ओशो और हिंदू धर्म
ओशो (Osho) अक्सर कहते थे कि हिंदू धर्म (Hindu Dharma) में ध्यान की अनगिनत विधियाँ और आध्यात्मिक प्रयोग छिपे हैं। उन्होंने इसकी भिन्नता और खुलेपन की प्रशंसा की जहाँ साधक भक्ति, योग या ज्ञान जैसे मार्ग चुन सकते हैं। लेकिन उन्होंने पुजारियों के अधिकार और जाति व्यवस्था की आलोचना भी की। उनके अनुसार हिंदू धर्म की ताकत उसका प्रयोगधर्मी स्वभाव है, जबकि परंपराओं से चिपके रहना उनकी कमज़ोरी है, जो स्वतंत्रता को दबा देता है।
ओशो और बौद्ध धर्म
बुद्ध (Buddha) ओशो (Osho) के प्रिय व्यक्तित्वों में से एक थे। वे बुद्ध की करुणा, मौन और स्पष्टता की तारीफ करते थे। उन्होंने कहा कि ध्यान की खोज मानवता को बुद्ध का सबसे बड़ा उपहार है। लेकिन ओशो ने यह भी कहा कि बौद्ध धर्म बाद में बहुत गंभीर और नीरस हो गया। उन्होंने मज़ाक में कहा कि बौद्ध का पालन करने वाले लोग कभी-कभी आधे मृत जैसे लगते हैं क्योंकि उनके जीवन से हंसी और उत्सव कही खो गए हैं। ओशो का बौद्ध धर्म पर दृष्टिकोण सम्मान और आलोचना दोनों का मिश्रण था।
ओशो और ईसाई धर्म
ओशो (Osho) के ईसाई (Christianity) धर्म पर विचार बेहद साहसिक थे। उन्होंने यीशु की प्रशंसा की, जो प्रेम और साहस से भरे विद्रोही थे और अंधी परंपराओं के खिलाफ खड़े हुए। लेकिन उन्होंने चर्च को चुनौती दी कि उसने जीवित यीशु को रूढ़ियों और रीति-रिवाजों में बदल दिया। पाप, अपराधबोध और नर्क के डर पर उनका जोर, ओशो के अनुसार, मानव स्वतंत्रता को नुकसान पहुँचाता है। उनके अनुसार यीशु जीवित थे लेकिन चर्च ने उन्हें मृत बना दिया।
ओशो और इस्लाम
ओशो के इस्लाम (Islam) पर विचार सबसे ज्यादा विवादित रहे। उन्होंने इस्लाम की सूफी (Sufism) परंपरा की बहुत प्रशंसा की, जिसमें ईश्वर के प्रति प्रेम संगीत, कविता और नृत्य के ज़रिए प्रकट होता है। रूमी (Rumi) जैसे कवि उन्हें गहराई से प्रेरित करते थे। लेकिन उन्होंने इस्लाम की रूढ़िवादिता पर सवाल उठाए। उन्होंने कुरान को बार-बार दोहराने वाला कहा और इस्लामी इतिहास की आलोचना की कि वह तर्क के बजाय अक्सर बल पर आधारित रहा। ओशो ने साफ कहा कि सूफीवाद के बिना इस्लाम आत्मा रहित शरीर है।
ओशो और यहूदी धर्म
ओशो ने यहूदी (Judaism) परंपरा की बुद्धिमत्ता और अनुशासन को स्वीकारा। उन्हें काब्बाला की गहरी परंपरा पसंद थी। जो सूफीवाद की तरह गहराई और काव्यात्मकता से ईश्वर तक पहुँचती है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि यहूदी धर्म दुख और गंभीरता से दबा हुआ है, जिससे जीवन की खुशी सीमित हो जाती है। ओशो का यहूदी धर्म पर विचार सराहना और आलोचना का संतुलन था।
ओशो और सिख धर्म
गुरु नानक (Guru Nanak) की सादगी और काव्यात्मकता ने ओशो को गहराई से छुआ। वे सिख संतों को प्रेम और जीवन से भरा मानते थे। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि समय के साथ सिख धर्म (Sikh) संगठित और राजनीतिक हो गया और अपनी मूल पवित्रता खो बैठा। ओशो का सिख धर्म पर नज़रिया शुरुवात मै सम्मान भरा और बाद मै निराशा पूर्ण दोनों था।
ओशो और जैन धर्म
ओशो ने महावीर (Mahaveer) के साहस और अहिंसा के प्रति निष्ठा की सराहना की। लेकिन उन्होंने जैन (Jain) धर्म की कठोरता और जीवन की खुशियों से दूरी की आलोचना की। उनके अनुसार जैन धर्म में अनुशासन इतना अधिक था कि उसने आनंद को दबा दिया। ओशो का जैन धर्म पर दृष्टिकोण उसकी नैतिक शक्ति की प्रशंसा और उसकी कठोरता की आलोचना दोनों था।
ओशो और ज़ेन, ताओ धर्म
ओशो की सबसे बड़ी प्रशंसा ज़ेन (Zen) और ताओ (Tao) धर्म के लिए थी। उन्होंने इन्हें सरल, स्वाभाविक और खेलपूर्ण माना। ज़ेन की हंसी और मार्ग का प्रकृति के साथ बहना, ये उनके अनुसार यह आध्यात्मिकता को दिखाने का सबसे सीधा और पवित्र रूप था। ओशो का ज़ेन और ताओ धर्म पर नज़रिया केवल प्रेम और उनकी अपनी विचार धारा के साथ मेल था।
क्यों ओशो आज भी याद किए जाते हैं
ओशो (Osho) और धर्मों पर उनका दृष्टिकोण सिर्फ आलोचना या प्रशंसा का विषय नहीं था। यह लोगों को अंधविश्वास से परे जाकर अपने भीतर की सच्चाई खोजने की प्रेरणा थी। उन्होंने हर धर्म से सवाल किए ताकि उसकी असली आत्मा को बचाया जा सके। उनकी बातें आज भी गूंजती हैं क्योंकि उन्होंने याद दिलाया कि अध्यात्म अंधभक्ति नहीं बल्कि स्वतंत्रता, आनंद और आत्म-खोज है।
निष्कर्ष
ओशो की आवाज़ आज भी जीवित है क्योंकि उन्होंने हर धर्म के उजाले और अंधेरे दोनों को छुआ। उन्होंने आध्यात्मिक गहराई की सुंदरता की प्रशंसा की और अंधी परंपरा के खतरे को उजागर किया। उनकी सबसे बड़ी विरासत यही है कि वे योगियों को लेबल से आगे बढ़कर सीधी सच्चाई का अनुभव करने की प्रेरणा देते हैं। यही कारण है कि ओशो और धर्म आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। (Rh/Eth/BA)