1947 में जब भारत आज़ाद हुआ, तब उसकी अर्थव्यवस्था (Economy) बेहद कमज़ोर और पिछड़ी हुई थी। सदियों की कॉलोनियल (Colonial) लूट ने उद्योगों (Business) को ठप कर दिया था, कृषि (Agriculture) संघर्ष कर रही थी और करोड़ों लोग गरीबी में जी रहे थे। देश की प्रति व्यक्ति आय दुनिया में सबसे कम में से एक थी, शिक्षा दर सिर्फ़ 18% और औसत आयु मात्र 32 वर्ष थी।
लेकिन आने वाले सात दशकों में भारत ने ख़ुद को दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में बदल दिया — यह कहानी है संघर्ष, सुधार और आत्मनिर्माण की।
1947–1965: योजना, आत्मनिर्भरता और मिश्रित अर्थव्यवस्था
जब दुनिया पूँजीवाद (Capitalism) और समाजवाद (Socialism) के दो गुटों में बंटी हुई थी, भारत ने एक मिश्रित आर्थिक व्यवस्था (Mixed Economic System) अपनाई: जिसमें कुछ क्षेत्रों में सरकार का नियंत्रण और कुछ में निजी क्षेत्र (Private) की भागीदारी थी।
पाँच वर्षीय योजनाओं के ज़रिए बुनियादी ढाँचे, भारी उद्योग और कृषि पर ध्यान दिया गया। 1960 के दशक की हरित क्रांति (Green Revolution) ने उच्च उत्पादकता वाले बीज और आधुनिक खेती के तरीकों से खाद्य आयात पर निर्भरता घटाई।
हालाँकि, “लाइसेंस राज” यानी अनुमति और नियमों का जाल निजी पहल को रोकता रहा।
1965–1991: धीमी वृद्धि और नियंत्रण की सीमाएँ
भारत ने खाद्य सुरक्षा हासिल की, लेकिन विकास दर औसतन 3–4% ही रही, जिसे “हिंदू ग्रोथ रेट” कहा गया।
उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण और विदेशी निवेश पर रोक ने नय विचारों को सीमित कर दिया। 1980 के दशक के अंत तक बढ़ते घाटे और विदेशी मुद्रा संकट ने देश को आर्थिक संकट की कगार पर पहुँचा दिया।
1991: उदारीकरण का मोड़
1991 में आर्थिक आपातकाल के समय, तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने साहसिक सुधार किए। आयात शुल्क घटाए गए, रुपया अवमूल्यित किया गया और निजी उद्योग व विदेशी निवेश पर लगी कई पाबंदियाँ हटा दी गईं।
इन सुधारों ने तेज़ विकास, व्यापार करने और दुनिया से कारोबार जोड़ने का रास्ता खोला। आईटी, दूरसंचार और मैन्युफैक्चरिंग जैसे क्षेत्र तेज़ी से बढ़ने लगे।
2000–2014: वैश्विक मंच पर उभरता भारत
2000 के दशक तक भारत आईटी सेवाओं और आउटसोर्सिंग का हब बन गया। इंफोसिस, टीसीएस और विप्रो जैसी कंपनियाँ अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाने लगीं। मध्यम वर्ग बढ़ा, उपभोग बढ़ा और जीडीपी की वृद्धि दर कई बार 7–8% से ऊपर रही।
हाईवे, हवाई अड्डे और मेट्रो जैसी परियोजनाओं ने शहरों को जोड़ा और व्यापार को तेज़ किया। लेकिन बेरोज़गारी, ग्रामीण समस्याएँ और असमानता जैसी चुनौतियाँ बनी रहीं।
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2014–2025: सुधार, डिजिटल छलांग और वैश्विक पहचान
हाल के वर्षों में जीएसटी, शोधन अक्षमता कानून, ‘मेक इन इंडिया’ और ‘डिजिटल इंडिया’ जैसी योजनाओं ने सुधार की गति तेज़ की।
UPI (यूनिफ़ाइड पेमेंट्स इंटरफ़ेस) ने डिजिटल लेन-देन में भारत को दुनिया में नंबर वन बना दिया । आज हालत यह है कि देश के हर छोटे ठेलेवाले, सब्ज़ीवाले या मोहल्ले की किराना दुकान तक के पास अपना QR कोड है, जिससे ग्राहक सीधे मोबाइल से भुगतान कर सकते हैं ,यह डिजिटल क्रांति का सबसे बड़ा प्रमाण है।
COVID-19 की मार के बावजूद, भारत ने तेज़ी से वापसी की और 2025 में जापान को पछाड़कर दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया।
लंबा सफ़र अभी बाकी है
फिर भी, यह पूरी कहानी नहीं है। भारत का प्रति व्यक्ति GDP अभी भी कई छोटे देशों से कम है और अमीर-ग़रीब के बीच की खाई एक गंभीर समस्या बनी हुई है। अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं की पहुँच अब भी सभी राज्यों में समान नहीं है।
हमने लंबा सफ़र तय किया है, लेकिन समान और टिकाऊ समृद्धि की मंज़िल अभी दूर है।
1947 से 2025: भारत की आर्थिक तस्वीर
GDP: 1947 में लगभग ₹2.7 लाख करोड़ (33 बिलियन USD) → 2024 में लगभग ₹30.5 लाख करोड़ (3.73 ट्रिलियन USD)
दुनिया में रैंक: 1947 में टॉप 15 में भी नहीं → 2024 में 4वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था
प्रति व्यक्ति आय: 1947 में केवल ₹265 सालाना → आज लगभग ₹1.95 लाख सालाना
साक्षरता दर: 18% → 78%+
औसत आयु: 32 साल → 70+ साल
कृषि स्थिति: 1947 में खाद्य आयात पर निर्भर → आज आत्मनिर्भर और निर्यातक
निष्कर्ष: आज़ादी और ज़िम्मेदारी
आर्थिक विकास केवल आंकड़ों की बात नहीं है; यह गरिमा, अवसर और आत्मनिर्भरता की कहानी है। राशन कार्ड से लेकर वैश्विक आर्थिक ताक़त बनने तक भारत की यात्रा और मेहनत का प्रतीक है। लेकिन आज़ादी के साथ ज़िम्मेदारी भी आती है।
इस 15 अगस्त, जब तिरंगा लहराए, हमें याद रखना चाहिए कि सच्ची आज़ादी तभी है जब हर नागरिक को न सिर्फ़ राजनीतिक अधिकार मिले, बल्कि आर्थिक रूप से भी सपने देखने और उन्हें पूरा करने की स्वतंत्रता हो। [Rh/BA]