

Summary
नेताजी की अस्थियों की वापसी की मांग, परिवार ने राष्ट्रपति से जापान से अवशेष लाने की अपील की
नेताजी के निधन पर विवाद, विमान हादसे से मौत या गुमनामी बाबा की थ्योरी अब भी चर्चा में
कांग्रेस से अलगाव, गांधी से वैचारिक मतभेद और आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन
'तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा', नाम बताने की जरूरत नहीं है कि ये किसने कहा था। हर कोई जानता है कि ये नेता जी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) का कथन है जो उन्होंने 5 जुलाई 1944 को सिंगापुर में आयोजित एक विशाल रैली में दिया था जहाँ उन्होंने आज़ाद हिंद फ़ौज (INA) के सैनिकों और भारतीयों को संबोधित करते हुए ये कहा था।
नेता जी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी चर्चा आज भी होती रहती है। एक बार फिर वो चर्चा का विषय हैं, क्योंकि उनके परिवार की तरफ से एक अपील राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से की गई है। क्या है पूरा मामला? इसे समझते हैं और साथ ही नेता जी के जीवन से जुड़े छोटे-बड़े हर रहस्य और विवाद पर भी हम थोड़ा प्रकाश डालेंगे।
नेता जी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) के परपोते चंद्र कुमार बोस ने 24 दिसंबर को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू से एक अपील करते हुए पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने महामहिम राष्ट्रपति से ये आग्रह किया कि सुभाष बोस की अस्थियां जापान के रेनकोजी मंदिर में रखा हुआ है, उसे भारत वापस लाया जाए। चंद्र कुमार ने अपने पत्र में यह प्रस्ताव रखा कि सुभाष और शरत बोस की स्मृति को संजोया जाए।
चंद्र कुमार ने अपने पत्र में लिखा कि 21 अक्टूबर 2025 को सिंगापुर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) द्वारा बनाई गई अस्थायी आज़ाद हिंद सरकार की 80वीं वर्षगांठ मनाई गई। इस मौके पर यह भी बताया गया कि दिल्ली में एक सही जगह पर भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) का स्मृति स्थल बनाने की योजना है। इसका मकसद ब्रिटिश शासन के खिलाफ आख़िरी लड़ाई लड़ने वाले सैनिकों को सम्मान देना और नेताजी के प्रसिद्ध नारे ‘चलो दिल्ली’ की याद को ज़िंदा रखना है।
उन्होंने आगे लिखा कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) की अस्थियां जापान के टोक्यो में रेनकोजी मंदिर में रखे हुए हैं। पिछले कई दशकों से आज़ाद हिंद फ़ौज के पूर्व सैनिक, नेताजी की बेटी प्रोफेसर अनीता बोस और परिवार के अन्य सदस्य बार-बार भारत सरकार से अपील करते रहे हैं कि इस महान स्वतंत्रता सेनानी की अस्थियों को भारत वापस लाया जाए। हम आपसे निवेदन करते हैं कि इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाया जाए।
नेता जी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) का निधन कैसे हुआ? ये आज भी एक भारतीय इतिहास का सबसे रहस्यमय और विवादित विषय है। आधिकारिक तौर पर ये कहा जाता है कि उनकी मृत्यु 18 अगस्त 1945 को हुई थी। ये वो दौरे था जब द्वितीय विश्व युद्ध अपने आखिरी पड़ाव पर था और जापान की हार लगभग तय थी।
सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक नेताजी ताइवान (तब जापान के अधीन ताइहोकू) से एक जापानी सैन्य विमान द्वारा उड़ान भर रहे थे। जैसे ही इस विमान ने उड़ान भरा, उसके बाद ही ये दुर्घटनाग्रस्त हो गया। ऐसा कहा जाता है कि इस हादसे में नेता जी बुरी तरह झुलस गए थे और बाद में अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई। जापानी अधिकारीयों ने उनके मौत की पुष्टि की थी।
कथित तौर पर ये भी कहा जाता है कि नेताजी की अस्थियों को जापान लाया गया और फिर टोक्यो के रेनकोजी मंदिर में सुरक्षित रखा गया। भारत सरकार ने इसकी जाँच के लिए शाहनवाज़ कमेटी और खोसला आयोग का गठन किया था और दोनों ने इस विमान हादसे को सच मानते हुए, नेता जी के मृत्यु की पुष्टि की थी।
आधिकारिक तौर पर तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ही मानी जाती है लेकिन इसपर भी काफी विवाद है। कई लोगों का यह मानना है कि उनकी मृत्यु विमान हादसे में हुई ही नहीं थी। असल में वो चुपके से किसी अन्य देश चले गए थे। कई रिपोर्ट्स में यह दावा किया गया है कि वो सोवियत संघ (आज का रूस) पहुंचे और वहीं अपनी ज़िन्दगी बिताने लगे।
