आज़ादी की लड़ाई में कुछ ऐसी महिलाएं भी थीं, जिनकी बहादुरी, त्याग और संघर्ष किसी से कम नहीं था। [Sora Ai] 
इतिहास

वो 10 वीरांगनाएं जिनके बिना अधूरी है भारत की आज़ादी की कहानी

न महिलाओं ने घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर, समाज की बंदिशों को तोड़कर, अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। किसी ने जंगलों में क्रांतिकारियों को खाना और हथियार पहुंचाए, तो किसी ने ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर दिया। कुछ जेल गईं, कुछ ने जान की बाज़ी लगा दी, लेकिन हार नहीं मानी।

न्यूज़ग्राम डेस्क

जब भी हम भारत की आज़ादी की कहानी पढ़ते हैं, तो ज़्यादातर नाम पुरुष स्वतंत्रता सेनानियों के सामने आते हैं, जैसे महात्मा गांधी(Mahatma Gandhi), भगत सिंह(Bhagat Singh), सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सिर्फ़ इनके द्वारा ही हमें आज़ादी मिली। कई ऐसे लोग हैं जिनके बारे में हमें या तो कम जानकारी है या जिन्हें हमारे इतिहास ने आज़ादी की लड़ाई में योगदान देने वाले लोगों की लिस्ट से ही गायब कर दिया। आपको बता दें कि आज़ादी की लड़ाई में कुछ ऐसी महिलाएं भी थीं, जिनकी बहादुरी, त्याग और संघर्ष किसी से कम नहीं था।

फर्क बस इतना है कि उनके नाम इतिहास के पन्नों में उतने बड़े अक्षरों में नहीं लिखे गए, जितने के वे हकदार थीं। इन महिलाओं ने घर की चारदीवारी से बाहर निकलकर, समाज की बंदिशों को तोड़कर, अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ बुलंद की। किसी ने जंगलों में क्रांतिकारियों को खाना और हथियार पहुंचाए, तो किसी ने ब्रिटिश हुकूमत की नाक में दम कर दिया। कुछ जेल गईं, कुछ ने जान की बाज़ी लगा दी, लेकिन हार नहीं मानी। आज हम आपको उन 10 अनसुनी नायिकाओं (10 Unsung Female Warriors) के बारे में बताएंगे जिन्होंने भारत की आज़ादी का सपना सच करने में अपनी पूरी ज़िंदगी झोंक दी। उनका नाम शायद इतिहास की किताबों में कम दिखता हो, लेकिन देश की मिट्टी में उनका बलिदान हमेशा महकता रहेगा।

झाँसी की शेरनी: ‘रानी लक्ष्मीबाई’

रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में वीरता और अदम्य साहस का प्रतीक है। [Wikimedia Commons]

रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में वीरता और अदम्य साहस का प्रतीक है। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ तलवार उठाई थी। कम उम्र में विधवा होने के बावजूद उन्होंने अपने गोद लिए बेटे को राजगद्दी का हक दिलाने के लिए अंग्रेज़ों से जंग लड़ी। घुड़सवारी, तलवारबाज़ी और युद्ध कौशल में निपुण लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर और झाँसी (Jhansi Ki Rani) के किलों में अंग्रेज़ों को कड़ी टक्कर दी। कहते हैं, आखिरी लड़ाई में उन्होंने एक हाथ में तलवार और दूसरे में लगाम पकड़कर सैकड़ों दुश्मनों को मात दी। उनकी शहादत ने पूरे देश में क्रांति की ज्वाला भड़का दी और वे आज भी हर भारतीय के दिल में अमर हैं।

त्याग और सेवा की प्रतिमा: ‘कस्तूरबा गांधी’

कस्तूरबा गांधी(Kasturba Gandhi), महात्मा गांधी की जीवनसंगिनी होने के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन की सशक्त नेता भी थीं। [Wikimedia Commons]

कस्तूरबा गांधी(Kasturba Gandhi), महात्मा गांधी की जीवनसंगिनी होने के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन की सशक्त नेता भी थीं। उन्होंने सत्याग्रह और असहयोग आंदोलनों में सक्रिय भाग लिया। कस्तूरबा ने महिलाओं को आंदोलन में जोड़ने का बीड़ा उठाया और ग्रामीण इलाकों में जाकर शिक्षा, सफाई और स्वावलंबन का संदेश फैलाया। कई बार जेल भी गईं, लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत के सामने झुकी नहींं। उन्होंने नमक सत्याग्रह और विदेशी वस्त्र बहिष्कार जैसे आंदोलनों में भी अहम भूमिका निभाई। कस्तूरबा ने हमेशा पर्दे के पीछे रहकर गांधीजी के कार्यों को मज़बूती दी और खुद भी जनसेवा में लगी रहीं। उनकी सरलता, धैर्य और त्याग ने उन्हें भारत की स्वतंत्रता की एक अनसुनी लेकिन बेहद अहम नायिका बना दिया।

