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झांसी की रानी लक्ष्मीबाई: जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी|

Swati Mishra

भारतीय मध्ययुगीन इतिहास जहां अनेक वीर पुरुषों के वीरतापूर्ण कार्यों से भरा पड़ा है। वहीं स्त्री जाति के वीरतापूर्ण कार्यकलापों से यह अक्सर अछूता रहा है। सर्वत्र नारी को दयनीय, लाचार और मानसिक रूप से दास प्रवृति को ही दिखाया गया है। उस काल में यह गौरव से कम नहीं की रानी लक्ष्मीबाई ने भारतीय नारियों की इस दासतापूर्ण मानसिकता को ध्वस्त कर दिखाया था। इसलिए आज भी रानी लक्ष्मीबाई का नाम गर्व से लिया जाता है। एक ऐसी महिला स्वतंत्रता सेनानी जिन्होंने अंग्रजों से लोहा लिया था| आज उनके द्वारा किए गए संघर्ष सभी भारतीयों के हृदय में एक नवीन उत्साह का संचार कर देता है।

आइए आज उनके द्वारा देश की आन-बान-शान को बचाने के लिए किए गए संघर्ष को याद करें। उस युद्ध की बात करें जब उनकी तलवार ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे और अंग्रजों के रक्त से अपने अस्तित्व को पूरा किया था।

1857 की क्रांति से हम सभी भली – भांति परिचित हैं। 1857 की क्रांति (Revolution of 1857) में रानी लक्ष्मीबाई ने एक अहम भूमिका निभाई थी। संघर्ष कुछ यूं शुरू हुआ था कि, भारतीय नागरिकों में यह अफवाह फैल (हालाँकि यह अफवाह नही बल्कि सच था) गई थी कि, भारतीय सैनिकों को जो हथियार दिए गए हैं उनमें गाय और सूअर की चर्बी को इस्तेमाल किया गया था। जिस वजह से भारतीय सैनिक, अंग्रेजी सैनिकों के विरोध में खड़े हुए और उन्होंने प्रण लिया की अंग्रजी हुकूमत से देश को आजाद करा कर रहेंगे। बड़े स्तर पर दोनों गुटों के बीच युद्ध छिड़ गया। धीरे – धीरे यह विद्रोह मेरठ, बरेली और दिल्ली तक भी पहुंच गया। कई महान आत्माओं को इस युद्ध में अपनी जान भी गवानी पड़ी थी।

सम्पूर्ण भारत से अंग्रेजों को खदेड़ देने का प्रण लिया गया था। परन्तु पूरे भारत से तो नहीं लेकिन झांसी से इन अंग्रेजों को हटा दिया गया था। इस विद्रोह के बाद रानी लक्ष्मीबाई जो झांसी की महारानी थीं, उन्होंने अपने राज्य को बचाने के लिए और अंग्रेजी हुकूमत को समाप्त कर देने के लिए अंग्रेजों से लोहा लेते रहीं। डटकर अंग्रेजों का सामना करती रहीं।

इसके बाद 1858 में एक अंग्रेजी अधिकारी सर ह्युरोज को रानी लक्ष्मीबाई को जिंदा गिरफ्तार करने के मकसद से झांसी भेजा गया था। ह्युरोज ने रानी लक्ष्मीबाई को आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। लेकिन उन्होंने आत्मसमर्पण को ठुकरा दिया और झांसी को अंग्रेजी हुकूमत से बचाने में लिए तुरंत जंग का एलान कर दिया।

यह युद्ध महारानी लक्षमीबाई के जीवन का अंतिम युद्ध था। (Wikimedia Commons)

3 दिन तक चले युद्ध के बावजूद अंग्रेजी सेना किले के अंदर दाखिल नहीं हो पाई थी। जिसके बाद ह्युरोज ने पीछे से वार करने का निर्णय लिया और छल पूर्वक महल में दाखिल हो गया। जिसके बाद अपनी जान बचाने के लिए लक्ष्मीबाई को वहां से भागना पड़ा। लक्ष्मीबाई कालपी पहुंची और कालपी के पेशवा ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश ह्युरोज ने कालपी पर भी अपना अधिकार स्थापित कर लिया। हालांकि रानी लक्ष्मीबाई ने फिर भी अंग्रजों के आत्मसमर्पण का आदेश स्वीकार नहीं किया और साहसपूर्वक अंग्रेजों के हर एक वार का मुंहतोड़ जवाब दिया।

अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे इस विद्रोह के दौरान रानी लक्ष्मीबाई घायल हो गई थीं। युद्ध के दौरान उनकी वेशभूषा कुछ पुरुषों के समान थी इसलिए उन्हें कोई पहचान नहीं पाया। जब वह घायल हुईं तो उनके विश्वशनीय पात्र उन्हें एक वैध के पास ले गए। रानी लक्ष्मीबाई की अंतिम इच्छा यही थी कि कोई भी अंग्रज उनके शव को छू ना पाए। यह युद्ध महारानी लक्षमीबाई के जीवन का अंतिम युद्ध था।

रानी लक्ष्मीबाई के मृत्यु को लेकर कई किवदंतियां भी प्रचलित हैं। कई इतिहासकारों ने इस पर अलग – अलग मत भी प्रकट किए हैं। जैसे:

"डलहौजी एडमिनिस्ट्रेशन आफ ब्रिटिश इंडिया" में यह उल्लेख मिलता है कि जब महारानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों का घेरा तोड़कर भाग गई थीं। तब एक अंग्रेज़ घुड़सवार सैनिक ने उनका पीछा किया था। उस सैनिक ने रानी के गले में पड़ी मोतियों की सुंदर माला देखी, जिसके बाद वह लालच में पड़ गया और उनसे महारानी की हत्या कर दी।

"मैकफर्सन" ने लिखा है कि "उनकी मृत्य, घायल होने और घोड़े से गिरने से हुई थी" उन्होनें आगे कहा है कि "झांसी की रानी अपने महल में शरबत पी रही थीं। उस समय जब उन्हें सूचना मिली की अंग्रेज़ हमला करने वाले हैं तो वह वहां से भागने लगीं लेकिन महारानी का घोड़ा एक नाला पार नहीं कर पाया था। सैनिकों ने रानी पर हमला किया था, जिस वजह से उन्हें गोली लगी और तलवार का घाव भी लगा और अंत में घोड़े से गिरकर उनकी मृत्यु हो गई थी।

महान आत्माओं के जीवन के विषय में कई प्रकार की किवदंतियां प्रचलित हो जाती हैं। इसी प्रकार महारानी लक्ष्मीबाई की मृत्यु भी किवदंतियों का विषय बन गई है।

बहरहाल केवल 23 वर्ष की अवस्था में भारत के पुरूष प्रधान समाज में प्रबल पराक्रमी और अंग्रेजों के विरुद्ध उनका यह संघर्ष निश्चित रूप से एक क्रान्तिकारी कार्य था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, एक श्रेष्ठ वीरांगना को यह देश कोटी – कोटी नमन करता है।

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