जब जैन लोगों को लगता है कि उनका अंतिम समय आ चुका है, तो वे धीरे-धीरे भोजन और पानी त्याग देते हैं। [Sora Ai] 
धर्म

संथारा और विवाद: आस्था के नाम पर जीवन का त्याग सही या गलत?

इतिहास गवाह है कि 3 साल की बच्ची से लेकर 88 वर्ष की बुजुर्ग महिला तक ने संथारा अपनाया। कुछ परिवार इसे गर्व की परंपरा मानते हैं, तो कुछ लोग इसे कठोर और विवादित बताते हैं। यही वजह है कि आज भी संथारा विवाद बना हुआ है।

न्यूज़ग्राम डेस्क

क्या आपने कभी सोचा है कि जब किसी इंसान को यह अहसास हो जाए कि उसका जीवन अब अंतिम पड़ाव पर है, तब वह क्या करेगा? कोई डॉक्टरों की तलाश करता है, कोई दवाओं पर भरोसा करता है, लेकिन जैन धर्म (Jain Dharma) में एक ऐसी परंपरा है जिसके अनुसार वे जीवन से मुक्ति लेने की मार्ग पर ही चल देते हैं। यह परंपरा बाकी सब से बिल्कुल अलग है, इसे कहते हैं संथारा। संथारा (Santhara), यानी जीवन का स्वेच्छा से त्याग करने की तपस्या। जब जैन लोगों को लगता है कि उनका अंतिम समय आ चुका है, तो वे धीरे-धीरे भोजन और पानी त्याग देते हैं। यह सिर्फ मृत्यु का इंतज़ार नहीं, बल्कि आत्मा को शुद्ध (Purify The Soul) करने और मोक्ष (Moksha) की ओर बढ़ने का साधन माना जाता है।

जब जैन लोगों को लगता है कि उनका अंतिम समय आ चुका है, तो वे धीरे-धीरे भोजन और पानी त्याग देते हैं। [X]

इतिहास गवाह है कि 3 साल की बच्ची से लेकर 88 वर्ष की बुजुर्ग महिला तक ने संथारा (Santhara) अपनाया। कुछ परिवार इसे गर्व की परंपरा मानते हैं, तो कुछ लोग इसे कठोर और विवादित बताते हैं। यही वजह है कि आज भी संथारा विवाद (Santhara Controversy) बना हुआ है। क्या यह सच में आस्था का हिस्सा है या फिर जीवन के अधिकार से समझौता? यानी सवाल यही उठता है, की संथारा: आस्था के नाम पर जीवन का त्याग सही है या गलत?

जैन धर्म में संथारा परंपरा क्या है?

संथारा जैन धर्म (Jain Dharma) की एक बेहद अनोखी और गंभीर परंपरा है। इसका अर्थ है, जीवन के अंतिम चरण में स्वेच्छा से भोजन और पानी का त्याग करना और धीरे-धीरे तपस्या के साथ मृत्यु को स्वीकार करना। जैन धर्म मानता है कि शरीर नश्वर है लेकिन आत्मा अमर है, इसलिए मृत्यु से डरने के बजाय उसे एक साधना की तरह अपनाना चाहिए। संथारा का उद्देश्य केवल मृत्यु को बुलाना नहीं, बल्कि आत्मा को शुद्ध करना और मोक्ष की ओर अग्रसर होना होता है।

संथारा अपनाने वाले व्यक्ति को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। सबसे बड़ी मुश्किल होती है धीरे-धीरे खाने-पीने से दूर रहना, जो शरीर को शारीरिक कष्ट देता है। कई बार परिवार और समाज के लोग भावनात्मक रूप से टूट जाते हैं क्योंकि वे अपने प्रियजन को धीरे-धीरे मृत्यु की ओर जाते देखते हैं। इसके अलावा, इस परंपरा को लेकर कानूनी और सामाजिक संथारा विवाद भी खड़ा होता है।आलोचकों का कहना है कि यह आत्महत्या जैसा कदम है, जबकि जैन समुदाय इसे सर्वोच्च तपस्या और आस्था का हिस्सा मानता है। यानी, संथारा परंपरा जैन धर्म में आध्यात्मिक साधना और मृत्यु को गरिमा के साथ स्वीकारने का मार्ग मानी जाती है, लेकिन इसके रास्ते में कठिनाइयाँ और सवाल दोनों मौजूद रहते हैं।

संथारा परंपरा जैन धर्म में आध्यात्मिक साधना और मृत्यु को गरिमा के साथ स्वीकारने का मार्ग मानी जाती है [X]

संथारा को लेकर विवाद और आलोचनाएँ

जैन धर्म की इस प्राचीन परंपरा संथारा को लेकर समय-समय पर बड़ा विवाद खड़ा हुआ है। आलोचना सबसे पहले तब तेज़ हुई जब यह सवाल उठा कि क्या यह आत्महत्या (Suicide) की श्रेणी में आता है या फिर धार्मिक आस्था का हिस्सा है। 2015 में राजस्थान हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में संथारा को आत्महत्या जैसा कदम बताते हुए इसे दंडनीय अपराध घोषित कर दिया था। इस फैसले के बाद जैन समुदाय में भारी आक्रोश फैल गया और देशभर में विरोध-प्रदर्शन हुए।