अवध की शेरनी: ‘बेगम हज़रत महल’

1857 के विद्रोह में बेगम हज़रत महल (Begum Hazrat Mahal) का साहस इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। [Wikimedia Commons]

1857 के विद्रोह में बेगम हज़रत महल (Begum Hazrat Mahal) का साहस इतिहास के सुनहरे पन्नों में दर्ज है। नवाब वाजिद अली शाह (Nawab Wajid Ali Shah) की बेगम होने के बावजूद, उन्होंने महल की सुख-सुविधाओं को त्यागकर अंग्रेज़ों के खिलाफ मोर्चा संभाला। जब ब्रिटिश सेना ने लखनऊ पर कब्ज़ा करने की कोशिश की, तो बेगम ने बागियों की कमान खुद संभाली और शहर की रक्षा के लिए युद्ध का नेतृत्व किया। उनकी योजनाओं और बहादुरी ने अंग्रेज़ों को लंबे समय तक रोककर रखा। अंततः मजबूरी में उन्हें नेपाल जाना पड़ा, लेकिन वहां भी उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ उठाना नहीं छोड़ा। बेगम हज़रत महल न केवल एक योद्धा थीं, बल्कि महिलाओं के लिए साहस और नेतृत्व का प्रतीक भी हैं।

दुनिया को भारत की ताकत दिखाने वाली: ‘विजयलक्ष्मी पंडित’

विजयलक्ष्मी पंडित (Vijayalakshmi Pandit), पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) की बहन और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय होने के साथ-साथ भारत की कूटनीतिक ताकत का चेहरा थीं। [Wikimedia Commons]

विजयलक्ष्मी पंडित (Vijayalakshmi Pandit), पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawahar Lal Nehru) की बहन और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय होने के साथ-साथ भारत की कूटनीतिक ताकत का चेहरा थीं। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लिया और कई बार जेल गईं। आज़ादी के बाद वे संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं, जो भारतीय महिलाओं के लिए गर्व की बात थी। उन्होंने विदेशों में भारत की स्वतंत्रता की आवाज़ को बुलंद किया और अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ वैश्विक समर्थन जुटाया। विजयलक्ष्मी पंडित (Vijayalakshmi Pandit) ने यह साबित किया कि महिलाएं न केवल देश की सीमाओं के भीतर, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी नेतृत्व कर सकती हैं। उनकी वाकपटुता और दृढ़ निश्चय ने भारत की स्वतंत्रता की राह को मज़बूत किया।

भारत को कोकिला की आवाज़: ‘सरोजिनी नायडू’

सरोजिनी नायडू (Sarojini Naidu) को उनकी मधुर आवाज़ और कविताओं के कारण ‘भारत कोकिला’ कहा जाता है। [Wikimedia Commons]

सरोजिनी नायडू (Sarojini Naidu) को उनकी मधुर आवाज़ और कविताओं के कारण ‘भारत कोकिला’ कहा जाता है। लेकिन वे केवल कवयित्री ही नहीं, बल्कि एक जुझारू स्वतंत्रता सेनानी भी थीं। गांधीजी के नेतृत्व में उन्होंने नमक सत्याग्रह और असहयोग आंदोलन में सक्रिय भाग लिया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष बनीं और आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश की पहली महिला राज्यपाल भी रहीं। सरोजिनी नायडू (Sarojini Naidu) ने अपनी वाणी से लाखों लोगों को आज़ादी के लिए प्रेरित किया। उनकी कविताएं और भाषण लोगों के दिलों में देशभक्ति की ज्वाला भरते थे। वे इस बात का जीवंत उदाहरण हैं कि शब्द और कर्म दोनों से क्रांति लाई जा सकती है।

दिल्ली की रानी: ‘अरुणा आसफ़ अली’

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अरुणा आसफ़ अली (Aruna Asaf Ali) का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। [Wikimedia Commons]

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अरुणा आसफ़ अली (Aruna Asaf Ali) का नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज है। उन्होंने बंबई के गोवालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराकर अंग्रेज़ी हुकूमत को चुनौती दी। यह घटना स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बन गई। वे भूमिगत होकर आंदोलन का नेतृत्व करती रहीं और ब्रिटिश सरकार की आंखों की किरकिरी बन गईं। अरुणा आसफ़ अली (Aruna Asaf Ali) ने जेल में कैदियों के अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठाई और भूख हड़ताल की। आज़ादी के बाद भी वे सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहीं। उन्हें ‘दिल्ली की रानी’ (Queen Of Delhi) और ‘भारत की लौह महिला’ (‘Iron Lady of India’) कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने कभी डर को अपने रास्ते में नहीं आने दिया।

