आज के दौर में समाप्त हो रही गुरु-शिष्य परंपरा में हमें यह समझने कि सबसे ज्यादा आवश्यकता है कि गुरु कृपया से सब कुछ संभव हो सकता है। इसी संबंध में एक कथा बहुत ही प्रचलित है। कथा है आखिर कैसे मूढ़मती गिरी गुरुकृपा से बन गए तोटकाचार्य?
बात उन दिनों की है जब आदिगुरु शंकराचार्य बद्रीनाथ धाम में वेदान्त दर्शन पर अपनी प्रसिद्ध शारीरिक भाष्य की रचना कर रहे थे। वहाँ उस समय वो अपने विद्वान शिष्यों पद्यपादाचार्य, सुरेश्वराचार्य, हस्तामलकाचार्य आदि के साथ रह रहे थे। दिन भर के चिंतन-मनन के बाद शंकराचार्य अपने शिष्यों को ज्ञान देते थे। इन सभी मेधावी छात्रों में शंकराचार्य के एक मंदबुद्धि शिष्य थे जिनका नाम गिरी था। वह भले ही मूर्ख रहे हों पर वो अपने गुरु के प्रति निष्ठा भाव से समर्पित शिष्य थे। गिरी के लिए उनके गुरु ही सर्वस्व थे, जीवन थे। अन्य साथी कई बार गिरी का उपहास भी करते पर गिरी इस सबसे अप्रभावित अपने गुरुसेवा में लीन रहते थे। पर जब वो अन्य साथियों को रचनाएं करते देखते थे तो प्रायः उनसे पूछते थे कि क्या उनका भी कुछ हो सकता है? वह गुरुसेवा में तत्पर हमेशा अपने ज्ञान को लेकर परेशान रहते थे कि उनके मूढ़ मस्तिष्क में क्या काभी कोई ज्ञानाक्षर स्थापित होगा भी या नहीं? वो भले ही अत्यंत मूर्ख थे पर शंकराचार्य उनको अपनी कक्षा में बुलाना काभी नहीं भूलते थे।
इसी तरह एक दिन आचार्य अपनी नियमित कक्षा लेने के लिए अपने आसान पर आसीन थे। पद्यपादाचार्य, सुरेश्वराचार्य, हस्तामलकाचार्य आदि सभी कक्षा के लिए उपस्थित थे पर गिरी अनुपस्थित थे। शंकराचार्य ने विनम्र शब्द में पूछा, 'गिरी कहाँ है?' शिष्यों ने बताया कि वह नदी के तट पर गया हुआ है, शायद वहीं विलंब हो रहा हो उसे। इसपर गुरु ने कहा कि वो गिरी की कक्षा में आने की प्रतीक्षा करेंगे और ध्यान में लीन हो गए। काफी देर हो जाने पर एक शिष्य पद्यपाद ने उनका ध्यान भंग करते हुए कहा कि गुरुवार कक्षा प्रारंभ करें, गिरी का कक्षा में उपस्थित होना या ना होना दोनों बराबर ही है। वह निरा मूढ़ है , जिसकी बुद्धि दीवार के समान है।
पद्यपाद की बातों से आचार्य भगवत्पादशंकर थोड़े आहत हो गए और उनको यह बात स्पष्ट समझ आ गई कि उनके शिष्यों में अपनी विद्वता पर अहंकार आ गया है। यह देखकर शंकराचार्य मुस्कराए और एक क्षण के लिए ध्यानस्थ हो गए। उधर घाट पर गए हुए गिरी अपने गुरु का वस्त्र धुल रहे थे। कपड़े धुलते हुए अचानक गिरी को उनके गुरु की अंतःकरण से आवाज सुनाई पड़ी, 'यह लो गिरी, बुद्धि और ज्ञान लो।' गुरु की आवाज सुनते ही वो आश्रम की तरफ दौड़े और अपने गुरु को देखते ही सबसे कठिन कहे जाने वाले तोटक छन्दों में अपने आचार्य की स्तुति करने लगे। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित थे। उन्होंने जो स्तुति की थी वह कुछ इस प्रकार थी-
विदिताखिलशास्त्र सुधा जलधे, महितोपनिषत्कथितार्थनिधे।
हृदये कमले विमलं चरणं, भवशंकरदेशिक मम शरणम्।।
करूणावरुणालय पालयमाम्, भवसागरदुःखविदून हृदम्।
रचयाखिल दर्शन तत्त्वविदं भव शंकरदेशिकमम शरणं।।
वहाँ अवाक् बैठे सभी शिष्य तब और ज्यादा अवाक् हो गए जब उन्होंने देखा कि गुरु शंकराचार्य ने गिरी को आदेश देते हुए कहा कि आज उनकी जगह पर गिरी ब्रह्मसूत्र पर शंकराचार्य के मन्तव्य को समझाएंगे। और जब उन्होंने अपनी गुरु की आज्ञा का पालन किया तब सभी अन्य शिष्यों को अपने कृत्य पर पछतावा हुआ और उन्होंने गुरु से क्षमा याचना की। आदि शंकराचार्य ने उन्हें क्षमा करते हुए गिरी से कहा कि, चूंकि तुमने अपनी पहली रचना सबसे कठिन तोटक छंद में की है, इसलिए आज से संसार तुम्हें तोटकाचार्य कह कर बुलाएगा।
तो यह थी कहानी एक मूढ़मती की, जो गुरुकृपा से विद्वान बन गया।