देवीधुरा की ख्याति पूरे विश्व में बग्वाल मेले के लिए है। इस बार भी मां बाराही धाम में बग्वाल मेले का आगाज हो गया है। जिसका शुभारंभ उत्तराखंड वन विकास निगम के अध्यक्ष कैलाश गहतोड़ी ने किया। हर साल श्रावण के पूर्णिमा यानी रक्षाबंधन के दिन देवीधुरा के मां बाराही देवी के प्रांगण में एक विशाल मेले का आयोजन होता है। इस दौरान यहां पर 'पाषाण युद्ध' बग्वाल मनाया जाता है। जिसमें चार खामों के दो दल एक-दूसरे के ऊपर फलों और फूलों से बग्वाल खेलते हैं। जो पहले पत्थरों से खेली जाती थी। बता दें कि इस बार चंपावत का प्रसिद्ध देवीधुरा मां बाराही बग्वाल मेले को राजकीय मेला घोषित किया जा चुका है। बीते दो साल कोरोना महामारी के चलते बग्वाल मेला प्रतीकात्मक हुई, लेकिन इस बार मेले का भव्य रूप से आयोजन किया गया है। मेले में धार्मिक कार्यक्रम के अलावा सांस्कृतिक गतिविधियां भी होंगी। इतना ही नहीं मां बाराही देवी के मंदिर को आठ क्विंटल फूलों से सजाया गया है।
उत्तराखंड वन विकास निगम के अध्यक्ष कैलाश गहतोड़ी ने कहा कि माता बाराही की कृपा है कि प्रदेश को पुष्कर सिंह धामी जैसा मुख्यमंत्री मिला है। जिनका संकल्प है कि कुमाऊं क्षेत्र के सभी मंदिरों एवं तीर्थ स्थलों को सामूहिक रूप से विकसित किया जाए। आने वाले समय में क्षेत्र के जितने भी तीर्थ स्थल हैं, उनमें आवश्यकता अनुसार विकास कार्य किए जाएंगे। जिससे क्षेत्र की संस्कृति को संरक्षित किया जा सके।
देवीधुरा बग्वाल का इतिहास: टनकपुर से 132 किमी दूर चंपावत जिले के पाटी ब्लॉक के देवीधुरा में मां बाराही धाम स्थित है। यहां खोलीखाण दुबाचौड़ में हर साल आषाड़ी कौतिक ( रक्षाबंधन) के दिन बग्वाल होती है। पत्थर से शुरू यह बग्वाल अब बीते कुछ सालों से फल फूलों से खेली जाती है। लाखों लोगों की मौजूदगी में होने वाली बग्वाल में चार खामों (चम्याल, गहरवाल, लमगड़िया और वालिग) के अलावा सात थोकों के योद्धा फरों के साथ हिस्सा लेते हैं।
माना जाता है कि देवीधुरा में बग्वाल का यह खेल पौराणिक काल से खेला जा रहा है। कुछ लोग इसे कत्यूर शासन से चला आ रहा पारंपरिक त्योहार मानते हैं, जबकि कुछ अन्य इसे काली कुमाऊं से जोड़ कर देखते हैं। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार पौराणिक काल में चार खामों के लोगों में अपनी आराध्या बाराही देवी को मनाने के लिए नर बलि देने की प्रथा थी। मां बाराही को प्रसन्न करने के लिए चारों खामों के लोगों में से हर साल एक नर की बलि दी जाती थी।
बताया जाता है कि एक साल चम्याल खाम की एक वृद्धा परिवार की नर बलि की बारी थी। परिवार में वृद्धा और उसका पौत्र ही जीवित थे। महिला ने अपने पौत्र की रक्षा के लिए मां बाराही की स्तुति की। मां बाराही ने वृद्धा को दर्शन दिए। कहा जाता है कि देवी ने वृद्धा को मंदिर परिसर में चार खामों के बीच बग्वाल खेलने के निर्देश दिए, तब से बवाल की प्रथा शुरू हुई।
बग्वाल बाराही मंदिर के प्रांगण खोलीखाण में खेली जाती है। इसे चारों खामों के युवक और बुजुर्ग मिलकर खेलते हैं। लमगड़िया व बालिग खामों के रणबांकुरे एक तरफ जबकि, दूसरी ओर गहड़वाल और चम्याल खाम के रणबांकुरे डटे रहते हैं। रक्षाबंधन के दिन सुबह रणबांकुरे सबसे पहले सज-धजकर मंदिर परिसर में आते हैं। देवी की आराधना के साथ शुरू हो जाता है, अद्भुत खेल बग्वाल।
बाराही मंदिर में एक ओर मां की आराधना होती है दूसरी ओर रणबांकुरे बग्वाल खेलते हैं। दोनों ओर के रणबांकुरे पूरी ताकत व असीमित संख्या में पत्थर तब तक चलाते हैं, जब तक एक आदमी के बराबर खून न गिर जाए। कहा जाता है कि पुजारी बग्वाल को रोकने का आदेश जब तक जारी नहीं करते तब तक खेल जारी रहता है।
इस खेल में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता है। पूरे मनोयोग से बग्वाल खेली जाती है। ये भी मान्यता है कि इस खेल में कोई भी गंभीर रूप से घायल नहीं होता है। अंत में सभी लोग गले मिलते हैं। कुछ घायलों को प्राथमिक उपचार दिया जाता है। हालांकि, अब ये प्रथा फूलों से खेली जाती है।
(आईएएनएस/AV)