बाबा तुलसीदास (Tulsidas) श्री रामचरितमानस (Ramcharitmanas) में कहते हैं :
बड़ें भाग मानुष तनु पावा। सुर दुर्लभ सब ग्रंथन्हि गावा॥
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा। पाइ न जेहिं परलोक सँवारा॥
सभी ग्रन्थ, शास्त्र, उपनिषद्, वेद आदि इस बात को प्रमाणिकता के साथ कहते हैं कि यह मनुष्य योनि ही चौरासी लाख योनियों में से एक ऐसी योनि है जिसे मोक्ष का द्वार कहा गया है। पर ये सफर यूँ ही नहीं पूरा होता, 16 संस्कारों के अध्यायों में पूरी होती है इस सफ़र की किताब। जैसे हिन्दू धर्म में ईश्वर की पूजा में षोडशोपचार (Shodashopchar) पूजा का विधान है, ठीक वैसे ही इस जीवन यात्रा में 16 संस्कार (16 Sanskar) अन्तर्निहित हैं जो इस जीवन कि पूजा के समान है। जैसे 16 अयस्कों का शुद्धिकरण उसे सोना बना देता है वैसे ही जीवन के 16 चरण से होते हुए आत्मा शुद्ध होकर अपने परमात्मा में लीन हो एकीकार हो जाती है। इन सोलह संस्कारों में जन्म (Birth) और मृत्यु (Death) सबसे प्रमुख पड़ाव हैं जो जीवन का अथ और अंत निर्धारित करते हैं। हमारे धर्म ग्रंथों में सबसे पहला संस्कार गर्भाधान संस्कार बताया गया है।
1- गर्भाधान संस्कार (Garbhadhan Sanskar)
मनुष्य जीवन के अध्याय का ये प्रथम चरण होता है जिसमें परिवार के लोग देवताओं का आह्वान करते हुए यशश्वी और कीर्ति को फ़ैलाने वाले पुत्र-पुत्री की कामना करते हैं।
2- पुंसवन संस्कार (Punsavan Sanskar)
इस पड़ाव पर आत्मा शिशु के शरीर में प्रवेश पाती है। अतः सभी कुटुंब मिलकर ईश्वर से उस बच्चे की सुरक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं। ये चरण मनुष्य जीवन की चौखट है, जहाँ से वह अब सब कुछ महसूस करना प्रारम्भ कर देता है।
3- सीमंत संस्कार (Seemant Sanskar)
इसके अंतर्गत जच्चा-बच्चा की सुरक्षा के लिए घर तथा पड़ोस की स्त्रियां गर्भा के गोद में फल, अन्न, इत्यादि मंगल की वस्तुएं डालती हैं और माथे पर तिलक करके शुभकामनाएं देती हैं। कहीं-कहीं इस संस्कार को सीमन्तोन्नायन संस्कार के नाम से भी जाना जाता है।
कई जगह लोक संस्कृति में बच्चे के जन्म के दिन मिट्टी जगाने की प्रथा भी प्रचलित है। इस दिन घर तथा पड़ोस की स्त्रियां मिलकर सोहर अथवा बधाई गाकर कुल देवी-देवता, मातृभूमि तथा पूर्वजों को सन्देश देती हैं कि उनके परिवार की बेल में एक नई शाखा ने जन्म लिया है।
4- जातकर्म संस्कार (Jatkarm Sanskar)
बच्चे के जन्म के छठें दिन घर की सफ़ाई की जाती है। पिता बच्चे के कान में मंत्र और जन्म का नक्षत्र फुसफुसाता है। इस दिन स्तन पान के समय सरस्वती देवी का आह्वाहन करके प्रार्थना की जाती है कि पियूष स्तोत्र सदृश ज्ञान तथा संस्कार का प्रवाह शिशु के रक्त धमनियों में भी हो।
5- नामकरण संस्कार (Namkaran Sanskar)
जन्म के ग्यारहवें दिवस पर उस आत्मा के शरीर को एक नाम प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि नाम ही उस शिशु के आगामी जीवन में उसके व्यक्तित्व के लक्षणों को दर्शाता है।
6- निष्क्रमण संस्कार (Nishkramana Sanskar)
निष्क्रमण का अर्थ ही है 'बाहर निकलना'। अतः इस दिन शिशु को सूर्य, चंद्र तथा धरती माता के दर्शन करवाए जाते हैं। कहीं न कहीं यह प्रतीक भी है मनुष्य का समाज से जुड़ने के प्रथम चरण का।
7- अन्नप्राशन संस्कार (Annaprashan Sanskar)
जब शिशु 6 से 7 महीने का हो जाता है, तब उसको प्रथम बार मिश्री, शहद, दूध, घी, आदि सामग्रियों से निर्मित पंचामृत अथवा खीर, खिचड़ी, दलिया, इत्यादि खिलाया जाता है। यहाँ से अब वो ठोस खाद्य पदार्थों का सेवन धीरे-धीरे प्रारम्भ करता है।
8- चूड़ाकर्म संस्कार (Chudakarma Sanskar)
मुंडन या चौल कर्म नाम से भी जाना जाने वाला यह संस्कार शिशु के प्रथम वर्ष पूरे होने पर किया जाता हैं जिसमें उसकी एक चोटी छोड़कर सारे केश उतार दिए जाते हैं। साथ ही ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि शिशु के मस्तिष्क में सुन्दर विचार, ज्ञान, सुसंस्कार, आदि का विकास हो।