विदेश में क्रांति की मशाल: ‘मैडम भीकाजी कामा’

मैडम भीकाजी कामा (Madam Bhikaji Cama) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक ऐसी योद्धा थीं, जिन्होंने विदेश की धरती पर भारत की आज़ादी का बिगुल फूंका। [Wikimedia Commons]

मैडम भीकाजी कामा (Madam Bhikaji Cama) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की एक ऐसी योद्धा थीं, जिन्होंने विदेश की धरती पर भारत की आज़ादी का बिगुल फूंका। उन्होंने 1907 में जर्मनी के स्टटगार्ट में भारत का पहला राष्ट्रीय ध्वज फहराकर दुनिया को भारत की स्वतंत्रता की मांग से परिचित कराया। वे क्रांतिकारियों को आर्थिक और राजनीतिक समर्थन देती थीं। भीकाजी कामा (Madam Bhikaji Cama) ने अपने भाषणों और लेखन के जरिए अंग्रेज़ी हुकूमत की नीतियों का खुलकर विरोध किया। उन्होंने साबित किया कि क्रांति केवल देश के भीतर नहीं, बल्कि विदेशों में भी लड़ी जा सकती है। वे हर उस भारतीय के लिए प्रेरणा हैं जो देश के लिए कुछ करना चाहता है, चाहे वह कहीं भी हो।

साहित्य और राजनीति की मिसाल: ‘कमला चट्टोपाध्याय’

कमला चट्टोपाध्याय (Kamla Chattopadhyay) भारतीय साहित्य और राजनीति की एक प्रभावशाली शख्सियत थीं।[X]

कमला चट्टोपाध्याय (Kamla Chattopadhyay) भारतीय साहित्य और राजनीति की एक प्रभावशाली शख्सियत थीं। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भाग लिया और महिलाओं को आंदोलन से जोड़ने का काम किया। वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्य रहीं और कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व किया। कमला चट्टोपाध्याय (Kamla Chattopadhyay) ने महिलाओं की शिक्षा और अधिकारों के लिए भी अहम योगदान दिया। आज़ादी के बाद वे लोकसभा की उपाध्यक्ष बनीं, जो भारतीय राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी का प्रतीक था। उन्होंने अपनी लेखनी और भाषणों से लोगों को जागरूक किया और यह दिखाया कि शब्द और नेतृत्व दोनों बदलाव ला सकते हैं।

कर्नाटक की शेरनी: ‘कित्तूर चेनम्मा’

कित्तूर चेनम्मा (Kittur Chennamma) 19वीं सदी की शुरुआत में कर्नाटक की एक वीरांगना थीं [Wikimedia Commons]

कित्तूर चेनम्मा (Kittur Chennamma) 19वीं सदी की शुरुआत में कर्नाटक की एक वीरांगना थीं, जिन्होंने अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ हथियार उठाए। अपने पति और बेटे को खोने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और राज्य की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। 1824 में उन्होंने ब्रिटिश सेना को कड़ी टक्कर दी और कई युद्धों में जीत हासिल की। उनकी बहादुरी ने दक्षिण भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की नींव रखी। चेनम्मा का संघर्ष यह दिखाता है कि महिलाओं में भी युद्ध कौशल और नेतृत्व क्षमता किसी पुरुष से कम नहीं। आज भी कर्नाटक में उन्हें वीरता की देवी के रूप में याद किया जाता है।

शिक्षा से क्रांति की नींव: ‘सावित्रीबाई फुले’

सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं [X]

सावित्रीबाई फुले (Savitribai Phule) भारत की पहली महिला शिक्षिका थीं, जिन्होंने समाज में शिक्षा के अधिकार को क्रांति का हथियार बनाया। उन्होंने अपने पति ज्योतिराव फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए पहला स्कूल खोला और जाति-लिंग भेदभाव का डटकर विरोध किया। अंग्रेज़ी हुकूमत के समय, शिक्षा को स्वतंत्रता का सबसे बड़ा साधन मानते हुए उन्होंने नारी जागरण की मशाल जलाई। सावित्रीबाई ने न केवल लड़कियों को पढ़ाया, बल्कि विधवाओं, दलितों और गरीबों के अधिकारों के लिए भी आवाज़ उठाई। उनका मानना था कि जब तक समाज शिक्षित नहीं होगा, तब तक असली आज़ादी संभव नहीं। उनकी सोच ने आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ता बदल दिया। [Rh/SP]

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