भारत के 'ग्रैंड ओल्ड लेडी' अरुणा आसफ अली की कहानी
भारत के 'ग्रैंड ओल्ड लेडी' अरुणा आसफ अली की कहानी  रुणा आसफ अली (Wikimedia Commons)
इतिहास

पढ़िए भारत के 'ग्रैंड ओल्ड लेडी' अरुणा आसफ अली की कहानी

Prashant Singh

Aruna Asaf Ali Birth Anniversary: 8 अगस्त, 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के बंबई सत्र के दौरान एक तरफ अंग्रेजों को देश से खदेड़ने की तैयारी की गई, वहीं दूसरी तरफ अंग्रेजी हुकूमत ने अपने खिलाफ जाने वाले बड़े-बड़े राजनैतिक व्यक्तित्वों को जेल में डालना शुरू कर दिया, जिससे कि यह आंदोलन कमजोर पड़ जाए। कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता जेल में डाल दिए गए। उस वक्त एक प्रखर बुद्धि वाली, स्वतंत्रता सेनानी बंबई के ग्वालिया टैंक में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ध्वज फहराती हुई सबके बीच आई और भारत छोड़ो आंदोलन का बिगुल फूँक दिया। वह नायिका थीं अरुणा आसफ अली (Aruna Asaf Ali)। उनके इस अद्भुत निडरता के साथ मुंबई के गोवालीया मैदान मे कांग्रेस का झंडा फहराने के लिये हमेशा याद किया जाता है। यही कारण है कि इतिहास उन्हें ग्रैंड ओल्ड लेडी (Old Grand Lady) कहकर याद करता है।

अरुणा जी का जन्म 16 जुलाई, 1909 को तत्कालीन ब्रिटिश पंजाब के 'कालका' नामक स्थान में एक बंगाली ब्राह्मण कुल में हुआ था। इनका नाम शुरुआत में 'अरुणा गांगुली' था। बाद में जब परिवार के विरुद्ध जाकर, उन्होंने खुद से 23 वर्ष बड़े और गैर ब्राह्मण आसफ अली से प्रेम विवाह कर लिए तब इनका नाम 'अरुणा आसफ अली' हो गया। आसफ अली इलाहाबाद में कांग्रेस पार्टी के नेता थे।

अरुणा की प्रारम्भिक शिक्षा नैनीताल में सम्पन्न हुई, जहां इनके पिता का होटल था। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि की धनी अरुणा पढ़ाई लिखाई में मेधावी छात्रा थीं। पूरे विद्यालय में उनके बुद्धिमता और चतुरता की धाक जमी हुई थी। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद ये शिक्षिका बन गईं और कोलकाता के 'गोखले मेमोरियल कॉलेज' में पढ़ाने लगीं।

भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की अग्रणी पंक्ति में आने वाली अरुणा आसफ़ अली ने भारत के स्वतंत्रता के बाद राजनीति के गलियारे में कदम रखा और 1958 में दिल्ली की पहली मेयर बनीं। 1997 में उन्हें उनके अतुलनीय योगदान को देखते हुए भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

अरुणा जी अपने विवाह के बाद ही से स्वाधीनता संग्राम से जुड़ गईं। वो महात्मा गांधी और मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद की सभाओं में भाग लेने लगीं। नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके लिए उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया। उन्होंने क्रमशः 1930, 1932 और 1941 में जेल की सजा भोगी।

वो लोकनायक जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अच्युत पटवर्द्धन के साथ कांग्रेस 'सोशलिस्ट पार्टी' में सम्मिलित हो गईं।

जब 1932 में उन्हें बंदी बना कर तिहाड़ जेल डाला गया, तब वो राजनैतिक कैदियों के साथ हो रहे बुरे बर्ताव के विरोध में भूख हड़ताल पर चली गईं। उनके विरोध के कारण हालात तो सुधरे पर फिर से वो अम्बाला के एकांत कारावास में चली गयीं। रिहा होने के बाद वो करीबन 10 वर्ष तक राष्ट्रीय आंदोलन से अलग रहीं और 1942 में अपने पति के साथ एक बार फिर उन्होंने बॉम्बे के कांग्रेस अधिवेशन में भाग लिया। ये वही अधिवेशन था जिसमें 8 अगस्त को ऐतिहासिक ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ प्रस्ताव पारित किया गया था। इसके बाद अंग्रेजों ने कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। ऐसे में अरुणा जी ने बॉम्बे के गौलिया टैंक मैदान में ध्वजारोहण कर आंदोलन की अध्यक्षता की। यहाँ से वो एक बार पुनः भारत छोड़ो आंदोलन के माध्यम से सक्रिय हो गईं और गिरफ़्तारी से बचने के लिए भूमिगत हो गईं। उनको पकड़ने के लिए 5000 रुपये का इनाम भी रखा गया और उनकी संपत्ति अंग्रेजों द्वारा जब्त कर ली गई। फिर भी उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया। 1942 से 1946 तक देश भर में वो बराबर सक्रिय रहीं पर पुलिस की पकड़ में नहीं आईं। 1946 में जब उनके नाम का वारंट रद्द किया गया, तब वो सबके सामने आईं।

उनके जीवन के कई अनकहे और दिलचस्प किस्से हैं, जो आज के युवाओं को प्रेरणा देता है। इस महान ग्रैंड ओल्ड लेडी का 87 वर्ष की आयु में दिनांक 29 जुलाई, सन् 1996 को निधन हो गया।

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