त्रिलोचन शास्त्री की लेखनी में प्रकृति, प्रेम और सामाजिक यथार्थ की झलक| IANS
इतिहास

स्मृति शेष : प्रकृति, प्रेम और सामाजिक यथार्थ को छूने वाले शास्त्री, बनारस ने गढ़ी लेखनी

हिंदी साहित्य के प्रगतिशील युग के सबसे मौलिक और जनधर्मी कवियों में त्रिलोचन शास्त्री (मूल नाम वासुदेव सिंह) का नाम स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है।

Author : IANS

त्रिलोचन का जन्म फैजाबाद (अब अयोध्या) जिले के चांदा गांव में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बचपन से ही संस्कृत, फारसी और उर्दू का गहरा अध्ययन किया। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (Banaras Hindu University) से शास्त्री की उपाधि ली, यहीं से उनका नाम 'त्रिलोचन शास्त्री' पड़ा। प्रगतिशील लेखक संघ के सक्रिय सदस्य रहे और नागार्जुन, मुक्तिबोध, शमशेर और रघुपति सहाय 'फिराक' जैसे दिग्गजों के घनिष्ठ मित्र थे। आज जब हिंदी कविता बाजारी चमक-दमक और खोखले नारों की शिकार हो रही है, त्रिलोचन की कविताएं याद दिलाती हैं कि सच्ची प्रगतिशीलता नारे में नहीं, जीवन की गहराई में बसती है।

उनकी कविता की सबसे बड़ी विशेषता जीवन का यथार्थ और भाषा की सहजता थी। वे कभी नारा नहीं लगाते थे, बल्कि गांव की मिट्टी, खेत-खलिहान, मेहनतकश किसान और मजदूर की जिंदगी को इतनी जीवंतता से उकेरते थे कि पाठक खुद को उसी परिवेश में खड़ा पाता था। उनकी कई प्रसिद्ध पंक्तियां आज भी गूंजती हैं।

त्रिलोचन ने गजल, गीत, मुक्तक, हाइकु, दोहा, सवैया, छंदबद्ध कविता—हर विधा में लिखा। उनकी दस से अधिक काव्य कृतियां हैं, जिनमें ‘चंद्रगहना’, ‘उल्लूक’, ‘दिग्पाल’, ‘शब्द’, ‘ताप के ताये हुए दिन’, ‘पितृवंदना’, ‘सफेद कबूतर’, ‘अमृत के द्वीप’ आदि शामिल हैं। 'चंद्रगहना से लौटती बेर' (1950) उनकी पहली कृति थी, जिसने हिंदी आलोचना में तहलका मचा दिया था।

वे सॉनेट के हिंदी में सबसे बड़े हस्ताक्षर माने जाते हैं। उनकी 133 सॉनेटों की श्रृंखला 'तुम्हें सौंपता हूं' हिंदी में इस विधा का शिखर मानी जाती है। उनके पास प्रकृति और प्रेम के साथ-साथ सामाजिक यथार्थ को सॉनेट में ढालने का अनूठा कौशल था।

अगर त्रिलोचन को मिले सम्मानों की बात करें तो उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (Sahitya Akademi Award) (1982, ‘ताप के ताये हुए दिन’ पर), भारत भारती पुरस्कार, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार समेत अनेक सम्मान मिले, पर वे हमेशा सादगी के पुजारी रहे। अंतिम दिनों में हैदराबाद में बेटे के पास रहते थे और वहीं 9 दिसंबर 2007 को 90 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली।

त्रिलोचन चले गए, पर उनकी कविताएं आज भी खेतों में हल चलाते किसान के साथ, कारखाने में पसीना बहाते मजदूर के साथ, और हर उस इंसान के साथ जीवित हैं जो इस धरती से सच्चा प्रेम करता है।

[AK]

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