

भारत में कहा “जोड़ीदार प्रथा” और “प्रेत विवाह” को माना जाता है ?
भारत विविधताओं का देश है यहाँ की हर संस्कृति, हर परंपरा अपने भीतर एक गहरा अर्थ और भावनात्मक जुड़ाव समेटे हुए है। हर राज्य, हर जनजाति की अपनी अलग मान्यताएँ और रिवाज हैं, जो उनके समाज की सोच, जीवनदर्शन और आध्यात्मिक विश्वासों को दर्शाते हैं। इन्हीं में से दो बेहद अनोखी परंपराएँ हैं केरल के कासरगोड जिले की “प्रेत विवाह” (Pretha Kalyanam) और हिमाचल प्रदेश की “जोड़ीदार प्रथा”। इन में से पहली परंपरा मृत आत्माओं के विवाह से जुड़ी है, तो वहीं दूसरी जीवित लोगों के बीच एक विशेष विवाह संबंध को दर्शाती है। दोनों ही परंपराएँ भले ही अलग हों, लेकिन इनका मूल भाव एक ही है रिश्तों और जीवन को एक गहरे आध्यात्मिक अर्थ से जोड़ना।
केरल के उत्तर में बसे कासरगोड जिले में “प्रेत विवाह” नामक एक बेहद भावनात्मक परंपरा आज भी देखी जाती है। इस अनोखे रिवाज में उन बच्चों की शादी कराई जाती है जो बहुत कम उम्र में इस दुनिया को छोड़ कर चले गए, या कोई जन्म के कुछ दिनों बाद, तो कोई बचपन में ही। यहाँ के लोगों का विश्वास है कि अगर इन दिवंगत आत्माओं का विवाह करा दिया जाए, तो वे परलोक में सुख और शांति पाती हैं और अपने परिवारों को आशीर्वाद देती हैं। ऐसा करने से परिवार में सौभाग्य, समृद्धि और मानसिक शांति बनी रहती है।
हाल ही में इस परंपरा का उदाहरण शोभा कुलाल और चंदप्पा कुलाल के प्रेत विवाह में देखने को मिला था। शोभा की मृत्यु जन्म के केवल 27वें दिन भोजन खाते समय दम घुटने से हो गई थी, जबकि चंदप्पा केवल सात दिन के थे जब वे बीमारी से चल बसे। वर्षों बाद, उनके परिवारों ने यह तय किया कि दोनों की आत्माओं का विवाह कराया जाए, ताकि उनकी आत्माएँ मोक्ष पा सकें। यह विवाह पारंपरिक रीति-रिवाजों और सभी धार्मिक विधियों के साथ संपन्न हुआ, जैसे किसी जीवित जोड़े की शादी होती है। यह केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं था, बल्कि दोनों परिवारों के बीच श्रद्धा, सम्मान और आत्मिक संबंध का प्रतीक बन गया था।
यह परंपराएँ हमें क्या सिखाती है ?
कासरगोड की यह परंपरा हमें सिखाती है कि जीवन केवल सांस लेने का नाम नहीं है, बल्कि यह एक आत्मा की यात्रा का हिस्सा है। मृत्यु के बाद भी संबंध और स्नेह समाप्त नहीं होते। “प्रेत विवाह” यह संदेश देता है कि प्रेम, सम्मान और आत्मिक जुड़ाव मृत्यु की सीमाओं से भी परे जा सकते हैं। यह रिवाज लोगों की उस गहरी आस्था को दर्शाता है, जिसमें वे आत्माओं के अस्तित्व और उनके प्रभाव को स्वीकार करते हैं।
दूसरी ओर, हिमाचल प्रदेश की ऊँची पहाड़ियों में रहने वाली हट्टी जनजाति में एक और अनोखी परंपरा है “जोड़ीदार प्रथा”। यह एक पुरानी बहुपति प्रथा (Polyandry) है, जिसमें एक महिला की शादी एक से अधिक पुरुषों से, आमतौर पर एक ही परिवार के भाइयों से, कराई जाती है। यह परंपरा कभी सिरमौर ज़िले के ट्रांस-गिरि क्षेत्र में बहुत प्रचलित थी और इसे “जोड़ीदार” या “जजड़ा” के नाम से भी जाना जाता है।
इतिहास से सिख मिलती है इस परंपरा को ?
इस रिवाज की जड़ें महाभारत काल से जुड़ी मानी जाती हैं। यह कहा जाता है कि इस परंपरा की प्रेरणा पांचाल की राजकुमारी द्रौपदी से मिली थी, जिन्होंने पाँचों पांडव भाइयों से विवाह किया था। इसलिए इस प्रथा को “द्रौपदी प्रथा” भी कहा जाता है। हालांकि आज भारत में बहुपति विवाह कानूनन मान्य नहीं है, फिर भी हिमाचल के कुछ इलाकों में इसे अब भी सांस्कृतिक परंपरा के रूप में सम्मान दिया जाता है।
स्थानीय समाजसेवी बताते हैं कि गिरीपार क्षेत्र में बहुपति और बहुपत्नी दोनों प्रकार के विवाहों को “जोड़ीदारी प्रथा” कहा जाता है। खास बात यह है कि यह रिवाज केवल लोककथाओं में ही नहीं, बल्कि राजस्व रिकॉर्ड (Revenue Records) में भी दर्ज है। अगर कोई महिला दो या तीन भाइयों से विवाह करती है, तो उससे जन्मे बच्चों को सभी पिताओं की संपत्ति में समान अधिकार मिलता है। यह प्रथा परिवार की एकता बनाए रखने और संपत्ति के बंटवारे से बचने का एक सामाजिक तरीका भी माना जाता है।
“जोड़ीदार प्रथा” सिर्फ एक विवाह परंपरा नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन और आर्थिक स्थिरता की एक समझदार व्यवस्था भी थी। पहाड़ी इलाकों में पहले जहाँ संसाधन सीमित होते हैं, वहाँ यह प्रथा परिवार की ज़मीन और संपत्ति को बाँटने से बचाने का उपाय बनी थी। यह रिवाज यह भी दर्शाता है कि समाज ने परिस्थितियों के अनुसार अपने नियम बनाए और उन्हें एक परंपरा का रूप दें।
निष्कर्ष
भले ही ये दोनों परंपराएँ “प्रेत विवाह” और “जोड़ीदार प्रथा” एक-दूसरे से बिल्कुल अलग प्रतीत होती है, लेकिन इनका मूल विचार एक ही है। जीवन और संबंधों को किसी न किसी रूप में पूर्णता देना। एक परंपरा मृत्यु के बाद आत्मा को संतोष देती है, तो दूसरी जीवन के दौरान परिवार की एकता और संतुलन बनाए रखने का प्रयास करती है।
इन रिवाजों के माध्यम से हमें यह समझने का अवसर मिलता है कि भारत की विविध परंपराएँ सिर्फ रीति-रिवाज नहीं हैं, बल्कि भावनाओं, विश्वासों और सामाजिक समझ का प्रतिबिंब भी हैं। वे हमें सिखाती हैं कि जीवन का अर्थ केवल जीना नहीं, बल्कि रिश्तों और संस्कारों के माध्यम से उसे सार्थक बनाना है। यही भारत की असली पहचान है जहाँ हर परंपरा, चाहे वह कितनी भी अलग क्यों न लगे, अपने भीतर मानवता और आत्मिक जुड़ाव की कहानी कहती है।