Devshayani Ekadashi 2022: श्री नरसिंह पुराण के 67 वें अध्याय के श्लोक संख्या 7 में लिखा है-
उपवासो मुनिश्रेष्ठ एकादश्यां विधीयते।
नरसिंहं समभ्यर्च्य सर्वपापैः प्रमुच्यते॥
अर्थात एकादशी को दिन-रात उपवास करके भगवान विष्णु की पूजा करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।
इसी क्रम में आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी विशेष है। इस पवन एकादशी को देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। ऐसी मान्यता है की इस दिन भगवान विष्णु संसार का कारभार भगवान शंकर को सुनप कर स्वयं योग निद्रा में चले जाते हैं। भगवान श्री हरी नरायण के इस योगनिद्रा का काल 4 मास का होता है। अतः इन महीनों को चातुर्मास नाम से भी बुलाया जाता है। इस दौरान भगवान विष्णु की उपासना का विशेष फल उनके भक्तों को प्राप्त होता है। चूंकि यह काल देव शयन का होता है, इसलिए इस दौरान सगाई, विवाह, मुंडन, उपनयन संस्कार जैसे मांगलिक कर्मकांड प्रतिबंधित रहते हैं। इस वर्ष देवशयनी एकादशी की यह पवन तिथि 10 जुलाई 2022 रविवार को आ रही है। देवशयन का यह काल कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन समाप्त होता है। इस दिन को देवोत्थान एकादशी, देव प्रबोधिनी और देव उठनी एकादशी आदि नामों से जाना जाता है। इस वर्ष देवोत्थान एकादशी 4 नवंबर को होगी। इसका मतलब ये हुआ कि इस बार देवशयन 118 दिनों का होगा।
शस्त्रों ने एकादशी को बहुत महत्वपूर्ण बताया है। इसका व्रत करने से व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त करता है। भगवान विष्णु और लक्ष्मी की इस दिन विशेष पूजा के साथ भगवान श्री हरी को शयन करवाया जाता है। इस बार 10 जुलाई को भगवान विष्णु का मंगल शयन सायंकाल में करवाया जाएगा। शयनकाल में जाने से पूर्व भगवान विष्णु अपने सभी भक्तों को दर्शन देते हुए उनको उनके सुखमय जीवन का आशीर्वाद देते हैं।
इस दिन प्रातःकाल स्नानादि से निवृत्त होकर भक्त एकादशी व्रत का संकल्प धारण करते हैं। भगवान विष्णु का शास्त्रोक्त विधि से पूजन करते हैं। तत्पश्चात उनके व्रत की कथा पढ़ते-सुनते हैं। इस दिन भक्तों को दिनभर व्रत रहकर सायं काल में भगवान विष्णु की आरती के साथ ही तुलसी के पौधे के समक्ष एक शुद्ध घी का दीपक प्रज्वलित करना चाहिए।
एक प्रचलित कथा के अनुसार सतयुग में एक मान्धाता नामक नगर था, जिसके राजा बड़े ही प्रवीणता से राज्य किया करते थे। एक बार उनके राज्य में लगातार तीन वर्ष तक सूखा पड़ा रहा। प्रजा त्राहिमाम करती हुई राजदरबार में पहुँच गई। राजा इस दृश्य से बहुत ही विचलित हो गए और उनके मन में यह संदेह घर कर गया कि कहीं उनसे कोई अपकार तो नहीं हो गया, जिसकी सजा राज्य भुगत रहा है। मंत्रियों के सलाह पर वो वन में एक आश्रम पहुंचे। यह आश्रम ऋषि अंगिरा का था। जब ऋषि ने राज्य के वहाँ उपस्थित होने का कारण पूछा तो राजा ने करबद्ध होकर बड़े ही विनयपूर्वक शब्दों में कहा, 'भगवान मैंने सभी धर्म का यथोचित पालन किया है, पर फिर भी जाने किस मेरे किस अपराध के कारण मेरे राज्य में सूखा पद गया है और मेरी प्रजा भूख से व्याकुल हो रही है।' राजा के भावपूर्ण शब्दों पर ऋषि अंगिरा ने दया दिखते हुए आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के व्रत का महात्म्य बताया। सभी विधि विधान को सुनकर राजा अपने राजधानी को लौट आए और विधिपूर्वक एकादशी का व्रत किया, रात्रि जागरण किया, ब्रह्मचर्य का पालन किया और अनाज आदि का परहेज करते हुए केवल एक समय के फलाहार के साथ ही उन्होंने समय से व्रत का पारण किया। व्रत का प्रभाव ये हुआ कि उनके राज्य में खूब मूसलाधार बारिश हुई, और उनके प्रजा का जीवन एक बार फिर खुशहाली के राह पर लौट आया।
प्रारंभ- 9 जुलाई दोपहर 4.39 बजे
समाप्त- 10 जुलाई दोपहर 2.13 बजे
पारण- 11 जुलाई प्रात: 5.49 से प्रात: 8.30 तक