आजकल कहे जाने वाले उदारवादी (Liberal) समूहों का ये बयान काफ़ी चर्चा में है कि गीता ( Bhagavad Gita ), कुरान और बाइबिल समान हैं। दरअसल, हाल ही में कर्नाटक (Karnataka) राज्य के एक स्कूल ने अभिभावकों के लिए एक फरमान जारी किया जिसमें लिखा हुआ था,'आप सुनिश्चित करें कि आपका बच्चा प्रत्येक अवसर पर उपस्थित रहेगा और अपने साथ बाइबिल रखने में कोई आपत्ति नहीं करेगा'। इसपर आपत्ति उठाने पर राज्य में ये चर्चा शुमार हो गयी कि गीता, कुरान और बाइबिल समान हैं।
यहाँ यह समझना होगा कि दो विषयों में किसी एक बिंदु को समान पाकर हम समता की मुहर नहीं लगा सकते बल्कि उसके सभी शाखाओं को समझना होगा। जहां गीता के 9वें अध्याय में कृष्ण कहते हैं कि,'यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं।' 'येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विता:।' वहीं अन्य धर्म ग्रन्थ, चाहे वो कुरान हो या बाइबिल, एकेश्वरवाद पर बल देता है। उनके लिए अन्य देवी-देवताओं को मानने वाले द्रोही होते हैं।
भगवद्गीता हिन्दू होने की कोई परिभाषा नहीं देती, बल्कि धर्म को व्यक्तिगत बताती है, 'श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधार्मात्स्वनुष्ठितात् '। अपने धर्म का पालन त्रुटिपूर्ण ढंग से करना अन्य के कार्यों को उपयुक्त ढंग से करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। दिए गए समय में 'क्या कर्तव्यपरायण कर्म है', इसकी सूझ-बूझ ही धर्म है। जबकि बाइबिल इस विषय पर कहता है कि, 'इसाई होने के लिए बाइबिल पर विश्वास होना ज़रूरी है'।
भगवद्गीता (Bhagwadgeeta) संपूर्ण रूप से जीवन पद्धति पर आधारित है जो अपने पात्रों द्वारा जीवन के विविध समस्याओं और उसके समाधान पर प्रकाश डालता है। जैसे अर्जुन के रूप में प्रश्नकर्ता हम स्वयं हैं, उत्तर देना वाला हमारा चेतना स्वरुप कृष्ण है, धृतराष्ट्र हमारे अंधे मन का प्रतिनिधि है, दुर्योधन हमारी तृष्णा है। वास्तव में यदि हम गहराई से पढ़ें तो पाएंगे कि वर्णित सभी पात्र हमरे दैनिक जीवन में इर्द-गिर्द घूमने वाले विकार, समस्या आदि ही हैं।
बहुत से विशेषज्ञ भगवद्गीता को कर्मकांडों से भरी एक निर्देशिका मानते हैं जबकि 'तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन' कहकर कृष्ण उन सभी कर्मकांडों का खंडन करते हैं। उनके लिए भक्त की विधियों से कहीं अधिक भावनाओं का महत्व है। बल्कि कर्म की परिभाषा पर समस्त कर्म को यज्ञ की तरह सम्पन्न करने का आग्रह करते हैं।
जहाँ अन्य धर्मों में प्रश्नों के लिए कोई जगह नहीं है, अर्थात बिना किसी तर्क-वितर्क के आदेश को मानने के लिए कठोरता दिखाई जाती है वहीं सनातन शास्त्र प्रश्न करने पर बल देता है। यही कारण है कि हमारे पास इतने ग्रन्थ हैं और ये प्रत्येक ग्रन्थ उठने वाले प्रश्नों के उत्तर के परिणाम में लिखे गए हैं।
जब वेदों के ज्ञान को समझना मुश्किल हुआ तो पुराण लिखे गए, तत्पश्च्यात उपनिषद् आए जिसमें याज्ञवल्क्य, गार्गी, अरुंधती, नचिकेत इत्यादि महान व्यक्तित्वों के वार्तालाप को संग्रहित करके जिज्ञासा शांत करने का प्रयास किया गया। इसी क्रम में भगवद्गीता भी मन में उठने वाले ढेर सारे प्रश्नों का उत्तर है जिसमें प्रश्नकर्ता अर्जुन हम सभी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और कृष्ण हमारी चेतना का स्वरुप है। क्यूंकि बृहदारण्यक उपनिषद् का उद्घोष है,'अहम् ब्रह्मास्मि'। मैं ही ब्रह्म हूँ' अत: यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'मैं' शब्द चेतना का प्रतिनिधि शब्द है। इसलिए कृष्ण और कोई नहीं हमारी चेतना हैं।
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उपर्युक्त तर्क से भी अधिक तर्क दिए जा सकते हैं जो इसका समर्थन करते हैं कि हमारे गीता आदि ग्रन्थ भी अन्य धर्मों के ग्रंथों से कहीं अधिक आगे हैं जो समय-समय पर परिमार्जित होते रहे पर अपने आधार से विरक्त नहीं हुए जबकि अन्य धर्मों में ऐसा नहीं मिलता। हमने अपने ही ग्रन्थ अथर्ववेद से सीखा है 'माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्या' अर्थात् भूमि मेरी माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। यहाँ बल है वसुधैव कुटुम्बकं की भावना पर जबकि अन्य धर्म के ग्रन्थ वहीं एक रेखा खींच देते हैं। इसीलिए यहाँ मानव-मानव में किसी भेद की कोई गुंजाइश नहीं है।
अतः यहाँ गीता में अन्य धर्म के ग्रंथों की तरह किसी चीज को मानने पर कोई जोर नहीं है बल्कि जोर है कर्म, ज्ञान और भक्ति पर। जहां श्रोता मुक्त है मानने या ना मानने से। शायद यही स्वतंत्रता आज लोगों को अपने ग्रंथों को पढ़ने से भी दूर कर रहे हैं जिसके परिणाम में ऐसे ही दकियानूस उदारवादी पैदा हो रहे हैं जो बिना सिर-पैर के तर्क देते रहते हैं।