Giani Zail Singh, एक ऐसा राष्ट्रपति, जिसने अपने कार्यकाल में देखी थी बेबसी

Giani Zail Singh का जन्म 5 मई, 1916 को पंजाब के फरीदकोट जिले के संधवान ग्राम में हुआ था।
Giani Zail Singh, एक ऐसा राष्ट्रपति, जिसने अपने कार्यकाल में देखी थी बेबसी
Giani Zail Singh, एक ऐसा राष्ट्रपति, जिसने अपने कार्यकाल में देखी थी बेबसी Wikimedia Commons

25 दिसम्बर, 1994 को भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह (Giani Zail Singh) की जब मृत्यु हुई, तब गांधी परिवार से कोई करीबी उनके अंतिम संस्कार के लिए आगे नहीं आया। आया तो कांग्रेस (Congress) का एक ऐसा व्यक्ति, जो उस व्यक्त देश का प्रधानमंत्री था और पुराने दिनों के संवेदना को भली-भांति समझता था। जिसके कारण उस समय के तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव (P. V. Narasimha Rao) ने भूतपूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह का दिल्ली के राजघाट में अंतिम संस्कार करवाया। उस जगह को आज लोग 'एकता स्थल' (Ekta Sthal) के नाम से जानते हैं।

देश के राष्ट्रपतियों की सूची अगर खंगाली जाए तो Giani Zail Singh का कार्यकाल हमेशा ही विवादों से घिरा रहा। कुछ राजनीतिक विशेषज्ञ तो यह भी कहते हैं कि वो देश के सबसे बेबस राष्ट्रपति थे।

Giani Zail Singh का जन्म 5 मई, 1916 को पंजाब (Punjab) के फरीदकोट जिले के संधवान ग्राम में हुआ था। इनके पिता, भाई किशन सिंह, बढ़ई का काम करते थे और साथ ही एक समर्पित सिख थे। छोटी सी उम्र में ही जरनैल सिंह पर से माता का साया हट गया और इनके पालन-पोषण की जिम्मेदारी इनकी बड़ी मौसी पर आ गई।

इनका परिवार बचपन से ही ज्ञानी जैल सिंह को एक धार्मिक ग्रंथी बनाना चाहता था, जिसके लिए उनको उचित शिक्षा भी दिलवाई गई। उन्होंने जो अथाह ज्ञान पाया, उसी कारण से उन्हे ज्ञानी बुलाया जाने लगा। पर काल के गर्भ में क्या छिपा होता है यह किसी को पता नहीं होता। ज्ञानी का संपर्क उस समय के सबसे लोकप्रिय गांधी बाबा से हुआ, जिसके बाद ज्ञानी के जीवन की दिशा ही बदल गई। 1938 में उन्होंने फरीदकोट में प्रजा मंडल की स्थापना की जिसका संबंध कांग्रेस से था। नतीजा ये हुआ कि उन्हें 5 साल के लिए जेल में डाल दिया गया।

5 साल बाद जब वो जेल से बाहर आए तो लोगों ने बहुत ठाट से उनका स्वागत किया और नेहरू ने आश्वासन दिया कि उस वक्त की जो भी राज्य सरकारें बन रहीं थीं उसमें उन्हें नेता का पद मिलेगा। यहाँ से Gyani Zail Singh की सत्ता के तरफ सीढ़ियाँ प्रारंभ हो गईं, जिसके सहारे वो शीर्ष पर इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के समय में पहुंचे।

कई मंत्रालय के पदभार के बाद 1972 में ज्ञानी को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया गया। ज्ञानी ने सिख समुदाय को अपना बनए रखने के लिए धार्मिक प्रतीकों का खूब इस्तेमाल किया। ये वही दौर था जब देश में हरित क्रांति ने पंजाब को गेंहू का कटोरा बना दिया था। पर इन सबके बावजूद अकाली दल के एक प्रस्ताव ने उनके सभी किये पर पानी फेर दिया। अकाली दल का आनंदपुर साहब का प्रस्ताव पंजाब की राजनीति में बड़ी करवट लाई। इस प्रस्ताव को यदि मोटा-मोटा समझा जाए तो यह प्रसताव पंजाब को स्वायत्त राज्य बनाने के लिए था, या यूं कहें कि एक अलग राष्ट्र।

