भारत निर्वाचन आयोग (Sora AI) 
राजनीति

भारत निर्वाचन आयोग: ताक़त, दबाव और कमज़ोरियाँ

भारत निर्वाचन आयोग भारतीय लोकतंत्र का पहरेदार है, जिसे 1950 मै स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने की ज़िम्मेदारी दी गई। समय के साथ इसके अधिकार बढ़े, चुनौतियाँ भी आईं और विवाद भी हुए। इसकी शक्तियाँ, कमज़ोरियाँ और सुधार की ज़रूरतें आज गंभीर बहस का विषय बन चुकी हैं।

न्यूज़ग्राम डेस्क

भारतीय चुनाव आयोग की स्थापना

भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) की स्थापना 25 जनवरी 1950 को हुई,  गणतंत्र दिवस से ठीक एक दिन पहले। संविधान के अनुच्छेद 324 (Article 324) के तहत इसे एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था बनाया गया ताकि देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराए जा सकें। पहले मुख्य चुनाव आयुक्त (CEC) सुकुमार सेन थे, जिन्होंने 1951–52 में स्वतंत्र भारत के पहले आम चुनाव कराए। उस समय लगभग 17 करोड़ मतदाता थे और भारी अशिक्षा व सीमित संसाधनों के बावजूद आयोग ने चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराए।

चुनाव आयोग: शक्तियाँ और भूमिका

शुरुआत से ही भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) को कई अधिकार मिले। यह लोकसभा (Lok Sabha), राज्यसभा (Rajya Sabha), विधानसभाओं (Vidhan Sabha) और राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति (President, vice-president) के चुनाव कराता है। समय के साथ इसके अधिकार बढ़ते गए, राजनीतिक पार्टियों को मान्यता देना, चुनाव के नियमों का पालन करवाना और अगर कोई उम्मीदवार गलत काम करे जैसे भरष्टाचार तो उसकी उम्मीदवारी रद्द करने की सिफारिश करना। शुरू में यह एक-सदस्यीय संस्था थी, लेकिन 1993 से इसे स्थायी रूप से तीन-सदस्यीय बनाया गया जिसमें एक मुख्य चुनाव आयुक्त (Chief election commissioner) और दो चुनाव आयुक्त होते हैं। तीनों के अधिकार समान हैं और निर्णय बहुमत से लिया जाता है।

समय के साथ बदलाव

शुरुआती दशकों में आयोग को बूथ कैप्चरिंग और पैसों की ताक़त के सामने कमज़ोर माना जाता था। लेकिन 1990 के दशक में टी.एन. शेषन (T.N. Seshan) ने कड़ा रुख अपनाकर चुनावी प्रक्रिया में सख़्ती लाई। उन्होंने रुपयों के बल पर चुनाव जितने पर रोक लगाई और आचार संहिता (Model code of conduct) को गंभीरता से लागू किया। तकनीकी सुधार जैसे EVM (Electronic Voting Machine), फोटो वोटर आईडी और VVPAT (Voter Verifiable Paper Audit Trail) ने आयोग की क्षमता को और मज़बूत किया। हालाँकि, ज़िम्मेदारियाँ बढ़ने के साथ राजनीतिक दबाव भी बढ़ा, जिससे इसकी स्वतंत्रता पर सवाल उठने लगे।

1977 के चुनाव, आपातकाल के बाद, चुनाव आयोग ने निष्पक्ष ढंग से चुनाव कराए। (Sora AI)

सफलताएँ

भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) ने कई बार लोकतंत्र को मज़बूत किया। 1977 के चुनाव, आपातकाल के बाद, चुनाव आयोग ने निष्पक्ष ढंग से चुनाव कराए जिससे जनता का विश्वास लोकतंत्र मै लौटा। 1990 के दशक में फोटो वोटर कार्ड शुरू होने से फर्जी मतदान भी कम हो गए । 2014 और 2019 के लोक सभा चुनावों में 80 करोड़ से ज़्यादा मतदाता होने के बावजूद चुनाव कराना अपने आप में आयोग की योग्यता का उदाहरण है।

