
भारतीय राजनीति में चुनावी मौसम का मतलब है वादों की बाढ़। कोई पार्टी मुफ्त बिजली देने का ऐलान करती है, तो कोई साइकिल, लैपटॉप या नकद राशि देने का वादा करती है। फ़्रीबी संस्कृति नया चलन नहीं है, लेकिन पिछले कुछ सालों में यह चुनाव जितने का सबसे आसान तरीका बन चुका है। पार्टियों की रणनीति और वोटरों का रुझान दोनों ही इस पर टिका हुआ दिखता है।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन फ़्रीबी योजनाओं का पैसा कहाँ से आता है? जवाब है, टैक्सपेयर्स की जेब से। महाराष्ट्र (Maharashtra), गुजरात (Gujarat), कर्नाटक (Karnataka) और दिल्ली (Delhi) जैसे राज्य टैक्स में सबसे ज़्यादा योगदान देते हैं। केंद्र सरकार फिर इस पैसे को कमज़ोर राज्यों जैसे बिहार (Bihar), झारखंड (Jharkhand) और उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) में बाँटती है। लेकिन समस्या यह है कि इन पैसों का इस्तेमाल सड़क, अस्पताल और शिक्षा पर करने की बजाय चुनावी फ़्रीबी योजनाओं पर ज़्यादा किया जाता है। इसी वजह से, बड़े बजट मिलने के बावजूद बिहार जैसे राज्य अब भी पिछड़े हुए हैं।
हर पार्टी जानती है कि छोटे-छोटे फ़्रीबी वादे जनता पर तुरंत असर डालते हैं। दिल्ली के चुनावों में बीजेपी (BJP) और आप (AAP) दोनों ने महिलाओं को नकद राशि देने का वादा किया। बिहार में हाल ही में 125 यूनिट मुफ्त बिजली देने और युवाओ को जो बेरोज़गार है और सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे है उन्हें हर महीने 1000 रुपए देने का भी की घोषणा की।
हालाँकि यह योजना युवाओं की मदद के लिए लाई गई है, लेकिन आलोचकों का कहना है कि ₹1,000 से न तो कोचिंग की फीस निकल सकती है, न किताबों का ख़र्च, और न ही बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकती हैं। इससे भी अहम सवाल यह है कि आर्थिक रूप से कमज़ोर राज्य बिहार इस तरह की योजना को लंबे समय तक कैसे चला पाएगा।। पहले भी बिहार (Bihar) में लड़कियों को साइकिल और बच्चों को लैपटॉप दिए गए। इन सबका मक़सद वोट बैंक मज़बूत करना है। उद्योग, रोज़गार और निवेश जैसे वादे पुरे होने और उनका असर दिखने मै बहुत समय लगता है, लेकिन मुफ्त राशन या बिजली तुरंत दिखाई देने वाला फायदा है इसलिए पार्टिया उस पर ज़्यादा ध्यान देती है।
भारत (India) का बड़ा हिस्सा गरीबी और बेरोज़गारी मै रहता है। जब रोज़ी-रोटी की चिंता हो, तो मुफ्त राशन, नकद राशि या बिजली जैसी योजनाएँ लोगों को बहुत आकर्षित करती है। सड़क, स्कूल और अस्पताल जैसे असली मुद्दों का असर देर से दिखता है, जबकि फ़्रीबी तुरंत राहत और मदद देती है। साथ ही, कई बार जनता को भरोसा नहीं होता कि बड़े वादे पूरे होंगे। यही वजह है कि वोट डालते समय लोग लंबे समय के विकास से ज़्यादा तुरंत मिलने वाले फ़्रीबी को चुनते हैं।
बिहार (Bihar) इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। यहाँ रोज़गार के अवसर बेहद कम हैं, जिस कारण हर साल लाखों युवा काम की तलाश में दिल्ली (Delhi), पंजाब (Punjab) या खाड़ी देशों (Gulf countries) तक पलायन कर जाते हैं। उद्योगों में निवेश भी बहुत कम है। यहाँ दशकों से स्वास्थ्य (health), शिक्षा (education) और रोज़गार (employment) की स्थिति बहुत खराब है। केंद्र सरकार (central government) हर साल बिहार को बहुत बड़ा बजट एलोकेट होता है, लेकिन जब उसका बड़ा हिस्सा फ़्रीबी योजनाओं में चला जाता है। यही कारण है कि इतना बजट मिलने के बावजूद बिहार आज भी देश के सबसे कमज़ोर और गरीब राज्यों में गिना जाता है।
निष्कर्ष
फ़्रीबी संस्कृति वोटरों को चुनावी मौसम में थोड़ी राहत देती है, लेकिन लंबे समय में यह राज्य की तरक्की रोक देती है। बिहार इसका जीता-जागता उदाहरण है। जब तक जनता खुद फ़्रीबी से ऊपर उठकर असली मुद्दों, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य, पर वोट नहीं देगी, तब तक यह चक्र चलता रहेगा। टैक्सपेयर्स का पैसा खर्च होगा, वादे किए जाएँगे, लेकिन असली विकास पीछे रह जाएगा।
(Rh/BA)