स्वामी विवेकानंद ने सदैव युवा पीढ़ी को देश का भावी भविष्य बताया है, उनके द्वारा कहे सभी हित वचनों में किसी न किसी तरह युवा वर्ग के लिए एक सीख अवश्य रहती है। स्वामी विवेकानंद वह सन्यासी थे जिन्होंने धर्म का प्रचार न केवल भारत में किया बल्कि विश्वभर में अपनी सरलता और असीम बौद्धिक क्षमता द्वारा धर्म को आम लोगों तक पहुँचाया। Swami Vivekananda सदा आत्मज्ञान एवं आत्मबल के विषय पर सामान्य मानस को जागरूक करते थे।
स्वामी जी का कहना था कि "खुदको कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप है।" किन्तु आज के इस सेक्युलर युग में कमजोर को ही बुद्धिमान समझा जाता है। क्योंकि उसमे गलत देखने के साथ-साथ चुप रहने की भी क्षमता होती है। जिसका उदाहरण है मंदिर की वह क्षतिग्रस्त प्रतिमाएं जिन्हे न्याय का इंतजार है। किन्तु इस पर न तो कोई विपक्षी पार्टी की आवाज़ निकलेगी और न ही अवार्ड वापिस करने वालों को कोई आभास होगा। तो इस कथन में निर्बल कौन हैं, हम या वह दंगाई?
Swami Vivekananda कहा था कि "हम वो हैं जो हमें हमारी सोच ने बनाया है, इसलिए इस बात का ध्यान रखिये कि आप क्या सोचते हैं। शब्द गौण हैं, विचार रहते हैं, वे दूर तक यात्रा करते हैं।" लेकिन आज सोच में ही धर्म के विषय में मतभेद है। कोई हिन्दू या अन्य किसी भी धर्म का होकर भी यह कहते सुनाई दे जाए कि धर्म की क्या जरूरत, तो यह चिंता का विषय है। वेद, पुराणों एवं स्वामी विवेकानंद और अन्य गुरुओं ने हमें सदा यही सिखाया है कि अपने धर्म की रक्षा एवं उसका अनुसरण करना चाहिए लेकिन बिना किसी अन्य धर्म की निंदा किए। किन्तु आज के समय इन सभी को दरकिनार करते हुए युवा ही हिन्दू देवी देवताओं पर मजाक गढ़ रहे हैं। और इसी सोच को बदलना है।
स्वामी विवेकानंद शिकागो सम्मलेन में।(Wikimedia Commons)
स्वामी जी ने यह भी कहा था कि " यदि स्वयं में विश्वास करना, और अधिक विस्तार से पढ़ाया और अभ्यास कराया गया होता, तो मुझे यकीन है कि बुराइयों और दुःख का एक बहुत बड़ा हिस्सा गायब हो गया होता।" किन्तु विडंबना यह है कि आज भी एक छात्र एवं छात्रा में विश्वास की बड़ी कमी दिखाई पड़ती है। जिसका मुख्य कारण है यह प्रतिस्पर्धाओं से भरा हुआ समाज, जहाँ पर अगर एक छात्र उत्तीर्ण नहीं हुआ तो उसका जीवन व्यर्थ बता दिया जाता है। जहाँ अव्वल शब्द के बाद तुच्छ की शुरुआत हो जाती है। किन्तु प्रतिस्पर्धा की होड़ में ज्ञान का मोल कहीं खो देते हैं, जिस वजह न तो सही ज्ञान का रस प्राप्त होता है और न ही विश्वास की अमृत।
Swami Vivekananda द्वारा कई हितवचन कहे गए किन्तु जिस ज्ञान की आज हमें अधिक जरूरत है वह है कि " जिस क्षण मैंने यह जान लिया कि भगवान हर एक मानव शरीर रूपी मंदिर में विराजमान हैं, जिस क्षण मैं हर व्यक्ति के सामने श्रद्धा से खड़ा हो गया और उसके भीतर भगवान को देखने लगा – उसी क्षण मैं बन्धनों से मुक्त हूँ, हर वो चीज जो बांधती है नष्ट हो गयी, और मैं स्वतंत्र हूँ।"
स्वामी विवेकानंद सन्यांसी रूप में। (Wikimedia Commons)
"स्वतंत्र होने का साहस करो। जहाँ तक तुम्हारे विचार जाते हैं वहां तक जाने का साहस करो, और उन्हें अपने जीवन में उतारने का साहस करो।" यह ब्रह्मवाक्य भी स्वामी विवेकानंद द्वारा ही कहा गया था। जिस पर हमे अमल करने की आवश्यकता है क्योंकि गलत इतिहास और तथा-कथित Secular तबके पर जब कोई आपत्ति नहीं जताता है तो वह हमारी स्वतंत्रता का हनन है। जिस वजह से वह भगवा आतंकवाद या Hindu-Terrorism जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं और रामायण को मिथ्या और राम को काल्पनिक बताते हैं। आज जब हम 'समाज क्या सोचता है' या 'मित्र क्या सोचते हैं' इन बंधनों से मुक्त हो जाएंगे तब जाकर अपने दिल की बात रखने की स्वतंत्रता प्राप्त होगी। जिस पर Swami Vivekananda ने बहुत अच्छा कहा है कि "दिल और दिमाग के टकराव में दिल की सुनो।" क्योंकि दिल स्वतंत्र है और दिमाग कई पशोपेश से बंधा हुआ है।
स्वामी विवेकानंद के वचनों में आप जितनी गहराई में जाएंगे, हर तल पर कुछ नया सीखने को मिलेगा। और जिनसे हम कुछ अच्छा एवं अनंत ज्ञान पाते हैं उन्हें ही गुरु मान लेते हैं, चाहे वह इस संसार में हैं या नहीं। Swami Vivekananda ने एक अच्छे गुरु के साथ-साथ एक अच्छे शिष्य का धर्म भी बखूबी पालन किया है।
स्वामी विवेकानद जी को शत् शत् नमन!