असफलताएँ और विवाद

इसके साथ कई आलोचनाएँ भी जुड़ी हैं। हाल ही में 2025 का बिहार का “वोट चोरी” विवाद बड़ा मुद्दा बना, जहाँ विपक्ष ने आरोप लगाया कि चुनाव आयोग ने जानबूझकर लाखों नाम वोटर लिस्ट से हटवा दिए जिससे परिणाम प्रभावित हुए। इससे पहले 1980 के दशक में बूथ कैप्चरिंग (Booth Capturing) और हिंसा रोकने में आयोग नाकाम रहा। 2019 के चुनावों के दौरान आयोग पर आरोप लगे कि उसने आचार संहिता (Model code of conduct) उल्लंघन पर सत्ता पक्ष के नेताओं के प्रति नरमी दिखाई जबकि छोटे दलों पर सख़्ती की। ईवीएम की पारदर्शिता को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं क्योंकि VVPAT की गिनती हर क्षेत्र में केवल पाँच बूथों तक सीमित है। ये उदाहरण दिखाते हैं कि आयोग की विश्वसनीयता कई बार चुनौती में रही है और  उस पर सवाल भी उठते रहे है।

नियुक्ति प्रक्रिया और स्वतंत्रता

भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) की विश्वसनीयता इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसके सदस्य कैसे चुने जाते हैं। पहले एक समिति जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल थे, आयुक्तों की नियुक्ति करती थी। लेकिन हाल के बदलावों के बाद अब मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) को हटा दिया गया है और नियुक्ति लगभग पूरी तरह कार्यपालिका (सत्ता पक्ष) के हाथों में है। इससे यह आशंका बढ़ी है कि आयोग की स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है।

2025 का बिहार का “वोट चोरी” विवाद बड़ा मुद्दा बना। (Sora AI)

मौजूदा समस्याएँ

राजनीतिक दबाव के अलावा आयोग को कई संरचनात्मक और व्यावहारिक दिक़्क़तें हैं। यह  पूर्ण रूप  से सरकार पर निर्भर है, जिससे स्वतंत्रता सीमित होती है। आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों पर निर्णय लेने में देरी और ईवीएम-वोटर लिस्ट की पारदर्शिता पर सवाल इसके अधिकार को कमज़ोर करते हैं। आचार संहिता के असमान नियम होने से भी पक्षपात का आरोप लगता है।

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ज़रूरी सुधार

भारत निर्वाचन आयोग को और मज़बूत बनाने के लिए सुधार आवश्यक हैं। नियुक्ति प्रक्रिया पूरी तरह स्वतंत्र होनी चाहिए। आयोग को पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए और उसका खर्च सीधे भारत की सरकारी कोष से आना चाहिए। VVPAT की गिनती को व्यापक बनाना चाहिए ताकि मतदाता का विश्वास बढ़े। आचार संहिता का पालन सभी दलों पर समान रूप से लागू होना चाहिए। साथ ही, आपराधिक विवरण वाले नेताओं को तुरंत अयोग्य ठहराने का अधिकार आयोग को मिलना चाहिए।

भारत निर्वाचन आयोग को और मज़बूत बनाने के लिए सुधार आवश्यक हैं। (Sora AI)

निष्कर्ष

भारत निर्वाचन आयोग (Election Commission of India) भारतीय लोकतंत्र का आधार स्तंभ है। इसने हमेशा चुनाव कराने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई है। लेकिन इसके इतिहास में ताक़त और कमज़ोरियाँ दोनों रही हैं, टी.एन. शेषन (T. N. Seshan) जैसे सख़्त मुख्य चुनाव आयुक्त का दौर भी देखा और राजनीतिक दबाव के चलते उठते सवाल भी। अगर ज़रूरी सुधार किए जाएँ, तो भारत निर्वाचन आयोग वास्तव में स्वतंत्र होकर देश में निष्पक्ष चुनाव कराने की अपनी संवैधानिक भूमिका पूरी तरह निभा सकता है। (Rh/Eth/BA)

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