साथ ही 10 जनवरी 1966 को जब भारत और पाकिस्तान के बीच ताशकंद समझौता हुआ था तब, उस समय सोवियत संघ के तत्कालीन प्रधानमंत्री अलेक्सी कोसिगिन (Alexei Kosygin) ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री (subhash chandra bose) से यह कहा था कि वो उन्हें एक ऐसी शख्सियत से मिलवाएंगे, जिसे भारत 'मृत' मान चुका है। ऐसा कहा जाता है कि वो अज्ञात व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे लेकिन ये बात कभी सामने आ ही नहीं पाई क्योंकि ताशकंद में स्वयं लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु हो गई।
इसके बाद ये भी कहा गया कि सुभाष बोस (subhash chandra bose) भारत आए और अपनी बची हुई ज़िंदगी यही बिताई। कहा जाता है कि वो गुमनानी बाबा बनकर भारत में रहे थे और अपनी असली पहचान कभी किसी को नहीं बताते थे। पहले वो फैज़ाबाद के राम भवन में रहे और बाद में दिगंबर अखाड़ा में रहने लगे। उनका जीवन बहुत सादा था, लेकिन उनकी आदतें और ज्ञान असाधारण थे। वे अंग्रेज़ी, जर्मन, बांग्ला और हिंदी भाषाओं में धाराप्रवाह बात करते थे और देश-विदेश की राजनीति की गहरी जानकारी रखते थे।
कहा जाता है कि 1985 में गुमनामी बाबा का निधन हो गया। उनके निधन के बाद जब सारे सामान को देखा गया, तो उनके पास नेताजी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) से जुड़ी कई चीज़ें मिली थीं। जैसे आईएनए से जुड़े दस्तावेज़, जर्मन और जापानी भाषा की किताबें, रेडियो और सैन्य नक्शे। साथ ही वो 23 जनवरी (नेताजी की जयंती) और 18 अगस्त को विशेष पूजा और मौन रखते थे, जो नेताजी से जुड़ी तारीखें मानी जाती हैं। इसी के बाद यह चर्चा तेज़ हो गई कि गुमनामी बाबा और नेताजी सुभाष चंद्र बोस एक ही व्यक्ति हो सकते हैं।
हालांकि, इस मामले की जाँच जस्टिस मुखर्जी आयोग ने की। आयोग के मुताबिक गुमनामी बाबा की पहचान संदिग्ध थी और विमान दुर्घटना में नेताजी की मौत के पुख्ता सबूत नहीं थे लेकिन डीएनए जांच के आधार पर आयोग यह साबित नहीं हो पाया कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) को लेकर लेखक-शोधकर्ता अनुज धर ने एक बड़ा दावा भी किया है। नेताजी की मौत की आधिकारिक कहानी अधूरी है और उनके जीवन के आख़िरी वर्षों से जुड़ा सच अब भी छिपाया जा रहा है। उनके मुताबिक 18 अगस्त को विमान दुर्घटना में नेता जी की मृत्यु नहीं हुई थी और इस बात को भारत सरकार ने बिना ठोस सबूतों के आधिकारिक रूप से स्वीकार कर लिया।
धर के मुताबिक नेता जी के रहस्य को अंतरराष्ट्रीय राजनीति के कारण सार्वजनिक नहीं की गई। सरकार को पता था कि वो जीवित हैं लेकिन राजनीतिक स्थिरता और अंतरराष्ट्रीय दबावों के चलते इस सच्चाई को जनता से छिपाया गया। उन्होंने इसे भारत का “सबसे बड़ा कवर-अप” बताया। उनका दावा है कि गुमनामी बाबा ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस थे। अनुज धर के मुताबिक नेताजी से जुड़ी कई सरकारी फाइलें आज भी पूरी तरह सार्वजनिक नहीं की गई हैं, जिससे संदेह और गहरा होता है।
वहीं, अक्षत गुप्ता एक जाने माने लेखक हैं। एक पॉडकास्ट के दौरान उन्होंने कहा था कि ताशकंद समझौते की कुछ तस्वीरों में पीछे की कतार में एक सफेद दाढ़ी वाला व्यक्ति खड़ा है, जिसकी शक्ल नेताजी से काफी मिलती थी। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि भारत और ब्रिटेन के बीच एक ट्रीटी साइन हुई थी जिसमें ये लिखा था कि अगर सुभाष बोस मिलते हैं तो सरकार उन्हें ब्रिटेन को सौंप देगी क्योंकि वो उनके देश के लिए एक अपराधी जैसे हैं।
बोस ने उनके देश के खिलाफ सेना बनाई थी। साथ ही ब्रिटेन का यह भी मानना था कि वो अपने देश में यह बताना चाहते थे कि सिर्फ बोस ही इकलौते ऐसे व्यक्ति थे, जो उनसे ज्यादा स्मार्ट और तेज थे कि कभी उनके पकड़ में ही नहीं आए।
देश जब अंग्रेजों का गुलाम था, तब नेताजी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) भी आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस के साथ 1921 में जुड़े। वो पहली बार 1938 में कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए। फिर 1939 में भी कांग्रेस अध्यक्ष बने लेकिन महात्मा गाँधी और उनके बीच विचारों का मतभेद था। गांधीजी अहिंसा और सत्याग्रह के समर्थक थे जबकि नेताजी अंग्रेजों को हथियार से समझाने के पक्षधर थे। यह विचारधारा का बड़ा फर्क था, जो दोनों के बीच टकराव की जड़ बना।
यही कारण रहा कि उन्होंने 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया। इसके बाद नेताजी ने जर्मनी और जापान की मदद से आज़ाद हिंद फ़ौज का गठन किया। वहीं से उन्होंने भारत को सम्बोधित करते हुए गाँधी जी को राष्ट्रपिता की उपाधि से नवाजा था। स्वतंत्रता के लिए दोनों के लिए रास्ते अलग जरूर थे लेकिन फर्क सिर्फ सोच का था, परन्तु मंजिल एक ही थी।
खैर, नेताजी सुभाष चंद्र बोस (subhash chandra bose) का रहस्य शायद ही कभी सामने आए लेकिन इस राज से पर्दा उठाने की मांग भारत सरकार से हमेशा होती ही रहेगी।