ऐसे प्रस्ताव के बाद कांग्रेस का विरोध स्वाभाविक था, जिसे सिखों ने गलत समझा और नतीजा ये आया कि 1977 में कांग्रेस के जबरदस्त हार के बाद पंजाब की सियासत अकाली दल के हाथों चली गई।

उस समय भारतीय राजनीति में, 'दमदमी टकसाल' का जत्थेदार Jarnail Singh Bhindranwale, एक नया चेहरा बन कर उभर रहा था। भिंडरावाले के ओज भरे भाषणों से सिख प्रभावित थे। वही एक माध्यम था जिससे कि कांग्रेस अपनी पैठ सिखों के बीच दुबारा बना सके। ज्ञानी ने संजय गांधी को भिंडरावाले से मिलवाया। पर उन्हे ये पता नहीं था कि यह भिंडरावाले ही उनके लिए सबसे बड़ा सिर दर्द बनेगा।

इसके बाद 1980 में इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के साथ ही ज्ञानी को गृह मंत्रालय का कारभार सौंपा गया। इधर भिंडरावाले इंदिरा के खिलाफ चलने लगा। कट्टर विचारों से लबरेज भिंडरावाले पर कई हत्या के मुकदमे थे, पर फिर भी वो खुली जीप में दिल्ली घूम रहा था, और सरकार को अंगूठा दिखा रहा था। सत्तारूढ़ सरकार चाहकर भी कुछ नहीं कर पाई, क्योंकि उस समय के गृहमंत्री Giani Zail Singh का सुझाव था कि, ऐसी कार्यवाई से सिख और भी भड़क सकते हैं।

1982 में Giani Zail Singh निर्विरोध देश के सातवें राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए।
1982 में Giani Zail Singh निर्विरोध देश के सातवें राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए।Wikimedia Commons

पंजाब की स्थिति दिन पर दिन बिगड़ती ही जा रही थी, सत्ता के हाथ से पंजाब की रस्सी छूटती दिख रही थी। इसी बीच सिखों का विश्वास जीतने के लिए इंदिरा ने 1982 में अपने कैबिनेट मंत्री ज्ञानी जैल सिंह को राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस का उम्मीदवार बना दिया। ज्ञानी निर्विरोध देश के सातवें राष्ट्रपति (7th President of India) के पद पर आसीन हुए। विरोधी दल के लोगों का मत था कि ज्ञानी को यह पद उनके क्षमताओं के कारण नहीं, बल्कि वफादारी के कारण मिला है। उनके इस बात का सबूत खुद ज्ञानी जैल सिंह के एक कुख्यात बयान में भी मिलता है, जब उन्होंने अपनी वफादारी दिखाते हुए कहा था, 'मैं अपनी नेता का हर आदेश मानता हूं। अगर इंदिरा जी कहेंगी कि मैं झाडू़ उठाकर सफाई करूं तो मैं झाड़ू वाला भी बन जाऊंगा। उनके कहने पर ही मैं राष्ट्रपति बन रहा हूं।'

इस सबके बीच ज्ञानी को यह नहीं पता चला कि इंदिरा गांधी ने तो ये कदम बस अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उठाया था। जिसका पुख्ता प्रमाण इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि, उन्हें इंदिरा के पंजाब प्लान के ऑपरेशन ब्लू स्टार (Operation Blue Star) के बारे में भनक भी नहीं थी। उनको ऑपरेशन के मध्य में ये सबकुछ पता चला।

स्वर्ण मंदिर में हुए ऑपरेशन के बाद उनपर इस्तीफा देने का दबाव बढ़ने लगा, पर उनके समझदार सलाहकारों ने समझाया कि, इस्तीफा देना कोई हल नहीं है, बल्कि ऐसा करने से सिखों और गैरसीखों के बीच की खाई और गहरी हो जाएगी, जिसे किसी काल में भी पाटना मुस्किल हो जाएगा।

ज्ञानी ने इस्तीफा तो नहीं दिया, पर सरकार से काफी नाराज हो गए। उन्होंने जिद की कि वो देश वासियों के नाम एक संदेश प्रेषित करना चाहते हैं, इसके बाद वो फिर इस बात पर अड़ गए कि उन्हें स्वर्ण मंदिर जाने दिया जाए। राष्ट्रपति के सामने किसी की एक ना चली। जब वो स्वर्ण मंदिर पहुंचे तो उनपर हमला भी हुआ, एक गोली उनके एक सुरक्षाकर्मी को भेदते हुए निकल गई।

