मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) से आई एक खबर ने पूरे देश को हिला कर रख दिया है। यहाँ कुपोषण (Malnutrition) और लैंगिक भेदभाव (Gender Discrimination) की दोहरी मार ने एक मासूम बच्ची की जान ले ली। यह कहानी सिर्फ़ एक परिवार की नहीं, बल्कि उन लाखों परिवारों की है जो आज भी बेटी को बोझ समझते हैं और भोजन जैसी बुनियादी ज़रूरत से भी वंचित रखते हैं।
मासूम दिव्यांशी की मौत और परिवार का बेरुख़ी भरा रवैया
शिवपुरी जिले के अस्पताल में 15 महीने की दिव्यांशी (Divyanshi) की मौत हो गई। उसका वजन महज़ 3.7 किलो था, जबकि इस उम्र में एक स्वस्थ बच्चे का वजन 10 किलो तक होना चाहिए। लेकिन उसका हीमोग्लोबिन स्तर भी सिर्फ़ 7.4 ग्राम/डीएल था। डॉक्टरों ने उसे गंभीर रूप से कुपोषित घोषित किया था और स्वास्थ्यकर्मियों ने परिवार को पोषण पुनर्वास केंद्र (एनआरसी) में भर्ती कराने की सलाह दी थी।
लेकिन दुखद बात यह थी कि बच्ची के परिवार वालों ने बच्ची को अस्पताल में भर्ती कराने से इनकार कर दिया। दिव्यांशी की माँ का कहना है कि ससुराल वाले बार-बार कहते थे “उसे मरने दो, वह बस बेटी ही तो है।” यह कथन अपने आप में समाज की गहरी जड़ें जमा चुकी है, और यह लैंगिक असमानता और उपेक्षा को दिखाता है।
दिव्यांशी अकेली नहीं थी। हाल के महीनों में श्योपुर की डेढ़ साल की राधिका, जिसका वजन केवल 2.5 किलो था, वो भी कुपोषण की शिकार होकर दम तोड़ चुकी है। भिंड जिले में भी इसी तरह का एक मामला सामने आया है। ये घटनाएँ बताती हैं कि मध्य प्रदेश के कुपोषण वार्ड सिर्फ़ इलाज की जगह नहीं, बल्कि बच्चों की आख़िरी साँसों के गवाह बनते जा रहे हैं।
मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) में पाँच साल से कम उम्र के बच्चों में गंभीर कुपोषण (Malnutrition) की दर 7.79% है, जबकि पूरे भारत का औसत 5.40% है। यह दर्शाता है कि राज्य की स्थिति देश के बाकी हिस्सों से कहीं अधिक गंभीर है। 2020 से जून 2025 तक राज्य के एनआरसी में 85,330 बच्चों का इलाज किया गया। सिर्फ़ 2024-25 में यह संख्या 20,741 तक पहुँच गई। इसका सीधा मतलब है कि हालात बिगड़ रहे हैं और बच्चे बढ़ती संख्या में अस्पतालों तक पहुँच रहे हैं। इसके अलावा, राज्य की 57% महिलाएँ एनीमिया से भी जूझ रही हैं। जब माँ खुद कुपोषित और एनीमिक होती है, तो अगली पीढ़ी भी उसी स्थिति में जन्म लेती है। इस तरह यह समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।
सरकार ने 2025-26 के लिए पोषण पर 4,895 करोड़ रुपये का बजट घोषित किया है। एनआरसी में भर्ती प्रत्येक बच्चे पर 980 रुपये और आंगनवाड़ी केंद्रों के ज़रिए बच्चों और माताओं को रोज़ 8-12 रुपये की मदद दी जाती है। लेकिन सवाल यह उठता है की क्या 8-12 रुपये प्रतिदिन किसी बच्चे के पोषण के लिए पर्याप्त हैं ? कांग्रेस विधायक डॉ. विक्रांत भूरिया का कहना है की “आज दो केले ही 12 रुपये से ज़्यादा के हैं, दूध 70 रुपये लीटर है। ऐसे में 8 रुपये में कौन सा पौष्टिक भोजन मिलेगा ?”
