

आईएफएस अधिकारी सौरभ चतुर्वेदी के खिलाफ CAT के स्थगन आदेश की कथित अवेहलना के आरोप लगाए गए हैं।
इन आरोपों से जुड़ी याचिका पर अब तक अदालत में निर्णायक सुनवाई नहीं हो सकी है।
कई न्यायधीश के अलग होने के कारण मामला वर्षों से रुका पड़ा है।
सौरभ चतुर्वेदी — नाम सुनने में भले ही साधारण लगे, लेकिन यह शख़्स अपने काम और सोच की वजह से चर्चा में रहे हैं। सौरभ चतुर्वेदी वर्ष 2002 में इंडियन फ़ॉरेस्ट सर्विस (IFS) में नियुक्त हुए और उन्हें एक ईमानदार व नियमों पर सख़्ती से अमल करने वाले अधिकारी के रूप में जाना जाता है।
अपने कार्यकाल के दौरान सौरभ चतुर्वेदी ने पर्यावरण, वन संरक्षण और प्रशासनिक पारदर्शिता से जुड़े कई मुद्दों पर खुलकर बात की। यही कारण रहा कि उन्हें कई बार तबादलों का सामना करना पड़ा, जिसे उन्होंने हमेशा अपने कर्तव्य का हिस्सा बताया। वे उन अधिकारियों में से हैं जो दबाव के बावजूद अपनी बात पर अड़े रहते हैं। सौरभ चतुर्वेदी के तबादले (Transfer) केवल एक स्थान तक सीमित नहीं रहे। अलग-अलग राज्यों और ज़िम्मेदारियों में उनका स्थानांतरण हुआ, जिसे उनके समर्थक ईमानदारी की कीमत मानते हैं, जबकि प्रशासन इसे एक सामान्य प्रक्रिया बताता रहा है।
याचिका का मामला
विवाद तब और गहराया जब सौरभ चतुर्वेदी के खिलाफ केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण (CAT) के एक स्थगन आदेश (Stay Order) की जानबूझकर अवहेलना करने के आरोप लगाए गए। इन आरोपों से जुड़ी परिस्थितियों को चुनौती देते हुए सौरभ चतुर्वेदी द्वारा एक याचिका दायर की गई, जिसे 2018–2020 के बीच नैनीताल में दाख़िल किया गया था। यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि ये आरोप न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत विचाराधीन रहे हैं और इन पर अब तक कोई अंतिम न्यायिक निष्कर्ष सामने नहीं आया है। यह सिलसिला 2020 से 2023 तक चलता रहा, जिसके चलते मामले की नियमित सुनवाई आगे नहीं बढ़ पाई। कानूनी प्रक्रिया में न्यायाधीशों का किसी मामले से स्वयं को अलग करना असामान्य नहीं है और इसके पीछे हितों के टकराव, पूर्व संलिप्तता या प्रशासनिक कारण हो सकते हैं। हालांकि, एक याचिकाकर्ता के लिए यह स्थिति मानसिक और कानूनी रूप से चुनौतीपूर्ण बन जाती है। ऐसे में सौरभ चतुर्वेदी को न केवल अपने सेवा काल में बार-बार तबादलों का सामना करना पड़ा, बल्कि जब उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक मुद्दे पर न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया, तब भी उन्हें लंबी प्रतीक्षा और अनिश्चितता का सामना करना पड़ा।
व्यवस्था बनाम सुधारक
सौरभ चतुर्वेदी का मामला उन अधिकारियों की स्थिति को दर्शाता है, जो व्यवस्था के भीतर रहकर सुधार की कोशिश करते हैं। एक तरफ प्रशासनिक नियम और प्रक्रियाएँ हैं, तो दूसरी ओर व्यक्तिगत ईमानदारी और संस्थागत जवाबदेही का सवाल। उनके समर्थकों का मानना है कि सौरभ चतुर्वेदी जैसे अधिकारी सिस्टम को बेहतर बनाने की कोशिश करते हैं, जबकि आलोचकों का कहना है कि हर अधिकारी को संस्थागत अनुशासन का पालन करना चाहिए।
निष्कर्ष
यह कहानी केवल सौरभ चतुर्वेदी की नहीं है, बल्कि उन सभी लोगों की है जो बदलाव की कोशिश करते हुए कानूनी और प्रशासनिक जटिलताओं से गुजरते हैं। भारतीय न्याय प्रणाली में प्रक्रियाएँ कभी-कभी लंबी हो सकती हैं, लेकिन उम्मीद यही रहती है कि अंततः हर पक्ष को न्याय मिलेगा और सच्चाई सामने आएगी।
(Rh/PO)