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यह धुआं हमारे चैन और जीवन दोनों को कम कर रहा है।

NewsGram Desk

यह महीना रबी फसलों की बुआई का है और सभी किसान हर वर्ष अपनी अच्छी फसल की कामना करते हैं, किन्तु नई की आस में वह कुछ अनिष्ट कर जाते हैं। जिसका खामियाज़ा हर किसी को चुकाना पड़ता है और वह काम है पराली जलाने का। जिसे हम दिल्ली, हरयाणा के लिए अभिशाप की तरह समझते हैं, जिससे कई प्रकार की बीमारियां जन्म लेती है। और हर वर्ष सरकार कायदे-कानून बनाती तो है लेकिन ज़मीनी-स्तर तक आते-आते वह कहीं ओझल हो जाती है।

हर वर्ष सरकारें इसके लिए कई योजना बनाती है, न जाने कितने मुहीम चलाए जाते हैं लेकिन हर बार इस समस्या का निधान नहीं मिलता और वह सभी योजनाएं और मुहीम धरी की धरी रह जाती हैं। परली क्या है? और इसे जलाने के दुष्प्रभाव क्या हैं? आज उस पर चिंतन करेंगे और यह भी समझने की कोशिश करेंगे कि कानून क्या कहता है?

पराली क्यों जलाई जाती है?

हर वर्ष दो बार पराली की सफाई या उसे जलाया जाता है। मध्य सितम्बर में जब धान की फसल की कटाई की जाती है उसके ठीक बाद ही गेंहूं की फसल की बुआई होती है जिस कारण पराली को जलाया जाता है। यदि पराली को यूँ ही छोड़ दिया जाए तब वह धान के फसल के लिए खतरनाक साबित हो सकता है और बुआई में भी मुश्किल खड़ी कर सकता है। जिस कारण किसान जल्दी के लालच में पराली में आग लगा देते हैं और यही जल्दबाज़ी प्रदुषण का मुख्य कारण बनती है।

पराली जलाने के चलन ने 1998-99 में ज़ोर पकड़ा था क्योंकि इसी वर्ष कृषि वैज्ञानिकों ने एक जागरूकता अभियान शुरू किया था जिसमे किसानों को बताया गया कि फसल कटाई के बाद वह जल्द से जल्द अपने खेत की सफाई कर दें। इससे पैदावार भी बढ़ेगा और फसलों को बीमार करने वाले कीड़े भी नहीं जन्मेंगे। इस जागरूकता अभियान को सकारात्मक सोच के साथ शुरू किया गया लेकिन इसका परिणाम हमारे आज, कल और भविष्य के लिए खतरनाक साबित होता दिख रहा है।

किसानों में एक भ्रम यह भी है कि पराली जलाने से अच्छी फसल होती है। सच यह है कि जलाने से केवल प्रदुषण फैलता है।

किसानों की मानें तो पराली जलाना उनकी मजबूरी है। (Wikimedia Commons)

इस से पर्यावरण पर क्या प्रभाव पड़ता है?

पराली को जलाना ज्यादातर पंजाब और हरियाणा राज्य में किया जाता है लेकिन इसका प्रभाव दिल्ली और उसके आस-पास के शहरों को झेलना पड़ता है। सर्दियों में वैसे भी दिल्ली का प्रदुषण स्तर चिंताजनक स्थिति में रहती है किन्तु हवा के साथ आए इस जहरीले धुंए से और चिंता बढ़ जाती है। पराली के राख और धुंए से साँस लेने में दिक्कत आती है, आँखों में जलन पैदा होती है। जो लोग पहले से किसी अन्य बीमारी से ग्रसित हैं उनके लिए यह और खतरनाक स्थिति पैदा कर देती है।

हालाँकि, मास्क लगाने का चलन कोरोना की वजह से अब जाकर शुरू हुआ है, लेकिन दिल्ली और दिल्ली एनसीआर में यह चलन हर साल की बात है क्योंकि इस हवा में साँस लेना दूभर हो जाता है। पराली जलाने से कार्बन डाइआक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड जैसे जहरीले कण हवा में घुल कर भयावह स्थिति को उत्पन्न कर देते हैं।

कानून क्या कहता है?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पराली जलाने वालों पर किसी तरह की कोताही न बरती जाए। उन पर हर राज्य जुर्माना लगाए और हर राज्य ने पराली जलाने पर जुर्माने का प्रावधान निर्धारित भी कर रखा है। सरकार भी सभी किसानों से पराली खरीदने का काम कर रही है जिससे वह खाद इत्यादि बना सकें और इस तरह पर्यावरण भी सुरक्षित रहे।

भारत सरकार ने 1981 में वायु प्रदूषण एवं नियंत्रण अधिनियम बनाया, इससे पहले 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा स्टॉकहोम में पर्यावरण सम्मेलन किया गया था, जिसमें भारत ने भाग लिया था। इसका मुख्य उद्देश्य था प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए समुचित कदम उठाना और वायु की गुणवत्ता में सुधार और वायु प्रदूषण नियंत्रण करना। इस अधिनियम द्वारा मोटर गाड़ियों और अन्य कारखानों से निकलने वाले धुएं को नियंत्रित किया जाता है। 1987 में इस अधिनियम में ध्वनि प्रदूषण को भी जोड़ दिया गया। पर्यावरण के लिए अनुच्छेद 48(क) का प्रावधान है, जिसमें पर्यावरण के संरक्षण, उसमें सुधार और वन्यजीवों की रक्षा करने के लिए राज्यों को निर्देश हैं। दूसरा, अनुच्छेद 51(घ) हमें पर्यावरण की तरफ हमारे कर्तव्यों को ज्ञात कराता है।

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