विशेषज्ञों का कहना है कि गंभीर कुपोषण (Malnutrition) यानी सीवियर एक्यूट मालन्यूट्रिशन (SAM) का समय रहते पता लगाना बेहद ज़रूरी है। इसके लिए आंगनवाड़ी स्तर पर बेहतर स्क्रीनिंग प्रोटोकॉल अपनाने की ज़रूरत है। एसएएम बच्चों की पहचान के लिए कुछ संकेतक हैं जैसे - वजन-के-लिए-ऊँचाई का जेड-स्कोर -3 एसडी से नीचे होना, मध्य-ऊपरी बांह की परिधि 11.5 सेमी से कम होना, शरीर में सूजन (एडिमा) होना। ऐसे मामलों में रेडी-टू-यूज़ थेराप्यूटिक फूड (RUTF) यानी विशेष पोषण आहार और आयरन सप्लीमेंट जैसी चिकित्सा तुरंत दी जानी चाहिए।
भारत आज दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था में गिना जाता है। लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि देश की 50% से अधिक आबादी अभी भी कुपोषण और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी से जूझ रही है। दुनिया भर में पाँच साल से कम उम्र के बच्चों की कुल मौतों में 17% मौतें भारत में होती हैं। बच्चों का कम वजन, बौनापन (स्टंटिंग), और मातृ मृत्यु दर इन तीनों मामलों में भारत अभी भी वैश्विक स्तर पर सबसे ऊपर है। इसके पीछे का कारण हैं गरीबी, असंतुलित आहार, लैंगिक भेदभाव और सही जानकारी की कमी। पूर्व मंत्री वीना एस राव का कहना है की “भारत में कुपोषण (Malnutrition) की समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आ रही है, और इसका कारण सिर्फ़ गरीबी नहीं, बल्कि जानकारी का अभाव और लैंगिक असमानता भी है।”
दिव्यांशी (Divyanshi) के मामला से यह साफ़ दिखता है कि जब बेटी को जन्म से ही "कम" समझा जाता है, तो इसीलिए उसकी बीमारी को भी नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। यह मानसिकता कई परिवारों में अब भी मौजूद है, बेटा बीमार पड़े तो तुरंत अस्पताल ले जाया जाता है, लेकिन बेटी बीमार हो जाए तो उसे यूँ ही छोड़ दिया जाता है। इस असमानता ने समाज को खोखला कर दिया है, इस तरह का रवैया न केवल बच्चियों की मौत का कारण बन रहा है, बल्कि समाज में असमानता की गहरी खाई भी बना रहा है।
पोषण योजनाओं का विस्तार और बजट में वृद्धि, 8-12 रुपये प्रतिदिन का बजट पूरी तरह से अपर्याप्त है। इसे बढ़ाकर बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन सुनिश्चित होना चाहिए। आंगनवाड़ी और स्वास्थ्यकर्मियों को सशक्त बनाना चाहिए, ताकि हर बच्चों को समय पर इलाज मिल सके।माताओं की सेहत पर फोकस जरूर होना चाहिए, ताकि गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को विशेष पोषण और आयरन-सप्लीमेंट्स उपलब्ध कराए जाएँ।
लैंगिक भेदभाव (Gender Discrimination) खत्म करने के लिए जागरूकता अभियान चलना चाहिए, और समाज को यह समझाना चाहिए कि बेटी और बेटा दोनों बराबर होते हैं, दोनों को समान अधिकार और देखभाल की ज़रूरत है।
निष्कर्ष
दिव्यांशी (Divyanshi) की मौत महज़ एक आंकड़ा नहीं है, यह हमारे समाज की सोच और व्यवस्था की विफलता का प्रतीक है। जब तक हम बेटी को बोझ और बेटों को “वंश का वारिस” मानते रहेंगे, तब तक ऐसे हादसे होते रहेंगे। मध्य प्रदेश और पूरे भारत के लिए यह समय चेतावनी की तरह है। अब ज़रूरत है कि हम कुपोषण और लैंगिक भेदभाव, दोनों के खिलाफ़ मिलकर लड़ें। तभी आने वाली पीढ़ी स्वस्थ, सशक्त और बराबरी के साथ जी पाएगी। [Rh/PS]