![Animal Sacrifice [Sora Ai]](http://media.assettype.com/newsgram-hindi%2F2025-09-01%2Fyegen8qf%2Fassetstask01k42wck9gf5q9xdbtfrpn1vtt1756738602img0.webp?w=480&auto=format%2Ccompress&fit=max)
भारत एक ऐसा देश है जहाँ आस्था, परंपरा और रहस्य (Faith, Tradition and Mystery) एक-दूसरे में इतने गहराई से जुड़े हुए हैं कि उन्हें अलग कर पाना लगभग असंभव है। इन्हीं परंपराओं में से एक है काली माता के मंदिरों (Kali Mata Temples) में दी जाने वाली जानवरों की बलि। भारत में कुछ विशेष जगहों पर यह परंपरा आज भी जीवित है, जैसे असम का कामाख्या मंदिर (Kamakhya Temple), पश्चिम बंगाल और झारखंड (West Bengal and Jharkhand) के कुछ शक्तिपीठ, और नेपाल का प्रसिद्ध गढ़ीमाई उत्सव (Nepal's famous Gadhimai festival)। हालांकि समय के साथ इस परंपरा को लेकर सवाल भी उठने लगे हैं।
बहुत से लोग मानते हैं कि यह आस्था का हिस्सा है, जबकि कुछ का तर्क है कि जानवरों की बलि (Animal Sacrifice) अमानवीय है और इसे बंद होना चाहिए। लेकिन सवाल यह उठता है की क्या वास्तव में मां काली को प्रसन्न करने के लिए बलि की जरूरत है? क्या यह हिंसा, धर्म का हिस्सा बन सकती है? आज हम इन्हीं सवालों की तह में जाएंगे जो परंपरा, आस्था और तर्क के बीच एक संतुलन खोजने की कोशिश करेगा।
कहाँ से शुरू हुई काली मां को बलि देने की परंपरा?
मां काली को बलि देने की परंपरा की जड़ें प्राचीन हिंदू धर्म (Ancient Hindu Religion) की तांत्रिक परंपराओं में गहराई से जुड़ी हुई हैं। तांत्रिक साधना में मां काली को महाकाली और संहार की देवी के रूप में पूजा जाता है, जो बुराई, अहंकार और नकारात्मक शक्तियों का नाश करती हैं। ऐसी मान्यता है कि बलिदान (विशेषकर नरबलि और पशुबलि) एक प्रकार की चरम आस्था और समर्पण का प्रतीक है, जिसके माध्यम से भक्त मां काली की कृपा प्राप्त करता है।
इतिहासकारों और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, यह परंपरा खासकर मध्यकालीन भारत में तांत्रिक साधकों द्वारा अपनाई गई थी। इन बलियों का उद्देश्य केवल देवी को प्रसन्न करना नहीं था, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक शक्ति (Mental and Spiritual Strength) की प्राप्ति भी था। आपको बता दें कि आज भी यह परंपरा भारत के कुछ क्षेत्रों में जीवित है, जैसे: पश्चिम बंगाल में काली पूजा के समय कई गांवों में आज भी बकरे या मुर्गे की बलि (Sacrifice of a Goat or Chicken) दी जाती है। असम और त्रिपुरा की जनजातीय संस्कृतियों में यह एक आम प्रथा है। वहीं ओडिशा में खासकर शक्तिपीठों में बलि प्रचलित है। नेपाल और बिहार के सीमावर्ती क्षेत्र में देवी पूजा के साथ बलि की परंपरा देखी जाती है। हालांकि अब कई स्थानों पर इसे प्रतीकात्मक रूप (नारियल, कद्दू या फल की बलि) में बदला जा रहा है।
बलि की परंपरा के पीछे की पौराणिक कथा
एक प्राचीन कथा के अनुसार, जब राक्षस रक्तबीज ने तीनों लोकों में आतंक मचाना शुरू किया, तब देवताओं ने मां दुर्गा से सहायता मांगी। रक्तबीज को वरदान था कि उसकी रक्त की एक-एक बूंद से एक नया राक्षस जन्म लेता है। जब मां दुर्गा ने उसका वध करने का प्रयास किया, तो हर बार उसका खून धरती पर गिरते ही नए रक्तबीज उत्पन्न हो जाते। तब मां काली प्रकट हुईं और विकराल, काली, और महाशक्ति से युक्त अवतार लिया। उन्होंने युद्धभूमि में रक्तबीज पर आक्रमण किया और उसका रक्त धरती पर गिरने से पहले ही उसे अपने जिह्वा से पी लिया।
मां काली (Goddess Kali) ने सभी राक्षसों का संहार कर दिया, लेकिन उनका क्रोध और तांडव थम नहीं रहा था। इस उग्र रूप को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके सामने स्वयं लेट कर बलिदान स्वरूप अपना शरीर अर्पित किया। मां काली ने जैसे ही शिव को देखा, उनका क्रोध शांत हुआ। कहा जाता है कि तभी से मां काली को बलिदान अर्पित करने की परंपरा शुरू हुई ताकि उनका क्रोध शांत रहे और संसार की रक्षा होती रहे।
क्या बलि देने से देवी काली प्रसन्न होती हैं?
