लाल किले की प्राचीर से तिरंगा लहराता हुआ अपने आजादी के 75 वर्ष पूरा कर रहा है। और दूसरी तरफ राजस्थान के जालोर जिले में सरस्वती विद्यालय के तीसरी कक्षा के छात्र को पीट-पीट कर मार डाला जाता है। वजह क्या थी? वजह ये थी कि उस 9 वर्षीय बालक, जोकि दलित था, ने तथाकथित सवर्ण जाति के लिए बने घड़े से पानी पी लिया था। आज 75 वर्ष बाद भी यदि हम जातिगत रूढ़ियों में बंधे हुए हैं तो फिर किस बात कि आजादी का जश्न माना रहे हैं? यह कोई पहला मामला नहीं है, आए दिन इस तरह की संकीर्ण मांसिकताओं से भारी खबरें व घटनाएं सुनाई पड़ती रहती हैं।
हमारे संविधान ने अपने अनुच्छेद 15 में भले ही धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध किया हो, पर भारत के अधिकांश क्षेत्रों तक यह अनुच्छेद अबतक जमीन पर भी नहीं उतर पाया है। आजादी का अमृतमहोत्सव ज़ोरों से मन रहा है, पर उस अमृत की बूंदों के लिए अब भी एक वर्ग संघर्ष कर रहा है। कुछ विशेषज्ञ कहेंगे कि यह जातिगत भेदभाव केवल गरीब वर्गों में पाया जाता है। पर ऐसा नहीं है। उपरोक्त घटना पर भूतपूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार का एक ट्वीट और साक्षात्कार सामने आया है जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे 'चमार' शब्द का प्रयोग उनके पिता श्री बाबू जगजीवन राम, एक उप प्रधानमंत्री के लिए गाली के रूप में किया जाता था।
राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार रह चूंकि मीरा कुमार बताती हैं कि सौ साल पहले ठीक इसी तरह उनके पिता को विद्यालय में पीटा गया था, क्योंकि उन्होंने सावर्णों के लिए बने घड़े से पानी पी लिया था। वो आगे कहती हैं कि यह चमत्कार ही है कि उस समय उनके पिता बच गए। मीरा कुमार ने अपने पिता से पूछा था, 'आपने आजादी के लिए क्यों लड़ाई लड़ी? इस देश ने आपके लिए कुछ नहीं किया। इसने आपको या आपके पूर्वजों को कुछ नहीं दिया'। तब उनके पिता ने कहा, 'स्वतंत्र भारत बदलने जा रहा है। हमारे पास एक जाति-विहीन समाज होगा।' मीरा कहती हैं कि अच्छा है कि अब वह नहीं हैं। वरना यह सब देखकर वो और भी टूट जाते।
मीरा कुमार के दिए वक्तव्य में उन्होंने यह भी बताया कि यह जातिवाद का रोग केवल भारत में ही नहीं बल्कि ये रेंगता हुआ विकसित देशों में भी पहुँच चुका है। एक घटना का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि एक बार जब वह लंदन में किराये के मकान की तलाश कर रहीं थीं, तब एक मकान मालिक, जोकि ईसाई था, ने उनसे उनकी जाति के बारे में पूछा था। उसने पूछा था कि क्या वो ब्राह्मण हैं? इसपर मीरा ने कहा कि नहीं, वो अनुसूचित जाति से हैं। क्या उनको कोई समस्या है? मकान मालिक ने कहा कि नहीं, समस्या तो नहीं है। पर फिर भी उसने वो घर उनको नहीं दिया।
मीरा कुमार अपने पिता के बारे में कहते हुए बताती हैं कि भले ही उन्होंने अपने दम पर सब कुछ हासिल किया हो, पर उनको ताउम्र दलित नाम के दंश को झेलना पड़ा। उस कर्मठ व्यक्ति को आज भी लोग दलित नेता कहकर ही याद करते हैं। मीरा बताती हैं कि बाबू जगजीवन राम भले ही उप प्रधान मंत्री थे, पर फिर भी उनको अपमानित करते हुए वहाँ से जाने को कह दिया गया था। और कई जातिवादी गालियां भी दी गई थीं।
इतना ही नहीं जगजीवन राम से संबंधित एक और घटना याद करते हुए वो बताती हैं कि जब वो 1978 में उप प्रधानमंत्री के रूप में संपूर्णानंद की प्रतिमा का अनावरण करने गए, तब उन्हें अपमानित किया गया। लोगों ने नारे लगाए, "जगजीवन, चमार, चले जाओ।" इसके बाद उस मूर्ति को गंगा जल से धोया गया क्योंकि वो एक दलित के स्पर्श से दूषित हो चुका था।
ये तमाम उद्धरण प्रेमचंद के 'ठाकुर का कुआं' कहानी को आज भी प्रासंगिक बना कर प्रदर्शित करते हैं।