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कौन थे “भुले भटके शिविर” वाले बाबा?

NewsGram Desk

मैथलीशरण गुप्त की एक कविता आप सभी को याद होगी कि "नर हो, न निराश करो मन को, कुछ काम करो, कुछ काम करो, जग में रह कर कुछ नाम करो।"

इस संसार में नाम से बड़ा काम होता है। इंसान के काम से ही उसकी पहचान होती है। आज हम ऐसे ही एक व्यक्ति के बारे में बात करेंगे जिनका काम ही उनका नाम बन गया। 

"भूले भटके" नाम से मशहूर राजाराम तिवारी जिन्होंने अपने काम से लाखों लोगों के जीवन को बर्बाद होने से बचाया। कौन हैं राजाराम तिवारी? आखिर कैसे लोगों ने इनके असली नाम को भुलाकर इन्हें भूले भटके तिवारी, भूल भटके बाबा आदि जैसे नाम दे दिए। 

हम सभी जानते हैं कि कुंभ मेले आदि जैसे भव्य समारोह में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं। ऐसे में कई बार लोग अपने परिजनों से बिछड़ जाते हैं, छोटे बच्चे अपने माता – पिता से बिछड़ जाते हैं। ऐसे में राजाराम तिवारी (Rajaram Tiwari) द्वारा शुरू किया गया "भुले भटके शिविर" ने कई बिछड़े लोगों को उनके परिवार जनों से मिलाने का काम किया है। संगम किनारे बांध के नीचे बना यह "भुले भटके शिविर" पर लोगों को इतना विश्वास है कि अगर वह अपने प्रियजनों से बिछड़ भी जाए तो वहां उस शिविर में अवश्य मिल जाएंगे। 

कुंभ मेले आदि जैसे भव्य समारोह में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होते हैं। ऐसे में कई बार लोग अपने परिजनों से बिछड़ जाते हैं, छोटे बच्चे अपने माता – पिता से बिछड़ जाते हैं। (Wikimedia Commons)

शिविर की शुरुआत कैसे हुई? 

हुआ कुछ यूं कि एक बार राजाराम अपने दोस्तों के साथ माघ स्नान के लिए इलाहाबाद (Allahabad) आए हुए थे। प्रत्येक वर्ष की भांति करोड़ों लोगों की भीड़ से इलाहाबाद जगमगा उठा था। लेकिन उसी भीड़ में एक बुजुर्ग महिला अपने परिवार से बिछड़ गई थी। जब राजाराम तिवारी ने उस महिला को देखा तो उनसे उस महिला की हालात देखी नहीं गई और उन्होंने फैसला किया कि बुजुर्ग महिला को उनके परिवार वालों से मिला कर के ही दम लेंगे। 

राजाराम तिवारी ने अपनी सूझबूझ से एक 'टीन' का भोंपू बनाया और चिल्ला – चिल्ला कर बुजुर्ग महिला का नाम लेने लगे ताकि उनके परिवार वालों तक उनका संदेश पहुंच सके। आपको बता दें कि यही वह क्षण था जब राजाराम तिवारी की जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया था। राजाराम ने उस बुजुर्ग महिला को उनके परिवार जनों से तो मिला दिया था, लेकिन इस घटना के बाद राजाराम ने गहन विचार किया और अपने दोस्तों से कहा कि मेले में ऐसे कई लोग होंगे जो अपने परिवार, अपने माता – पिता से बिछड़ गए होंगे। क्यों न उन्हीं लोगों के लिए कुछ किया जाए? 

जिसके बाद यहीं से उन्होंने अपने भारत सेवा दल संस्था की नींव रखी और आज इस शिविर को "भुले भटके शिविर" या "खोया पाया शिविर" के नाम से जाना जाता है|

इस संस्था की वेबसाइट के मुताबिक जब से यह संस्था शुरू हुई यानी 1946 से लेकर अब तक यह करीब 25 लाख से भी ज्यादा बिछड़े लोगों को उनके परिजनों से मिला चुका है। राजाराम ने अपने जीवन के 71 साल, भटके लोगों को उनके परिजनों से मिलाने में गुजार दिए। यही कारण है कि लोग इनका वास्तविक नाम भूलकर इन्हें भुले भटके बाबा के नाम से जानने लगे। 

राजाराम तिवारी उर्फ भुले भटके बाबा। जो आज मर कर भी अमर हो गए हैं। कई लोगों के दिलों में जिंदा हैं। (सांकेतिक चित्र, Pixabay)

राजाराम तिवारी को उनके इस सराहनीय कार्य के लिए पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। साथ ही अब उनके जीवन पर एक फिल्म का भी निर्माण होने वाला है। दंगल फिल्म के निर्माता सिद्धार्थ रॉय कपूर ने राजाराम तिवारी के जीवन पर फिल्म बनाने की घोषणा कर चुके हैं। 

आपको बता दें कि अपने जीवन को दूसरों के नाम करने वाले राजाराम तिवारी का 88 वर्षीय अवस्था में 2016 में ही निधन हो गया था। भले ही राजाराम तिवारी आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके द्वारा शुरू किया गया यह कार्य, यह मिशन आज भी बरकरार है। अब यह शिविर उनके छोटे पुत्र व शिक्षक उमेश तिवारी द्वारा संचालित किया जा रहा है। 

हमारे देश में बड़ी हस्तियों और उनके द्वारा किए गए कार्यों को तो सब जानते हैं। लेकिन एक छोटी सी जगह से निकलकर और अपनी बड़ी सोच से दूसरों के लिए कुछ कर गुजरने वाले बहुत कम लोग होते हैं। उन्हीं में एक थे राजाराम तिवारी उर्फ भुले भटके बाबा। जो आज मर कर भी अमर हो गए हैं। कई लोगों के दिलों में जिंदा हैं। 

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