यह सवाल सदियों से लोगों के मन में रहा है, क्या देवी को जानवर की बलि देने से वे प्रसन्न होती हैं? पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार, काली माँ क्रोध और तामसिक ऊर्जा की प्रतीक हैं। कई भक्तों का मानना है कि माँ को बलि चढ़ाने से वे बुरी शक्तियों को नष्ट कर देती हैं और उपासक को सुरक्षा, शक्ति और मनचाहा वरदान देती हैं। खासकर नवरात्रि, काली पूजा या तंत्र-साधना (Kali Puja or Tantra Sadhana) के अवसरों पर बलि का आयोजन होता है।
हालांकि, सभी मत इस पर सहमत नहीं हैं। कुछ संतों और धर्मगुरुओं का मानना है कि माँ काली करुणा और आत्मबलिदान की देवी हैं, और वे किसी भी हिंसा से प्रसन्न नहीं होतीं। बलि की परंपरा अधिकतर लोक मान्यताओं और तांत्रिक परंपराओं से जुड़ी है, न कि वेदों या मुख्यधारा की शास्त्रीय पूजा पद्धतियों से। आधुनिक समय में यह सोच भी विकसित हुई है कि असली बलि आत्मअहंकार, क्रोध और लालच की होनी चाहिए, न कि किसी निर्दोष प्राणी की। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या धर्म के नाम पर हिंसा उचित है? या फिर हमारी आस्था को समय के साथ बदलने की ज़रूरत है?
भारत में मंदिरों में बलि देने की परंपरा और कानूनी पहलू
भारत में जानवरों की बलि देने की परंपरा कई धार्मिक स्थलों (Religious Places) पर सदियों से चली आ रही है, लेकिन समय के साथ इस पर कानूनी और सामाजिक सवाल भी उठने लगे हैं। भारत में पशु कल्याण और संरक्षण (Animal Welfare and Conservation) के लिए कई कानून बने हैं, जैसे कि पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 (Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960)। इस कानून के तहत जानवरों के साथ क्रूरता करना अपराध माना जाता है। इसके बावजूद कुछ जगहों पर धार्मिक आस्था के नाम पर बलि प्रथा को लेकर कानूनी जटिलताएँ रहती हैं।
अतीत में कई बार पशुबलि के खिलाफ केस दायर हुए हैं, जिनमें धार्मिक स्वतंत्रता और पशु अधिकारों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश की गई। उदाहरण के तौर पर, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में कई बार पशुबलि पर रोक लगाने की मांग उठी है। अदालतों ने अक्सर धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करते हुए यह भी कहा है कि बलि यदि पशु क्रूरता अधिनियम के दायरे में आती है, तो उस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। इसके अलावा, समाज में भी बलि प्रथा को लेकर विवाद बढ़ा है और कई संगठनों ने इसे खत्म करने की अपील की है। इस तरह, भारत में धार्मिक परंपराओं और आधुनिक कानून के बीच लगातार एक संतुलन बनाए रखने की प्रक्रिया चल रही है।
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काली मंदिरों में जानवरों की बलि देने की प्रथा एक प्राचीन धार्मिक परंपरा है, जो कई पीढ़ियों से चली आ रही है। हालांकि यह विश्वास लोगों की आस्था से जुड़ा है, लेकिन समय के साथ इस पर सवाल भी उठने लगे हैं। क्या बलि वास्तव में माँ को प्रसन्न करती है, और क्या यह आज के सामाजिक और कानूनी मानकों के अनुरूप है? आज जरूरत है कि हम अपनी धार्मिक भावनाओं को सम्मान देते हुए, इस प्रथा के वैकल्पिक और दयालु तरीकों को अपनाएं। आस्था और संवेदनशीलता के बीच सही संतुलन बनाना ही भविष्य की दिशा हो सकती है। [Rh/SP]