अगले वर्ष भारत एक बार फिर सबसे बड़े राजनीतिक धमाचौकड़ी का साक्षी बनने जा रहा है। जिसकी तैयारी में अभी से राजनीतिक दल अपना खून पसीना एक कर रहे हैं। यह चुनावी बिगुल फूंका गया है राजनीति का गढ़ कहे जाने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में, जहाँ जातीय समीकरण, विकास और धर्म पर खूब हो-हल्ला मचा हुआ है। उत्तर प्रदेश चुनाव में जहाँ एक तरफ भाजपा हिन्दुओं को अपने पाले करने में जुटी वहीं विपक्ष ब्राह्मणों को अपनी तरफ करने के प्रयास में एड़ी-चोटी का जोर लगा रहे हैं। आने वाला उत्तर प्रदेश चुनाव क्या मोड़ लेगा इसका उत्तर तो समय बताएगा, किन्तु ब्राह्मणों को अपने पाले में खींचने की प्रक्रिया शुरू हो गई है।
आपको बता दें कि वर्ष 2017 में हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में सभी पार्टियों ने खूब खून-पसीना बहाया था, किन्तु सफलता का परचम भारतीय जनता पार्टी ने 312 सीटों को जीत कर लहराया था। वहीं अन्य पार्टियाँ 50 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। भाजपा की इस जादुई जीत का श्रेय प्रधानमंत्री मोदी के धुआँधार रैली और मुख्यमंत्री चेहरे को जाहिर न करने को गया। किन्तु उत्तर-प्रदेश 2022 का आगामी चुनाव सत्ता पक्ष के चुनौतियों से भरा हो सकता है। वह इसलिए क्योंकि सभी राजनीतिक पार्टी अब धर्म एवं जाति की राजनीति के अखाड़े में कूद गए हैं। इसमें सबसे आगे हैं यूपी में राजनीतिक बसेरा ढूंढ रहे एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन औवेसी! जो खुलकर रैलियों में और टीवी पर यह कहते हुए सुनाई दे जाते हैं कि वह प्रदेश के मुसलमानों को अपनी ओर खींचने के लिए उत्तर प्रदेश आए हैं।
आने वाले चुनाव उत्तर प्रदेश की जनता का रुख कोई एग्जिट पोल नहीं बता सकती है। वह इसलिए क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में एग्जिट पोल के आँकड़े धरे के धरे रह गए। वहीं इस साल माना यह भी जा रहा है कि भाजपा के लिए पुरानी हवा बना पाना थोड़ा कठिन होगा। वह इसलिए क्योंकि कोरोना महामारी से देश अभी पूरी तरह उभरा नहीं है और अन्य शहरों से पलायन करने वाले मजदूरों में अधिकांश उत्तर-प्रदेश या बिहार के निवासी थे। माना यह जा रहा है कि इसका असर वोटबैंक पर निश्चित है। यदि जनता को सरकार द्वारा किए गए इंतजाम पसंद आते हैं तब यह बात योगी सरकार के लिए फायदे की बात होगी, अन्यथा पेंच फसना तय है। जहाँ एक तरफ भाजपा के लिए कोरोना चुनौती बनकर उभरी है तो दूसरी तरफ अयोध्या श्री राम मंदिर का निर्माण योगी सरकार के लिए पलड़ा भारी करने वाला साबित होगा और यह बात अन्य राजनीतिक दल भली-भाँति जानते हैं। इसलिए जो पहले राम मंदिर पर सवाल उठाते थे, आज राम गुण गा रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के चुनावी रण में पिछले 3 साल से भाजपा का दबदबा है।(Wikimedia Commons)
वहीं चुनाव निकट आते ही मंदिर-मंदिर फिरने का सिलसिला विपक्षियों द्वारा तेज हो गया है, और इसके पीछे कारण है ब्राह्मण वोटबैंक को अपने पाले में लाने की कोशिश। वह इसलिए क्योंकि उत्तर-प्रदेश चुनाव में 'ब्राह्मण वोटबैंक खिसकाना मतलब जीत सुनिश्चित करना' माना जाता है। आपको बता दें की उत्तर-प्रदेश में ब्राह्मणों की जनसंख्या कुल आबादी का दस प्रतिशत है, जिसका मतलब है कि यूपी में जाटव के बाद दूसरी बड़ी जाति है ब्राह्मण है। एक समय था जब ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस के विश्वसनीय वोटरों में से एक कहे जाते थे। किन्तु श्री राम जन्मभूमि विवाद के बाद कांग्रेस को ब्राह्मणों का गुस्सा झेलना पड़ा। और ब्राह्मण समाज भाजपा के पक्ष में खड़ा हो गया।
यह भी पढ़ें: क्या बढ़ती जनसंख्या चिंता का विषय है?
किन्तु ब्राह्मणों का भाजपा के लिए यह प्रेम ज्यादा दिन नहीं टिक पाया और वर्ष 2004 में 40 प्रतिशत से भी कम ब्राह्मण वोटरों ने ही भाजपा को सहयोग दिया जिसका खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ा और मायावती की पार्टी सत्ता में आई। जहाँ एक तरफ ब्राह्मणों के लिए कांग्रेस प्रेम लगभग खत्म हो गया वहीं भाजपा के लिए भी यह प्रेम 2014 तक मिला-जुला रहा। किन्तु वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव, भाजपा के लिए नई लहर लेकर आया, वह इसलिए क्योंकि 72% ब्राह्मणों का वोट भाजपा को गया था। इसके बाद वर्ष 2017 में विधान-सभा चुनाव में 80% प्रतिशत ब्राह्मणों का वोट भाजपा को गया। लगातार 2 बार ब्राह्मण वोटरों में वृद्धि के बाद वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में भी 82% ब्राह्मण वोट भाजपा के खाते में गए।
अब आप समझ चुके होंगे कि उत्तर-प्रदेश चुनाव में ब्राह्मण वोट का क्या महत्व है, और क्यों सभी पार्टियां इफ्तार और टोपी छोड़ मंदिर में शीश झुका रहे हैं।