
दुनिया के इतिहास में जासूसों (Espionage) की कहानियाँ हमेशा रहस्य और रोमांच से भरी हुई रही हैं। कभी वो युद्ध का रुख़ बदल देते हैं, तो कभी सत्ता के बड़े बड़े खेलों का हिस्सा बनते हैं। इनमें से कुछ नाम ऐसे भी हैं जिन्हें समय कभी भुला नहीं पाता। ब्रिटेन के टी.ई. लॉरेंस, जिन्हें दुनिया भर के लोग "लॉरेंस ऑफ अरेबिया" के नाम से जानते हैं, और भारतीय मूल की महिला जासूस नूर इनायत ख़ाँ, जो नाज़ी जर्मनी के खिलाफ़ फ्रांस में बहादुरी से लड़ी थीं। आपको बता दें ये दोनों इतिहास के पन्नों में अनोखी छाप छोड़ कर गए हैं।
पहला विश्व युद्ध (1914-1918) सिर्फ़ यूरोप तक सीमित नहीं था, बल्कि इसका असर पूरी दुनिया पड़ा है, और इसने पूरी दुनिया की राजनीति बदल दी। उस समय ब्रिटेन और फ्रांस जैसे औपनिवेशिक साम्राज्य चाहते थे कि ओटोमन साम्राज्य (तुर्की) टूट जाए ताकि अरब इलाक़ों पर उनकी पकड़ मज़बूत हो सके। इसीलिए ब्रिटेन ने अरबों को तुर्कों के ख़िलाफ़ भड़काने और विद्रोह खड़ा करने की रणनीति बनाई। इसी योजना में टी.ई. लॉरेंस को भेजा गया।
लॉरेंस (Lawrence) मूल रूप से ब्रिटिश सेना में एक अधिकारी थे, और वो पुरातत्वविद् थे। उन्हें अरबी भाषा और संस्कृति की गहरी जानकारी थी। उनकी यही विशेषता उन्हें ब्रिटिश ख़ुफ़िया एजेंसी का अहम हिस्सा बना दी, और उन्हें हिजाज़ (आज का सऊदी अरब) भेजा दिया गया, जहाँ शरीफ़ हुसैन और उनके बेटे फ़ैसल तुर्कों के ख़िलाफ़ विद्रोह की तैयारी कर रहे थे।
लॉरेंस ने अरब नेताओं से दोस्ती कर ली और उन्हें भरोसा दिलाया कि अगर वो तुर्कों के ख़िलाफ़ ब्रिटेन का साथ देंगे, तो उन्हें स्वतंत्र अरब साम्राज्य मिलेगा। यह वादा अरबों के लिए बेहद आकर्षक था। लॉरेंस की मदद से अरब विद्रोहियों ने तुर्की सेना पर कई हमले किए, जिनमें सबसे बड़ा हमला था, अक़ाबा पर धावा बोल दिया। इस जीत ने अरब विद्रोह की दिशा ही बदल दी और लॉरेंस की प्रतिष्ठा पूरे विश्व में फैल गई।
हालाँकि, असलियत इस मामले से अलग थी। लॉरेंस ब्रिटेन की गुप्त योजना "साइक्स-पिको समझौते" (1916) के बारे में जानते थे, जिसके तहत ब्रिटेन और फ्रांस ने तय कर लिया था कि युद्ध ख़त्म होने के बाद अरब इलाक़ों को बाँट लेंगे। यानी अरबों को कभी स्वतंत्रता मिलने वाली ही नहीं थी। लॉरेंस ने अरबों को आधा सच और आधा झूठ बताकर ब्रिटेन के फायदे के लिए कार्य किए।
युद्ध ख़त्म होने के बाद अरब इलाक़े ब्रिटेन और फ्रांस के बीच बँट गए। इसके बाद अरब नेताओं को ठगा हुआ महसूस हुआ और लॉरेंस की छवि एक "नायक" और "धोखेबाज़" दोनों रूपों में बन गई। उनकी किताब "Seven Pillars of Wisdom" ने उन्हें रहस्यमयी और करिश्माई शख्सियत बना दिया। आज भी इतिहासकार मानते हैं कि लॉरेंस (Lawrence) की जासूसी और कूटनीति ने मध्य-पूर्व की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया है।
ऐसे ही भारतीय मूल की एक और जासूस नूर इनायत ख़ाँ, जो साहस की सच्ची मिसाल हैं, और जिन्होंने नाज़ियों से लिया था लोहा
