जादूगोड़ा की अनकही पीड़ा : जब परमाणु शक्ति बनी गांव के लिए अभिशाप

झारखंड के जादूगोड़ा (Jadugoda) गांव में देश की परमाणु शक्ति का खामियाजा मासूम बच्चों और महिलाओं को भुगतना पड़ रहा है। यूरेनियम खदानों से फैले रेडिएशन ने ज़िंदगी को बीमारियों, बांझपन और विकलांगता (Disability) में बदल दिया है। विकास की इस अंधी दौड़ में इंसानियत कहीं पीछे छूट गई है।
रेडिएशन से विकलांग पैदा हो रहे बच्चे, मां की गोद बार-बार हो रही सूनी।   (Sora AI)
रेडिएशन से विकलांग पैदा हो रहे बच्चे, मां की गोद बार-बार हो रही सूनी। (Sora AI)
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भारत ने जब 1974 में पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया, तब दुनिया ने हमारी वैज्ञानिक क्षमता की सराहना की। लेकिन इस वैज्ञानिक उपलब्धि के पीछे झारखंड के एक छोटे से आदिवासी (Tribal) गांव जादूगोड़ा (Jadugoda) की कुर्बानी कोई नहीं जानता। यह गांव भारत की पहली और सबसे पुरानी यूरेनियम खदान का घर है। देश की परमाणु शक्ति की नींव जिस मिट्टी पर रखी गई, वहां के लोग आज बीमार, विकलांग (Disabled), बांझपन और कैंसर जैसे गंभीर संकटों से जूझ रहे हैं।

1967 में जादूगोड़ा में यूरेनियम खदान (Jadugoda Uranium Mine) की शुरुआत हुई। उस समय शायद किसी को अंदाज़ा नहीं था कि आने वाले सालों में यह खदान गांव के लिए अभिशाप बन जाएगी। यह खदान यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (UCIL) द्वारा संचालित की जाती है और यहां से निकला यूरेनियम देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का आधार बन चुका है। लेकिन सवाल यह है कि देश को यूरेनियम मिल गया, लेकिन जादूगोड़ा को क्या मिला ? जवाब है,बीमारियाँ, मौत और बंजर ज़मीन। यूरेनियम निकालने की प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में रेडियोएक्टिव कचरा (Radioactive waste) निकलता है, जिसे 'टेलिंग पॉण्ड' में डंप किया जाता है। जादूगोड़ा में ऐसे दो टेलिंग पॉण्ड हैं,एक जादूगोड़ा में और दूसरा तुरामडीह में। रिपोर्ट्स के मुताबिक, एक किलो यूरेनियम निकालने पर लगभग 1750 किलो रेडियोएक्टिव कचरा बनता है, जो इंसानी स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए बेहद खतरनाक होता है।

1967 से चल रही यूरेनियम खदान ने गांव की ज़मीन को बंजर और लोगों को बीमार बना दिया।  (Sora AI)
1967 से चल रही यूरेनियम खदान ने गांव की ज़मीन को बंजर और लोगों को बीमार बना दिया। (Sora AI)

बरसात के मौसम में यह कचरा बहकर खेतों, तालाबों और नदियों तक पहुंच जाता है। रेडिएशन से प्रभावित मिट्टी में फसल नहीं होती, जल ज़हरीला हो जाता है और इंसान बीमार पड़ने लगते हैं। खेत बंजर हो गए हैं, जानवर मरने लगे हैं और सबसे बुरी मार पड़ी है गांव की महिलाओं और बच्चों पर। गांव की कई महिलाएं ऐसी हैं, जिनके चार-पाँच बच्चे मरे हुए पैदा हुए। बहुत से बच्चे जन्म से ही विकलांग (Disabled) होते हैं, कोई चल नहीं सकता, कोई बोल नहीं पाता, तो किसी के हाथ-पाँव पूरी तरह विकसित नहीं होते। कई महिलाएं बांझ हो चुकी हैं, और जिनके बच्चे हैं, उन्हें कैंसर, ट्यूमर या अन्य गंभीर बीमारियाँ हैं।

रेडिएशन का सबसे ज़्यादा असर गर्भवती महिलाओं और छोटे बच्चों पर होता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि रेडियोएक्टिव कण गर्भ में पल रहे भ्रूण के विकास को रोक देते हैं, जिससे मृत शिशु या विकलांग बच्चों का जन्म होता है। ब्लड कैंसर, मोतियाबिंद, त्वचा रोग और सांस की बीमारियाँ भी यहां आम हो चुकी हैं। जादूगोड़ा की पहचान अब 'बीमार गांव' के रूप में होने लगी है। स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि कोई भी अपनी बेटी की शादी यहां नहीं करना चाहता है। लोग कहते हैं कि यह गांव ज़हरीला हो चुका है, जहां लड़की भेजना मतलब उसकी जिंदगी खतरे में डालना है। यहां रहने वाली आदिवासी (Tribal) आबादी खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। वो लोग पूछते हैं, की "देश को यूरेनियम मिल गया, हमें क्या मिला ?"

