आषाढ़ की गुप्त नवरात्रि में हम हर रोज़ एक-एक महाविद्याओं के बारे में पढ़ रहे हैं। आज हम पढ़ेंगे 10 महाविद्याओं में से नौवीं महाविद्या मातंगी के बारे में।
यह देवी शक्ति असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली हैं। मातंग शिव का नाम है। अतः इनकी शक्ति मातंगी हैं। इनका प्रकट्य अक्षय तृतीया अर्थात वैशाख शुक्ल की तृतीया को माना जाता है।
सुमुखी, लघुश्यामा या श्यामला, राज-मातंगी, कर्ण-मातंगी, चंड- मातंगी, वश्य-मातंगी, मातंगेश्वरी आदि नामों से संबोधित होने वाली यह देवी अपने भक्तों पर माँ प्रसन्न होकर उनके गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाती हैं। यह देवी प्रकृति की स्वामिनी हैं।
शिव की यह शक्ति असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली है। गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए लोग इनकी पूजा करते हैं। अक्षय तृतीया अर्थात वैशाख शुक्ल की तृतीया को इनकी जयंती आती है। इनके साधक क्रीड़ा कौशल से या कला संगीत से दुनिया को अपने वश में करने की ताकत रखते हैं। सम्मोहन अथवा वशीकरण विद्या में यह महाविद्या अत्यंत सहायक हैं। अतः इन्हें वचन, तंत्र और कला की देवी भी माना गया है।
इनका वर्ण गहरा नीला है। मस्तक पर अर्ध चंद्र धारण करने वाली इन देवी की तीन आँखें हैं। रत्नों से जड़े सिंहासन पर बैठी हुई माता मंद मंद मुसकाती हैं। अबाह्य मुद्रा धरण कीए हुए यह महाविद्या अपने एक हाथ में गुंजा के बीजों की माला, दूसरे में वीणा तीसरे में कपाल तथा चौथे में खड़ग धारण करती हैं। इनके एक हाथ में शोभित कपाल पर एक तोता बैठ हुआ होता है। तोता का होना वाणी और वाचन का प्रतीक माना गया है। तांत्रिकों की सरस्वती कहे जाने वाली यह देवी वेदों को धरण करती हैं।
कहा जाता है कि चांडाल महिलाओं ने एक बार देवी पार्वती की पूजा आराधना करके अपना ही जूठन भोग में लगा दिया। यह देखकर सभी देवी देवता नाराज हो गए पर माता पार्वती ने उनकी भक्ति से प्रभावित होकर मातंगी रूप धारण किया और भोग को ग्रहण किया। अतः तभी से माता को मातंगी नाम से संबोधित किया जाने लगा। तभी से मां को जूठन का भोग अर्पित किया जाता है।
ऐसी मान्यता है कि देवी मातंगी ने हनुमानजी और शबरी के गुरु मतंग ऋषि के यहाँ माता दुर्गा के आशीर्वाद से पुत्री रूप में जन्म लिया था। यह देवी भारत के आदिवासियों की देवी मानी गई हैं। तारा माँ के समान ही माँ मातंगी को बौद्ध धर्म में भी विशेष स्थान प्राप्त है।