नूर इनायत ख़ाँ (Noor Inayat Khan) का जन्म 1914 में रूस में हुआ था, लेकिन उनका परिवार मूल रूप से भारतीय निवासी था। उनके पिता हज़रत इनायत ख़ाँ एक मशहूर सूफ़ी संत और संगीतकार थे। नूर का बचपन पेरिस में बीता और वो बेहद संवेदनशील, संगीतप्रिय थीं और उनका साहित्य में भी बहुत अधिक रुचि था। उनके स्वभाव को जानने के बाद, उन्हें कभी किसी ने योद्धा या जासूस के रूप में नहीं सोचा था।
जब नाज़ी जर्मनी ने फ्रांस पर कब्ज़ा कर लिया था, उस समय नूर और उनका परिवार ब्रिटेन चले गए थे। उसके बाद नूर ने एक बड़ा फ़ैसला लिया कि वो ब्रिटेन की "स्पेशल ऑपरेशंस एक्जीक्यूटिव (SOE)" नामक गुप्तचर एजेंसी में शामिल होने का, फिर वो "स्पेशल ऑपरेशंस एक्जीक्यूटिव (SOE)" नामक गुप्तचर एजेंसी में शामिल हो गईं। यह एजेंसी जर्मनी के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों में जासूस भेजती थी।
इसके बाद नूर (Noor Inayat Khan) को रेडियो ऑपरेटर बनाया गया और उन्हें फ्रांस भेज दिया गया। उस समय रेडियो ऑपरेटर का काम बेहद ख़तरनाक था, क्योंकि जर्मन गेस्टापो (गुप्त पुलिस) रेडियो सिग्नल पकड़कर जासूसों (Espionage) तक पहुँच जाती थी। इसी तरह से जर्मनी ने कई जासूस पकड़ लिए थे, लेकिन नूर ने लगभग तीन महीने तक अकेले ही पूरा नेटवर्क चलाया। यह काम इतना कठिन था कि कोई भी लंबे समय तक टिक नहीं पाता।
आख़िरकार, नूर को एक गद्दार की सूचना पर पकड़ लिया गया, और गेस्टापो ने उनसे जानकारी निकालने के लिए अमानवीय पीड़ा दिया, नूर को बहुत कष्ट और पड़ा हुआ, लेकिन नूर ने किसी का नाम नहीं बताया। कई बार उन्होंने जेल से भागने की कोशिश भी की, लेकिन हर बार पकड़ी गईं। उनकी हिम्मत और चुप्पी से जर्मन अधिकारी तक हैरान रह गए थे।
1944 में, जब युद्ध अपने अंतिम दौर में था, तब नूर इनायत ख़ाँ को जर्मनी के डाख़ाउ क़ैदी शिविर में गोली मार दी गई थी। मरते समय उन्होंने सिर्फ़ एक शब्द कहा था, वो शब्द था "आज़ादी !"। युद्ध के बाद ब्रिटेन ने उन्हें मृत्यु के बाद का सम्मान "जॉर्ज क्रॉस" और "क्रॉस ऑफ़ वॉर" जैसे सर्वोच्च सम्मान दिए। आज पेरिस और लंदन में उनके नाम पर स्मारक बने हैं।
टी.ई. लॉरेंस और नूर इनायत ख़ाँ (Noor Inayat Khan), दोनों ने अलग-अलग समय पर और अलग-अलग तरीक़े से जासूसी की। लेकिन लॉरेंस की कहानी हमें यह बताती है कि जासूसी और राजनीति अक्सर छल और धोखे से भरी होती है। वहीं नूर की कहानी से हमें यह सिख मिलता है कि सच्ची जासूसी सिर्फ़ रणनीति नहीं, बल्कि साहस, बलिदान और सच्चाई के लिए लड़ने का नाम है।
निष्कर्ष
जासूसी (Espionage) की दुनिया हमेशा रहस्यों से भरी रहती है। लॉरेंस (Lawrence) ऑफ अरेबिया और नूर इनायत ख़ाँ (Noor Inayat Khan) की कहानी से हमें यह सिख मिलता हैं कि कैसे एक व्यक्ति इतिहास का रुख़ बदल सकता है, चाहे वह राजनीति के लिए हो या इंसानियत के लिए। लॉरेंस ने जहाँ एक साम्राज्य के हित में अरबों से धोखा किया, वहीं नूर इनायत ख़ाँ ने अपने प्राण देकर भी आज़ादी और मानवता की रक्षा की। यही कारण है कि आज भी उनका नाम इतिहास में जिंदा है और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देता है। [Rh/PS]