देश को मिली परमाणु ताकत, लेकिन जादूगोड़ा मांग रहा है इंसाफ और ज़िंदा रहने का हक।  (Sora AI)
देश को मिली परमाणु ताकत, लेकिन जादूगोड़ा मांग रहा है इंसाफ और ज़िंदा रहने का हक। (Sora AI)

यूरेनियम कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया और केंद्र सरकार ने कभी इस गंभीर संकट को खुले तौर पर स्वीकार नहीं किया। सरकारी रिपोर्टों में कहा जाता है कि रेडिएशन 'सीमा के भीतर' है, लेकिन जमीनी हकीकत इससे अलग है। गांव (Jadugoda) के लोग आज भी दूषित पानी पीने को मजबूर हैं, बच्चों का इलाज नहीं हो पाता, और किसी के पास मुआवज़ा या राहत नहीं पहुँचती। कुछ साल पहले एक-दो एनजीओ और स्वतंत्र शोधकर्ताओं ने जादूगोड़ा के हालात पर स्टडी की और रिपोर्ट पेश की। उसमें पाया गया कि टेलिंग पॉण्ड के आसपास रहने वाले 90% से ज्यादा लोगों में स्वास्थ्य समस्याएँ पाई गईं, और इनका कारण रेडिएशन ही है। मगर इन रिपोर्टों को कभी मुख्यधारा मीडिया या सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया।

रेडिएशन से विकलांग पैदा हो रहे बच्चे, मां की गोद बार-बार हो रही सूनी।   (Sora AI)
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खदानों के कारण पेड़-पौधे खत्म हो गए हैं, जंगल उजड़ चुके हैं, और आदिवासी (Tribal) समुदायों को बार-बार विस्थापित किया गया है। पहले से ही गरीबी और भुखमरी झेल रहे ये लोग अब बीमारियाँ और सामाजिक बहिष्कार भी झेल रहे हैं। इलाज की सुविधा दूर-दराज के शहरों में है, लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए उनके पास पैसा नहीं है। भारत का परमाणु कार्यक्रम निश्चित रूप से देश की सुरक्षा और ऊर्जा ज़रूरतों के लिए अहम है। लेकिन क्या इसकी कीमत इतनी भयावह होनी चाहिए ? क्या जादूगोड़ा जैसे गांवों को सिर्फ इसलिए मिटा दिया जाए क्योंकि वो यूरेनियम के नीचे बसे हैं ? आज भारत तकनीकी रूप से 5G, चंद्रयान और डिजिटल इंडिया की बात कर रहा है, लेकिन झारखंड के इन गांवों में पीने का साफ पानी और अस्पताल तक नहीं हैं। ये दो तस्वीरें एक ही देश की हैं, एक चमकता भारत और दूसरा मरता हुआ भारत।

परमाणु शक्ति का गर्व, लेकिन जादूगोड़ा के लिए अभिशाप बन चुकी है यूरेनियम खदान।
(Sora AI)
परमाणु शक्ति का गर्व, लेकिन जादूगोड़ा के लिए अभिशाप बन चुकी है यूरेनियम खदान। (Sora AI)

निष्कर्ष

जादूगोड़ा (Jadugoda) की कहानी सिर्फ एक गांव की नहीं, बल्कि उन सभी गरीब, हाशिए पर खड़े समुदायों की है जिन्हें विकास की कीमत चुकानी पड़ती है। यह समय है कि सरकार, नीति-निर्माता, वैज्ञानिक और समाज मिलकर इस मुद्दे को गंभीरता से लें। यहां के लोगों को मुआवज़ा, स्वास्थ्य सेवाएँ और पुनर्वास चाहिए।

देश को परमाणु ताकत देने वाला जादूगोड़ा अब न्याय और इंसानियत मांग रहा है। और यह सवाल हम सभी से है, क्या किसी गांव को विकलांग बच्चों और बांझ मांओं की कीमत पर परमाणु शक्ति देना वाजिब है ? [Rh/PS]

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