न्यूज़ग्राम हिंदी : सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि वह निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर अपने 2018 के फैसले की समीक्षा नहीं करेगा और इसके बजाय वह अधिक प्रभावी बनाने के लिए 'लिविंग विल' पर दिशानिर्देशों को संशोधित करेगा। जस्टिस केएम जोसेफ और जस्टिस अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, हृषिकेश रॉय और जस्टिस सीटी रविकुमार की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा: हम इसे थोड़ा और अधिक व्यावहारिक बना देंगे, हम इसकी समीक्षा नहीं कर सकते..हम इसे दोबारा नहीं खोल सकते।
द इंडियन सोसाइटी फॉर क्रिटिकल केयर (The Indian Society for Critical Care) की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद पी दातार ने अदालत को बताया कि उन्होंने उन क्षेत्रों को विस्तार से बताते हुए एक चार्ट प्रस्तुत किया है जो अव्यावहारिक हैं। केंद्र का प्रतिनिधित्व कर रहे अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के.एम. नटराज ने कहा कि सब कुछ पहले ही निर्धारित किया जा चुका है और कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां हैं, उस खालीपन को भरना होगा।
शीर्ष अदालत 2018 में उसके द्वारा जारी लिविंग विल/अग्रिम चिकित्सा निर्देश के लिए दिशानिर्देशों में संशोधन की मांग करने वाली याचिका पर विचार कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट ने साल 2018 में एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा था कि गरिमा के साथ मौत एक मौलिक अधिकार है। साथ ही शीर्ष अदालत ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु और लिविंग विल को कानूनन वैध ठहराया था। मामले में सुनवाई गुरुवार को भी जारी रहेगी।
नटराज ने मंगलवार को कहा कि एम्स के प्रतिनिधियों और अन्य हितधारकों के साथ कुछ बैठकें हुई हैं और आवश्यक सुरक्षा उपायों का एक चार्ट तैयार किया गया है। एनजीओ कॉमन कॉज का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील प्रशांत भूषण ने प्रस्तुत किया था कि हर किसी के पास उपचार से इनकार करने का एक अपरिहार्य अधिकार है। दातार ने तर्क दिया था कि कई हितधारकों की भागीदारी के कारण शीर्ष अदालत के दिशानिर्देशों के तहत प्रक्रिया असाध्य हो गई है।
2018 का फैसला एनजीओ कॉमन कॉज द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर आया था, जिसमें मरणासन्न रोगियों द्वारा निष्क्रिय इच्छामृत्यु के लिए बनाई गई लिविंग विल को मान्यता देने की मांग की गई थी।
--आईएएनएस/VS