

मुंगेर के एक मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में जन्मे नंदलाल बोस एक भारतीय आधुनिक कलाकार और शिक्षाशास्त्री थे। उनके पिता का नाम पूर्ण चंद्र बोस महाराजा (Purna Chandra Bose Maharaja) और माता का नाम क्षेत्रमणि देवी (Kshetramani Devi) था। उनके पिता दरभंगा के तत्कालीन राज में हवेली खड़गपुर तहसील के व्यवस्थापक थे।
बोस का कला से परिचय बचपन में ही हो गया था। जब वे बच्चे थे तब उनकी माता, क्षेत्रमणि देवी, उनके मनोरंजन के लिए नए-नए खिलौने और गुड़िया बनाया करती थीं। नंदलाल ने अपनी मां से यह हुनर सीखा था और मिट्टी की कलाकृतियां (Artefacts) बनाने में विशेष रूप से निपुणता हासिल की थी। वह अपनी इस प्रतिभा का उपयोग दुर्गा पूजा के वार्षिक उत्सव के दौरान करते थे, जिसमें पंडाल या झांकियां सजाना शामिल था।
वे 1897 में सेंट्रल कॉलेजिएट स्कूल में पढ़ने के लिए कलकत्ता चले गए और बाद में 1905 में अपने परिवार के आग्रह पर प्रेसीडेंसी कॉलेज में वाणिज्य में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। बाद में उन्होंने अपने माता-पिता को इस बात के लिए राजी किया कि वे उन्हें कलकत्ता के गवर्नमेंट स्कूल ऑफ आर्ट (अब गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट) में दाखिला दिलाएं।
1907 में उन्हें तत्कालीन नव-स्थापित इंडियन सोसाइटी ऑफ ओरिएंटल आर्ट से एक यात्रा छात्रवृत्ति मिली, जिसके लिए वे विद्वान ओसी गंगोली के साथ दक्षिण भारत की मंदिर कला के अध्ययन दौरे पर गए।
1916 में अराई केम्पो की कृतियों के माध्यम से जापानी कला से उनका पहला व्यक्तिगत साक्षात्कार और 1924 में चीन और जापान की उनकी पहली यात्रा
के बाद उनके कलात्मक दृष्टिकोण और सौंदर्यबोध में बदलाव आया। 1920 में जब उन्होंने नव स्थापित कला भवन की बागडोर संभाली, तब तक वे बंगाल स्कूल के वैचारिक मार्गदर्शन में अपनी पहचान बना चुके थे।
रवींद्रनाथ के साथ उनके जुड़ाव ने प्रचलित राष्ट्रवादी सिद्धांतों के प्रति उनके अविश्वास को और गहरा कर दिया और उनके मन में आधुनिक भारतीय कला की संभावना के द्वार खोल दिए।
1930 में जब गांधीजी ने डांडी मार्च शुरू किया तो बॉस ने इस घाटना को अपनी कलाकृति से उकेरा, जो बाद में एक आदर्श छवि बन गई है। उन्होनें रवीन्द्रनाथ टैगोर (Rabindranath Tagore) के पुस्तक संग्रह सहज पथ (पहली बार 1937 में प्रकाशित) को भी लिनोकत प्रिंटों के साथ चित्र किया। बोस ने अपनी विशिष्ट शैलियों में कई पेंटिंग भी बनाईं, जिनामेन से एक प्रसिद्घ कृति, सबरी इन हर यूथ (1941-42) थी, जिसमें रामायण के एक दृश्य को दर्शन गया था जिसमें एक युवा लड़की, संभवता स्वदेशी पृष्टभूमि की, एक पेड़ की शाखाओं पर बैठी राम से मुक्ति की प्रतीक्षा कर रही हो।
भारत की भित्ति चित्रकला परंपरा को पुनर्जीवित करने की प्रेरणा से उन्होंने बागदार रोड (हजारीबाग) (1943) का भूदृश्य, जिसे अजंता की गुफाओं के भित्तिचित्रों की तरह टेम्परा में चित्रित किया गया था, और अभिमन्यु वध (1946-47), महाभारत का एक कथात्मक दृश्य जिसमें पौराणिक नायक अभिमन्यु के फंसने और उसकी हत्या का चित्रण किया गया है, जैसी महत्वपूर्ण कृतियां रचीं। 1946 में उन्होंने बड़ौदा स्थित मोहनदास (Mohandas) और कस्तूरभाई (Kasturbhai Gandhi) गांधी के स्मारक, कीर्ति मंदिर के लिए भी भित्ति चित्र बनाए।
इस बात में कोई दो राय नहीं कि बोस अपने युग के सबसे प्रभावशाली और ऐतिहासिक रूप से संदर्भित कलाकार थे। राष्ट्रवादी विमर्शों में उनकी सार्वजनिक भागीदारी, उनके शैक्षणिक योगदान और उनकी कला की अद्वितीय लोकप्रियता ने नए भारतीय आधुनिकतावादियों की श्रेणी में उनकी स्थिति को मजबूत किया, जिसके लिए उन्हें अनेक सम्मान प्राप्त हुए। उनको 1954 में पद्म विभूषण, 1956 में ललित कला अकादमी की फेलोशिप, 1957 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से मानद डी.लिट., और 1965 में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल द्वारा टैगोर जन्म शताब्दी पदक से सम्मानित किया गया। 1993 में भारत सरकार ने बोस की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में उनकी पेंटिंग "प्रतीक्षा" पर एक डाक टिकट जारी किया।
उनकी अधिकांश पेंटिंग नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय और भारत तथा विदेशों में निजी संग्रहों में सुरक्षित हैं। बोस जीवन भर अपने शिक्षकों और छात्रों, दोनों के प्रिय रहे। 1966 में उनका निधन हो गया। भारतीय कला के जिस आधुनिक पक्ष को चितेरे कला गुरु आचार्य नंदलाल बोस (Acharya Nandlal Bose) ने उजागर किया, उसके कारण वे सदा अमर रहेंगे।
[AK]