9- कर्णवेधन संस्कार (Karnavedhan Sanskar)
जीवन के इस चरण पर बालक अथवा बालिका के कानों को छेदा जाता है। पिता अपने बच्चे के कानों को छिदवाकर उनके कानों में कहता है- 'सुन्दर तथा पवित्र वाणी सुनें'।
10- यज्ञोपवीत संस्कार (Yagyopavit Sanskar)
शास्त्रों में कहीं-कहीं उपनयन संस्कार नाम से भी उल्लेखित इस संस्कार का अर्थ है- 'नज़दीक लाना'। माता-पिता बालक को गुरु के नज़दीक, गुरु शास्त्रों के नज़दीक, और शास्त्र उसे अविनाशी ब्रह्म के समीप ले आता है। पिता कान में ब्रह्मोपदेश अर्थात् गायत्री मंत्र (Gaytri Mantra) को कहता है:
ॐ भूर्भुवः स्वः । तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्यः धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
ऋग्वेद (Rigveda) में वर्णित इस मंत्र का अर्थ है: 'उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।'
शिष्य यज्ञ की समिधा (लकड़ी) लिए गुरु के पास जाता है और गुरु उस समिधा (लकड़ी) को यज्ञ कुंड में डालता है जो प्रतीक है कि अब गुरु ने शिष्य के पूर्व के अज्ञान, अभिमान आदि विकारों को उस यज्ञ में शेष कर उसे पुनः ज्ञान प्राप्त करने के योग्य बनाकर गले लगा लिया है। गुरु शिष्य को अपने ज्ञान के गर्भ में धारण करता है, और यहाँ से उसका द्वितीय जन्म होता है। गुरु शिष्य को यज्ञोपवीत के तीन सूत्रों का महत्व बताते हुए उसे वेदत्रयी की रक्षा तथा तीन ऋणों के प्रति कर्त्वयपरायण होने का आदेश देता है। तीन ऋण हैं: देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण।
जातक देव यज्ञ के द्वारा देव ऋण से, अध्ययन-अध्यापन द्वारा ऋषि ऋण से और माता-पिता तथा पूर्वजों का श्राद्ध करके पितृ ऋण से मुक्ति पाता है। इसके अतिरिक्त शास्त्रों में दो अन्य ऋण और बताये गए हैं जो क्रमशः मनुष्य ऋण तथा भूत ऋण होता है। जातक समाज सेवा तथा अतिथि सत्कार द्वारा मनुष्य ऋण से और प्रकृति के प्रति अपने दायित्व निर्वहन द्वारा भूत ऋण से मुक्त होता है। और यहीं से शास्त्रों में वर्णित चार आश्रमों में से प्रथम आश्रम ' ब्रह्मचर्य आश्रम' में जातक कदम रखता है।
11- वेदारम्भ संस्कार (Vedarambh Sanskar)
जीवन के इस चरण में जातक वेदों का ज्ञान प्राप्त करता है।
12- समावर्तन संस्कार (Samavartan Sanskar)
समावर्तन का अर्थ है, 'अध्ययन की समाप्ति नहीं'। वास्तव में मनुष्य जीवन खुद में ही कभी न ख़त्म होने वाली पाठशाला है जिसमें हम नित नूतन ज्ञान अथवा अनुभव प्राप्त करते हैं। अतः यहाँ जातक का ब्रह्मचर्य समाप्त होता है और वो दूसरे आश्रम 'गृहस्थ आश्रम' की तरफ कदम बढ़ाता है।
13- विवाह संस्कार (Vivah Sanskar)
पाणिग्रहण संस्कार के नाम से भी जाना जाने वाला यह संस्कार मनुष्य के दांपत्य जीवन की शुरुआत होती है, जहाँ से वो अपने परिवार और सृष्टि के विकास में योगदान देने के लिए आगे बढ़ता है। इस पड़ाव पर दंपत्ति आपस में एक दूसरे को सात वचन देकर एक दूसरे को समानता का सम्मान देते हैं।
14- सर्व संस्कार (Sarv Sanskar)
इस चरण में मनुष्य गृहस्थ आश्रम से वानप्रस्थ में प्रवेश करता है, जहाँ वो समाज के लिए संपूर्ण रूप से प्रस्तुत हो जाता है। तन- मन पवित्र करके सभी मोह हिंसा से दूर होकर व्यक्ति धर्म पालन में संलग्न हो जाता है।
15- संन्यास संस्कार (Sanyas Sanskar)
यह संस्कार चौथे आश्रम के नाम से भी जाना जाता है, जहाँ वो सभी मोह-माया से विमुख होकर एकांत को धारण करके अपने प्रभु में संपूर्ण रूप से ध्यान मग्न हो जाता है और अपने मनुष्य जीवन के लक्ष्य 'मोक्ष' के अंतिम पड़ाव पर पहुँच जाता हैं।
16- अंतिम संस्कार (Antim Sanskar)
और इस अंतिम चरण में आकर मनुष्य जीवन के सबसे बड़े सत्य को स्वीकार करके उस परब्रह्म में पुनः विलीन हो जाता हैं।
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हिन्दू धर्म में वर्णित ये 16 संस्कार बड़े ही वैज्ञानिक तथा तार्किक तरीके से बनाया गया है। हमारे मनीषि वास्तव में पीढ़ी से काफ़ी आगे चलते रहे हैं।