शारदीय एवं चैत्र नवरात्रों से सभी लोग परिचित हैं। पर इसके अलावा दो अन्य नवरात्रों की व्याख्या भी हमारे ग्रंथों में मिलती है, जिन्हें गुप्त नवरात्रि के नाम से जाना जाता है। ये दो नवरात्रियां अत्यंत गूढ़ एवं प्रचंड मानी जाती हैं, जो हिन्दू पंचांग के अनुसार माघ और आषाढ़ मास में पड़ती हैं। आषाढ़ मास की यह गुप्त नवरात्रि अनेक श्रद्धालुओं और साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण मानी गई है। यह नवरात्रि तंत्र साधकों के लिए अनोखी मानी जा रही क्योंकि इसके पहले दिन सर्वार्थ सिद्धि योग के साथ-साथ गुरु पुष्य योग और अमृत सिद्धि योग बन रहा है जो अत्यंत दुर्लभ योग है। यह गुप्त नवरात्रि अत्यंत गुप्त एवं महाविद्याओं की साधना के लिए विशेष बताया गया है। गुप्त नवरात्रि में दस महविद्याओं की पूजा की जाती है, और इन पूजा, साधनाओं को गुप्त रखा जाता है, तभी इसका सर्वोच्च फल प्राप्त होता है।
हिन्दू शस्त्रों में 10 महाविद्याओं का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार हैं।
काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी । भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ।।
बगला सिद्ध विद्या च मातंगी कमलात्मिका । एता विद्या महेशानि महाविद्या प्रकीर्तिता ।।
काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुर भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला। इन दस महाविद्याओं को प्रायः भगवान विष्णु के दशावतारों के समकक्ष माना गया है। जैसे माँ तारा का अवतार श्री राम और काली माँ का अवतार श्री कृष्ण। ये 10 महाविद्याएं अपने आप में प्रचंड शक्तियों की खान हैं। अतः ऐसी मान्यता है कि जो भी साधक प्रेमपूर्वक इनकी पूजा अर्चना इन गुप्त नवरात्रों में करता है वह सिद्धियों से परिपूर्ण हो जाता है।
आज इसी आषाढ़ गुप्त नवरात्रि का प्रथम दिन है जो माँ काली को समर्पित है। आइए जानते हैं इस कड़ी में प्रथम महाविद्या माँ काली के बारे में। पर इनके बारे में जानने से पूर्व दस महाविद्याओं की उत्पत्ति के बारे में जान लेना चाहिए। पुराणों के अनुसार एक बार माता सती के पिता दक्ष ने महायज्ञ का आयोजन किया और माता सती को निमंत्रित नहीं किया। जब यह जानकारी माता को प्राप्त हुई तो वो अपने पति भगवान शंकर से वहाँ जाने के लिए जिद्द करने लगीं। इसपर भगवान शंकर ने जवाब दिया:
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा, जाइअ बिनु बोलेहुं न संदेहा।
तदपि विरोध मान जहँ कोई, तहाँ गए कल्यान न होई। (-श्रीरामचरितमानस)
शंकर जी ने सती को समझाते हुए कहा कि हालांकि इसमेेें संदेह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहां कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।
माता सती फिर भी नहीं समझीं और ज़िद पर अड़ी रहीं। भगवान शंकर भी अपनी ज़िद्द पर अड़ गए तब माता ने अपना दस महाविद्या रूप दिखाया। माँ काली का स्वरूप देखकर वो अत्यंत भयभीत हो गए और भागने लगे। जिस दिशा में भी वो जाते, एक महाविद्या का स्वरूप उनके सामने आ जाता। इस प्रकार दसों दिशाओं में दस महाविद्या का स्वरूप विराजमान था। अंत में भगवान शंकर ने हाथ जोड़कर जब प्रार्थना की तो माँ ने कहा कि वो वहाँ जरूर जाएंगी और या तो अपना हिस्सा लेंगी या फिर अपमान हुआ तो विध्वंस मचा देंगी। भगवान शंकर के अनुरोध पर माता सती ने अपने दसों रूपों का नाम बताते हुए यूं कहा, 'ये मेरे दस रूप हैं। आपके सामने खड़ी कृष्ण रंग की काली हैं, आपके ऊपर नीले रंग की तारा हैं। पश्चिम में छिन्नमस्तिका, बाएं भुवनेश्वरी, पीठ के पीछे बगलामुखी, पूर्व-दक्षिण में धूमावती, दक्षिण-पश्चिम में त्रिपुर सुंदरी, पश्चिम-उत्तर में मातंगी तथा उत्तर-पूर्व में षोड़शी हैं और मैं खुद भैरवी रूप में अभयदान देने के लिए आपके सामने खड़ी हूं।' यही दस महाविद्याएं अर्थात् दस शक्तियां बताई गई हैं जिनके द्वारा समय समय पर दैत्यों-राक्षसों का वध किया गया।
इनमें प्रथम महाविद्या हैं काली, जिनकी गणना उग्र कोटी के देवियों में की जाती है। दैत्यों का संहार करने के लिए माता ने यह स्वरूप धरण किया था। इनका विस्तृत वर्णन कालीका पुराण में मिलता है। शव पर आरूढ़ यह महाविद्या शिव-शंकर के भांति ही जल्दी ही रूठ और मान जाती हैं। इनका अपमान करना अपने जीवन में संकट को निमंत्रण देना बताया गया है। माँ के एक हाथ में खड्ग, दूसरे में त्रिशूल, तीसरे में कटा हुआ सिर और चौथे में खून से भरा खप्पर शोभायमान है। माँ का यह स्वरूप अत्यंत जाग्रत एवं उग्र है। शत्रुहंता महिषासुर मर्दिनी एवं शिवप्रिया चामुंडा का साक्षात स्वरूप हैं जिन्होंने देव-दानव युद्ध में देवताओं को विजय दिलवाई थी। माँ का क्रोध उस वक्त इतना उग्र था कि उन्हें शांत करने के लिए शिव स्वयं उनके चरणों में लेट गए थे।