ये सारा मामला जून में हुआ, और इसके ठीक 4 महीने बाद 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अपने ही दो सुरक्षाकर्मियों द्वारा हत्या कर दी गई। ये दोनों जवान सिख थे। इसकी सूचना राष्ट्रपति को लगी, जोकि उस वक्त ओमान के राजकीय दौरे पर थे। इधर इंदिरा के वारिस राजीव गांधी भी पश्चिम बंगाल के दौरे पर थे। सूचना मिलते ही वो दिल्ली पहुंचे। बड़े सलाह मशवरे के बाद ये तय हुआ कि पहले राजीव गांधी (Rajeev Gandhi) को प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई जाए, उसके बाद देश को इंदिरा के स्वर्गवासी होने की खबर दी जाए। गांधी परिवार के कुछ करीबियों मसलन अरुण नेहरू वगैरह ने सुझाव दिया की जैल सिंह का इंतजार न किया जाए, बल्कि उपराष्ट्रपति आर वेंकटरमण के हाथों शपथ दिला दी जाए। प्रणव मुखर्जी और ओल्ड गार्ड के कई नेताओं ने इस सुझाव का विरोध किया।

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ज्ञानी जैल सिंह ने ओमान से आते ही, राष्ट्रपति भवन के अपने दफ्तर में ही राजीव गांधी को शपथ दिलवाई। पर राजीव और ज्ञानी के बीच एक-दूसरे को समझने बुझने का कोई खास समय नहीं मिला, इससे पहले ही 31 अक्टूबर की दोपहर से ही दिल्ली और देश में सिख विरोधी दंगे भड़कने लगे। कत्लेआम का मंजर बढ़ता गया, पुलिस भी तमाशबीन बनी रही। ज्ञानी जैल सिंह तक जब इसकी खबर पहुंची तो उन्होंने प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री और पुलिस प्रशासन तक पहुंचने की हर संभव कोशिशें की, पर प्रयास विफल रहा।

राष्ट्रपति के लिए रातें काटना मुश्किल हो गया। लोगों के फोन आते थे, उनके दुख सुनकर वो कांप उठते थे। इस सबके बीच दोनों ही पक्षों के मन में एक दूसरे के खिलाफ मवाद भरता गया। स्थिति ये हो गई कि लोकसभा में राजीव के करीबी कांग्रेसी सांसद केके तिवारी (KK Tiwari) ने राष्ट्रपति भवन को आतंकवादियों की शरणस्थली बता दिया। इसपर ज्ञानी और ज्यादा चिढ़ गए। उन्होंने राजीव गांधी पर दबाव डाला जिसके कारण न चाहते हुए भी राजीव को तिवारी पर कार्रवाई करनी पड़ी।

इसके बाद ज्ञानी और राजीव के बीच खाई और गहरी हो गई। ज्ञानी जैल सिंह ने सरकार पर नकेल कसने के इरादे से एक संवैधानिक सहारा लिया। भारत के राष्ट्रपतियों में पहले राष्ट्रपति बने ज्ञानी जिन्होंने पॉकेट वीटो (Pocket Veto) की शक्ति का उपयोग किया। उन्होंने इसके सहारे राजीव के पोस्टल एमेंडमेंट बिल को अपने पास रोक लिया। पॉकेट वीटो राष्ट्रपति को प्राप्त वो शक्ति है जिसके तहत राष्ट्रपति स्वीकृति के लिए आए किसी बिल को अनियमित काल तक अपने पास रोक सकता है।

इससे केंद्र सरकार नाराज हो गई और राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने के बारे में सोचने लगी। पर कई सलाहकारों ने ये कदम, पंजाब की अलगाववादी समस्या को बढ़ाने वाला बताया। जिसके बाद सरकार को अगले राष्ट्रपति के चुनाव तक सहन करना पड़ा। हालांकि इस बिल को बाद में पी वी नरसिंहा राव ने अपने कार्यकाल में खारिज कर दिया।

कार्यकाल पूरा करने के बाद जैल सिंह राजनीतिक निर्वासन में चले गए और सुर्खियों में तब आए जब उनका 29 नवंबर 1994 को पंजाब में रोपड़ के पास एक कार एक्सीडेंट हुआ, जिसमें वो बुरी तरह से घायल हुए और एक महीने तक पीजीआई में भर्ती रहे। एक महीने बाद 25 नवंबर को उनका निधन हो गया।

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