोमवार को ये ₹90.74 पर था जबकि मंगलवार को ये ₹91.03 पर पहुँच गया। इस साल रुपया का प्रदर्शन अमेरिकी डॉलर के मुकाबले एशिया में सबसे ख़राब देखा गया। ये 6% तक गिर गया और इसके पीछे कहीं ना कहीं अमेरिका के भारी टैरिफ का भी हाथ है, जिसका असर भारतीय एक्सपोर्ट पर देखने को मिल रहा है। तो चलिए समझते हैं कि डॉलर के मुकाबले रुपया क्यों धड़ाम हो रहा है। यहाँ हम पिछले एक साल के FY 2024-2025 के डाटा के आधार पर समझेंगे।
2014 में जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली, तो उसके बाद से वो हमेशा एक चीज पर जोड़ ज्यादा देते आए हैं और वो है विदेशी निवेश। प्रधानमंत्री के भाषण में भी इसका जिक्र हम सुन सकते हैं लेकिन सच्चाई ये है कि भारत में विदेशी निवेश टिक ही नहीं रहा। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो FY25 में ग्रॉस FDI लगभग 81 अरब डॉलर रहा। ये सुनने में आपको ज्यादा लग रहा है लेकिन तस्वीर कुछ है।
दरअसल, FDI को अगर आप देखेंगे, तो FY25 में नेट FDI घटकर करीब 1 अरब डॉलर तक रह गया, जो पिछले साल 10 अरब डॉलर से ज्यादा था। मतलब ये कि देश में जितना पैसा आया, उतना ही फायदा हुआ और ये पैसा देश में टिका नहीं और निकासी के रूप में बाहर भी चला गया। मतलब लंबे समय की अवधि वाली निवेश भी अर्थव्यवस्था को डॉलर नहीं दे पा रहा है, तो रुपये पर दबाव बढ़ना स्वाभाविक है।
दूसरा कारण ये दिखता है कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर डॉलर काफी मजबूत है। रुपये की कमजोरी को केवल भारत के नज़रिये से देखें, तो ये अधूरा विश्लेषण होगा। 2024 से लेकर 2025 के बीच अमेरिकी डॉलर लगभग दुनिया के सभी मुद्राओं के मुकाबले मजबूत हुआ है। यूक्रेन का युद्ध इसका जीता जागता उदाहरण है। ज़ाहिर सी बात है, अमेरिका कहीं ना कहीं यूक्रेन को हथियार बेचकर अपने देश में डॉलर की पोटली भरे जा रहा है।
साथ ही अमेरिकी फेडरल रिज़र्व ने ब्याज दरों को नीचे गिरने नहीं दिया, जिसका नतीजा ये हुआ कि डॉलर में निवेश काफी सुरक्षित दिखा और उभरते बाज़ारों से पूंजी बाहर निकालने पर फायदा भी हुआ। अंतरराष्ट्रीय मंच के ट्रेंड में रुपया भी शामिल है। इसलिए ये कह देना कि रुपये की गिरावट केवल घरेलू नीतियों की विफलता है, ये सही नहीं होगा।
तीसरे कारण में RBI भी आ जाता है। दरअसल, सरकारी डेटा 2024–25 के अनुसार रुपए को संभालने के लिए RBI ने करीब 34.5 अरब डॉलर बेचे थे। फिलहाल, भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 665–695 अरब डॉलर के करीब है, जिससे पता चलता है कि ये मजबूत स्थिति में है।
हालांकि, RBI की नीति हमेशा से स्पष्ट रही है कि वो रुपये तय स्तर पर नहीं रखता है, बल्कि वो उतार-चढ़ाव को रोकने का काम करता है। अगर RBI हर गिरावट पर हस्तक्षेप करना शुरु कर दे, विदेशी मुद्रा भंडार तेजी से खत्म हो सकता है। ऐसे में ये कह सकते हैं कि रुपये को जानबूझकर बाज़ार के साथ चलने दिया गया। इसका स्तर ₹91 ही क्यों ना पहुँच गया हो?
FPI यानी Foreign Portfolio Investors, जिसे हिंदी में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश कहते हैं। 2024–25 के डेटा के मुताबिक रुपये पर सबसे बड़ा दबाव FPI से ही आया। RBI के बैलेंस ऑफ पेमेंट डेटा को देखें, तो 2024 में FPI इनफ्लो 44 अरब डॉलर से ज्यादा था जबकि FY25 में ये केवल 3.6 अरब डॉलर रहा। मतलब निवेश टिका ही नहीं।
मतलब साफ़ है कि भारतीय शेयर और बॉन्ड विदेशी निवेशकों ने बेचे, रुपये को डॉलर में बदलकर पैसा बाहर लेकर चले गए। ऐसे में जब रुपया बिकेगा और डॉलर की मांग बढ़ेगी, तो स्वाभाविक रूप से रुपये की कीमत गिरेगी।
यहाँ आखिरी कारण है आयात पर ज़्यादा निर्भरता और डॉलर की मजबूरी। भारत एक विकासशील देश है, और हम आज भी लगभग जरूरत के सामान बाहर से ही मंगाते हैं। जैसे कच्चा तेल, गैस, मोबाइल-इलेक्ट्रॉनिक्स और बड़ी मशीनें और इन सबका भुगतान डॉलर में होता है।
हम ज्यादा सामान खरीद तो लेते हैं लेकिन बेच नहीं नहीं पाते हैं और जितने डॉलर हमें चाहिए होते हैं, उतने मिल नहीं पाते हैं। FY25 में पूरे साल भारत का करंट अकाउंट घाटा लगभग GDP का 0.6% रहा। भले ही आख़िरी तिमाही (Q4) में 13.5 अरब डॉलर का फायदा हुआ, लेकिन पूरे साल देखा जाए तो डॉलर की ज़रूरत कम नहीं हुई।
अब ऐसे में सवाल ये है कि क्या भारत में फिर से 1991 वाला दौर आ सकता है? मौजूदा हालात को देखें, तो 1991 जैसा आर्थिक संकट आने की संभावना बहुत कम है क्योंकि तब के समय में और आज के समय में ज़मीन-आसमान का फर्क है। उस समय भारत के पास केवल 1–2 हफ्ते के आयात के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार बचा था।
भारत सरकार के पास तेल तक खरीदने के पैसे नहीं थी। IMF से कर्ज लेकर सोना तक गिरवी रखना पड़ा था। जबकि फ़िलहाल ऐसा कुछ नहीं है। देश में अभी 665–695 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है। साथ ही बाजार को संभालने के लिए कई नीति-उपकरण मौजूद हैं।
तो भले ही रुपया दबाव में है, लेकिन देश में डॉलर की कमी नहीं है। ऐसे में 1991 वाला आर्थिक संकट देश में फ़िलहाल आता नहीं दिख रहा है।