जैन धर्म की इस प्राचीन परंपरा संथारा को लेकर समय-समय पर बड़ा विवाद खड़ा हुआ है। [X]

आलोचकों का कहना है कि संथारा परंपरा में व्यक्ति को धीरे-धीरे भूखा रखकर मृत्यु की ओर ले जाया जाता है, जो मानवीय संवेदनाओं और आधुनिक कानून दोनों के खिलाफ है। उनका तर्क है कि चाहे आस्था कितनी भी गहरी क्यों न हो, किसी को जीवन त्यागने के लिए प्रेरित करना सही नहीं है। वहीं दूसरी ओर, जैन धर्म के अनुयायी मानते हैं कि संथारा आत्महत्या नहीं बल्कि आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की साधना है। यही वजह है कि आज भी संथारा विवाद जारी है। कुछ लोग इसे आस्था की ऊँचाई मानते हैं तो कुछ जीवन का अनावश्यक त्याग।

तीन साल की बच्ची और संथारा: क्यों उठे सवाल?

संथारा विवाद तब और गहरा हो गया जब एक मासूम बच्ची के मामले ने समाज को झकझोर कर रख दिया। राजस्थान में हुई इस घटना में एक तीन साल की गंभीर रूप से बीमार बच्ची को उसके माता-पिता ने संथारा दिलवाया। बच्ची को लंबे समय से असाध्य बीमारी थी और डॉक्टरों ने उसके बचने की उम्मीद बहुत कम बताई थी। ऐसे में मां-बाप ने यह मानते हुए कि बच्ची का आगे जीवन केवल पीड़ा और कष्ट से भरा होगा, उसे जैन धर्म की परंपरा संथारा दिलाने का निर्णय लिया।

तीन साल की गंभीर रूप से बीमार बच्ची को उसके माता-पिता ने संथारा दिलवाया। [X]

बच्ची को धीरे-धीरे भोजन और पानी से वंचित किया गया, और अंततः उसकी मृत्यु हो गई। इस घटना ने समाज और मीडिया में भारी बहस छेड़ दी। आलोचकों का कहना था कि इतनी छोटी उम्र में कोई बच्चा स्वयं निर्णय नहीं ले सकता, ऐसे में यह कदम उसकी स्वतंत्र इच्छा नहीं बल्कि उसके माता-पिता का निर्णय था। इससे संथारा को लेकर नैतिक और कानूनी सवाल खड़े हुए। समर्थकों का तर्क था कि बच्ची असहनीय दर्द से जूझ रही थी और माता-पिता ने आस्था के आधार पर उसे मोक्ष का मार्ग दिलाया। वहीं विरोधियों ने इसे अमानवीय बताया और कहा कि संथारा परंपरा का पालन बच्चों पर थोपना किसी भी तरह उचित नहीं है। यह घटना इस बात की गवाही है कि संथारा और विवाद सिर्फ धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें गहरी सामाजिक और मानवीय बहस भी शामिल है।

समर्थकों का तर्क था कि बच्ची असहनीय दर्द से जूझ रही थी [X]

88 साल की सायर देवी मोदी और संथारा का निर्णय

संथारा और विवाद का एक बड़ा उदाहरण सायर देवी मोदी का है। राजस्थान की रहने वाली 88 वर्षीय सायर देवी को सर्वाइकल कैंसर का पता चला। डॉक्टरों ने इलाज की सलाह दी, लेकिन उन्होंने इलाज न करवाने का निर्णय लिया। बीमारी का पता चलने के सिर्फ तीन हफ़्ते बाद ही उन्होंने अपने परिवार और समाज के सामने घोषणा की कि वे जैन परंपरा के अनुसार मरणव्रत यानी संथारा अपनाएँगी। सायर देवी मोदी का कहना था कि इस उम्र में अब शरीर इलाज की तकलीफ सहने लायक नहीं है।

संथारा और विवाद का एक बड़ा उदाहरण सायर देवी मोदी का है। [X]

उनका विश्वास था कि मृत्यु को शांति और गरिमा के साथ स्वीकार करना ही बेहतर है। धीरे-धीरे उन्होंने भोजन और पानी त्याग दिया और ध्यान-प्रार्थना में समय बिताने लगीं। कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई। इस घटना ने भी बहस को जन्म दिया। समर्थकों ने इसे साहस और आस्था का कदम बताया, जबकि आलोचकों ने कहा कि यह मौत को जल्द बुलाने जैसा है। यह मामला दिखाता है कि संथारा परंपरा सिर्फ बुजुर्गों के लिए ही नहीं बल्कि समाज में आस्था और विवाद दोनों को जन्म देती है।

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संथारा परंपरा जैन धर्म की आस्था और साधना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसके जरिए मृत्यु को डर या मजबूरी के रूप में नहीं, बल्कि शांति और गरिमा के साथ स्वीकार किया जाता है। लेकिन यही परंपरा समय-समय पर विवादों और आलोचनाओं से घिरी रही है। एक ओर इसे आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का मार्ग माना जाता है, वहीं दूसरी ओर इसे आत्महत्या जैसी प्रथा कहकर कानूनी और सामाजिक सवाल खड़े किए जाते हैं। सच्चाई यही है कि संथारा और विवाद आस्था और संवेदना के बीच संतुलन खोजने का प्रयास है, जो आज भी समाज के लिए एक गहरी बहस बना हुआ है। [Rh/SP]

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