भारत (India) में आज "ग़ोदी मीडिया" (Godi Media) शब्द आम हो चुका है। इसका मतलब है ऐसा मीडिया जो सत्ता की गोद में बैठकर उसकी हर बात दोहराए, बिना सवाल पूछे। जो मीडिया कभी लोकतंत्र (Democracy) का पहरेदार (watchdog) माना जाता था, वही आज सत्ता का करीबी बन गया है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ भारत में हो रहा है? या ये पूरी दुनिया में हो रहा है और लोकतंत्र के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है।
चाहे अमेरिका (America) हो, यूरोप (Europe) हो, रूस (Russia) या चीन (China), हर जगह मीडिया धीरे-धीरे सत्ता और विचारधाराओं का समर्थक बनता जा रहा है। अमेरिका में मीडिया हाउसेस अलग-अलग विचारधाराओं को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं कि इसमें से सच क्या है यह पहचानना मुश्किल हो जाता है। तुर्की (Turkey) और हंगरी (Hungary) जैसे देशों में सरकारें खुलेआम मीडिया संस्थानों को अपने क़ाबू में कर लेती हैं। रूस और चीन में तो स्वतंत्र पत्रकारिता लगभग ख़त्म हो चुकी है। भारत भी इसी राह पर है, जहाँ टीवी डिबेट्स में विपक्ष से सवाल पूछे जाते हैं, लेकिन सरकार जो सत्ता मै है और जिसे जवाबदेह होना चाहिए उससे नहीं। यह किसी एक विचारधारा की समस्या नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में मीडिया की आज़ादी पर सवाल उठ रहे है।
वाचडॉग से लेपड़ोग तक का सफ़र (From Watchdog to Lapdog)
लोकतंत्र में मीडिया को चौथा स्तंभ (Fourth Pillar of Democracy) कहा जाता है। इसका काम होता है सत्ता पर नज़र रखना, जनता की आवाज़ और मुद्दे उठाना। आपातकाल (Emergency) के समय जब सरकार ने सेंसरशिप लगाई थी, तब अख़बारों ने विरोध जताने के लिए अपने कॉलम खाली छोड़ दिए थे। यह जनता को दिखाने का तरीका था कि सच दबाया जा रहा है। लेकिन आज हालात बदल गए हैं। आज का मीडिया सरकार की हर नीति और बयान का समर्थन करता है, लोगों को उसके फायदे बताता है, चाहे वह जनता के खिलाफ ही क्यों न हो।
जो मीडिया को नियंत्रित करता है, वही जनता की सोच को नियंत्रित करता है (Who controls the media, controls the media)
मीडिया की सबसे बड़ी ताक़त यह है कि वह जनता की सोच और नज़रिये को बदल सकता है। जब बड़े मीडिया हाउस (media house), कॉरपोरेट (Corporate) या राजनीतिक दलों के हाथों में होते हैं, तो वे वही ख़बरें दिखाते हैं जो उनके हित में हों। विज्ञापन (Advertisements) का दबाव, सरकारी नियम-कानून और धमकियाँ भी पत्रकारों को मजबूर कर देती हैं कि वे सत्ता के ख़िलाफ़ सख़्त सवाल न पूछें और अगर उन्होंने ऐसा न किया तो या तो उनकी एड्स बंद कर दी जाएँगी या फिर उनके ऑफिस मै रेड पढ़ जाएगी। सोशल मीडिया (social media) पर भी एल्गोरिद्म (algorithm) ऐसी ख़बरें आगे बढ़ाता है जो गुस्सा या भ्रम पैदा करें जिसकी वजह से लोगो के मन मै बहुत बार दूसरे धर्म या जातीयो के खिलाफ नफरत पैदा हो जाती है।
आज भारत में बेरोज़गारी (unemployment), महँगाई (inflation), गरीबी (poverty), शिक्षा (education) और स्वास्थ्य (health) जैसी कई समस्याएँ हैं। लेकिन टीवी और अख़बार इन पर चर्चा या डिबेट शो नहीं करते। बल्कि वह सुशांत सिंह राजपूत (Sushant Singh Rajput) केस जैसे मामलों पर महीनों तक बहस करते रहते हैं। लोगों का ध्यान असली मुद्दों से हटाकर फ़िल्मी गॉसिप और बेकार की बहस में उलझा दिया जाता है। इससे आम जनता असली समस्याओं को भूल जाती है, और सरकार पर कोई सवाल भी नहीं उठता।
अगर मीडिया लगातार सिर्फ़ एकतरफ़ा या पक्षपाती ख़बरें दिखाएगा, तो जनता के सामने सबसे बड़ा संकट यह होगा कि उन्हें सच और झूठ में फर्क ही पता नहीं चल पाएगा क्युकी 100 बार बोला गया झूठ सच लगने लगता है। धीरे-धीरे लोग वही मानने लगते हैं जो बार-बार सुनते हैं। इस तरह उनकी सोच बदल जाती है और उन्हें लगता है की देश मै सब चंगा सी है। यह बदलाव लोकतंत्र के लिए खतरनाक है, क्योंकि जनता तक सही जानकारी पहुँच ही नहीं रही।
यह सब सिर्फ़ बातें नहीं हैं, बल्कि आँकड़े भी यही बताते हैं। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स (Reporters without Borders) हर साल वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स (World Press Freedom Index) जारी करता है। इसमें भारत (India) की रैंक 2025 में 151वें स्थान तक गिर गई, जो अब तक की सबसे खराब स्थिति में से एक है। लेकिन गिरावट सिर्फ़ भारत में नहीं, अमेरिका और यूरोप जैसे देशों में भी देखी गई है। इसका मतलब साफ़ है, दुनियाभर में पत्रकारिता पर दबाव बढ़ा है और उसकी स्वतंत्रता कज़ोर हो रही है।
लोकतंत्र केवल चुनावों से नहीं चलता, उसे एक जागरूक जनता की भी ज़रूरत होती है। अगर जनता को सही जानकारी ही नहीं मिलेगी, तो वे समझदारी से फैसले नहीं ले पाएगी। जब मीडिया सिर्फ़ सत्ता का माउथ पीस बन कर रह जाएगी, तो सरकार और कॉरपोरेट बिना किसी डर के गलत फैसले लेंगे। धीरे-धीरे जनता का भरोसा पत्रकारिता और लोकतंत्र दोनों से उठ जाएगा। यह लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार होगी।
"ग़ोदी मीडिया" (Godi Media) शब्द भले ही भारत ने दिया हो, लेकिन यह समस्या पूरी दुनिया की है। हर जगह मीडिया अपने चौकीदार और लोकतंत्र के चौथे स्तम्ब होने की ज़िम्मेदारी भूल चूका है। जो अख़बार आपातकाल जैसे समय में ख़ाली जगह छोड़कर विरोध जताते थे, आज वही ख़ाली कॉलम झूठ फैला रहे है। अब सबसे बड़ा सवाल यही है, जब मीडिया ही सत्ता के आगे झुक गया है, तो जनता के अधिकारों की रक्षा कौन करेगा?
(Rh/BA)