अर्नब गोस्वामी का अरावली जैसे मुद्दे को जोड़ना, न्याय से ज़्यादा नैरेटिव सेट करने की कोशिश लगता है।
अरावली और नैतिकता की बात — क्या ये Ravish Kumar जैसी गंभीर और संवेदनशील पत्रकारिता दिखाने की कोशिश है?
ये सिर्फ़ इमेज सुधारने और TRP बचाने की चाल है, जहाँ शोर कम और “गंभीर एंकर” की छवि ज़्यादा दिखाई जा रही है?
अर्नब गोस्वामी (Arnab Goswami): भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता का एक जाना-माना चेहरा हैं। अर्नब ने अपने करियर की शुरुआत The Telegraph अख़बार से की और बाद में टीवी पत्रकारिता में कदम रखा। अर्नब गोस्वामी ने Times Now में बतौर एंकर पहचान बनाई, जहाँ Newshour जैसे डिबेट शो में अर्नब नेआक्रामक और तेज़ तेवरों वाले पत्रकार के रूप में खुद को स्थापित किया। साल 2017 में अर्नब गोस्वामी ने अपना चैनल Republic TV शुरू किया, जिसने अर्नब को और अधिक ताक़तवर मीडिया चेहरा बना दिया। हालाँकि 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद यह आरोप लगने लगे कि अर्नब गोस्वामी चैनल सरकार से सवाल पूछने की जगह सत्ता का समर्थन करता है। इसी दौर में अर्नब गोस्वामी और उनके चैनल की पहचान एक ऐसे मीडिया मंच के रूप में बनने लगी, जहाँ सवाल कम और समर्थन ज़्यादा दिखाई देता था।
नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद अर्नब गोस्वामी पर लगातार यह आरोप लगता रहा कि वे अपने चैनल पर सरकार की आलोचना करने से बचते रहे। विपक्ष पर आक्रामक डिबेट करते रहे और सरकार की नीतियों को सही ठहराने वाले सवाल ज़्यादा पूछे गए।
अरावली पहाड़ियाँ भारत की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में से एक हैं। ये दिल्ली-NCR को रेगिस्तान बनने से बचाने, भूजल रिचार्ज और पर्यावरण संतुलन बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती हैं। इसी अरावली मुद्दे पर अरनब गोस्वामी ने पहली बार सरकार और न्यायपालिका से सीधे सवाल किए। उन्होंने न केवल Supreme Court of India के फैसले पर सवाल उठाए, बल्कि सरकार और पर्यावरण मंत्रालय से भी जवाब माँगा। अर्नब गोस्वामी ने यह सवाल उठाया कि क्या 20 करोड़ साल पुरानी अरावली पहाड़ियों को केवल तकनीकी परिभाषाओं में बाँधकर उनके संरक्षण को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है? क्या विकास के नाम पर पर्यावरण को पीछे धकेलना ही एकमात्र रास्ता बचा है? यह वही अर्नब हैं, जिन्होंने अब तक शायद ही कभी सरकार और सिस्टम को एक साथ कठघरे में खड़ा किया हो।
भारतीय टीवी पत्रकारिता में दो नाम ऐसे हैं जिनकी तुलना अपने आप में एक बहस बन जाती है — अर्नब गोस्वामी और रवीश कुमार । दोनों ही पत्रकारों की पहचान बिल्कुल अलग मानी जाती हैं। अर्नब की पहचान शोर, बहस और आक्रामक तेवरों से थी, वहीं रवीश कुमार शांत, ज़मीनी और सवाल पूछने वाली पत्रकारिता के लिए जाने जाते थे।
लेकिन हाल के समय में सोशल मीडिया पर एक सवाल तेज़ी से उठ रहा है — क्या अर्नब गोस्वामी अब रवीश कुमार जैसा बनना चाहते हैं? बहस से एकालाप (Monologue) की ओर झुकाव अर्नब गोस्वामी का शुरुआती फॉर्मेट साफ़ था — तेज़ आवाज़, कई पैनलिस्ट, लगातार टोका-टाकी और राष्ट्रवाद के इर्द-गिर्द घूमती बहसें। अर्नब गोस्वामी का एंकरिंग स्टाइल आक्रामक, सनसनीखेज और अत्यधिक पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोणके लिए जानी जाती है , जिसमें तेज, बाधा डालने वाली बहसें, भावनात्मक राष्ट्रवाद और दक्षिणपंथी/भाजपा के विचारों के साथ तालमेल शामिल है। लेकिन अब कई बार उन्हें लंबे मोनोलॉग, सीधे कैमरे से बात करते हुए और नैतिकता का पाठ पढ़ाते हुए देखा जा रहा है। यही वो जगह है जहाँ तुलना शुरू होती है। क्योंकि रवीश कुमार की पहचान ही यही रही है — कम शोर, ज़्यादा बात; कम आरोप, ज़्यादा सवाल।
क्या ये स्टाइल चेंज मजबूरी है?
आज का मीडिया सिर्फ़ TRP से नहीं चलता, विश्वसनीयता (credibility) भी एक बड़ी पूंजी बन चुकी है। अर्नब पर लंबे समय से आरोप लगते रहे हैं कि उनकी पत्रकारिता में हंगामा ज़्यादा और तथ्य कम होते हैं। ऐसे में जब वो गंभीर लहजे में, कम चिल्लाकर बात करते हैं, तो लोग इसे इमेज सुधारने की कोशिश मानते हैं। यही कारण है कि दर्शक कहने लगे — “क्या अर्नब अब रवीश बनने की कोशिश कर रहे हैं?”
सच्चाई क्या है?
सच्चाई ये है कि अर्नब गोस्वामी का मूल स्वभाव अब भी टकराव वाला है, और रवीश कुमार का आधार आज भी ज़मीनी मुद्दे और आम आदमी हैं। अर्नब का मोनोलॉग अक्सर फैसला सुनाता है, जबकि रवीश का मोनोलॉग सवाल छोड़कर जाता है। यानी दोनों का तरीका भले कुछ जगह मिलता-जुलता दिखे, लेकिन इरादा और आत्मा अब भी अलग है।
निष्कर्ष
आज किसी भी एंकर के दो-चार क्लिप वायरल हो जाएं तो पूरा नैरेटिव बन जाता है। लोग पूरी पत्रकारिता नहीं, 30 सेकंड के वीडियो के आधार पर निष्कर्ष निकाल लेते हैं। यही वजह है कि “अर्नब दूसरा रवीश बन रहे हैं ” जैसी लाइनें सोशल मीडिया पर फेमस हो रही हैं।हालाँकि अर्नब गोस्वामी रवीश कुमार नहीं बनना चाहते, वो सिर्फ़ अपनी आक्रामक छवि में गंभीरता और नैतिकता का नया कोट चढ़ा रहे हैं, ताकि उन्हें सत्ता का पक्ष लेने की वजह से अनदेखा न किया जाए। । और यही फर्क समझना ज़रूरी है। क्योंकि स्टाइल बदल सकता है, लेकिन पत्रकारिता की आत्मा नहीं।
(Rh/PO)