केरल में है एक ऐसी परंपरा जहां भक्त तीर्थ यात्रा (Sabarimala Pilgrimage) पर जातें हैं मस्जिद! [Sora Ai] 
धर्म

सबरीमाला जाने से पहले मस्जिद जाते हैं ये हिंदू भक्त! जाने केरल की इस अनोखी परंपरा के बारे में!

केरल (Kerala) में है एक ऐसी परंपरा जहां भक्त तीर्थ यात्रा पर जातें हैं मस्जिद! जी हाँ, यह सुनने में थोड़ा अटपटा जरूर है लेकिन सच्चाई यह है कि यह सदियों पुरानी एक परंपरा है। यह परंपरा केरल की गहरी सांप्रदायिक सद्भावना की मिसाल है।

न्यूज़ग्राम डेस्क

केरल में है एक ऐसी परंपरा जहां भक्त तीर्थ यात्रा (Sabarimala Pilgrimage) पर जातें हैं मस्जिद! जी हाँ, यह सुनने में थोड़ा अटपटा जरूर है लेकिन सच्चाई यह है कि यह सदियों पुरानी एक परंपरा है। यह परंपरा केरल की गहरी सांप्रदायिक सद्भावना की मिसाल है। साढ़े चार दशक से भी अधिक समय से, सबरीमाला की तीर्थयात्रा (Sabarimala Pilgrimage) शुरू करने से पहले भक्त एरुमेली के वावर मस्जिद (Vavar Masjid) में सिर झुकाते हैं। इस अनूठी प्रक्रिया ने न सिर्फ धार्मिक सीमाओं को मिटाया है, बल्कि पूरे भारत में धार्मिक एकता का संदेश फैलाया है। इस परंपरा ने आधुनिक तनाव और कट्टरता के बीच एक चमकता हुआ प्रकाश कायम रखा है। लोग इसे जानकर चौंक जाते हैं, लेकिन फिर पता चलता है कि यह सिर्फ चौंका देने वाला नहीं, बल्कि दिल छू लेने वाला, प्रेरित करने वाला व अनुभव कराने वाली परंपरा है।

यह परंपरा केरल की गहरी सांप्रदायिक सद्भावना की मिसाल है। [Wikimedia Commons]

केरल की एक अनोखी परंपरा

केरल के कोट्टायम जिले में एरुमेली कस्बा, वह स्थान है जहां यह अद्भुत परंपरा प्रचलित है। यात्रा के दौरान पश्चिमी घाट की ओर जाते हुए भक्त एरुमेली में वावर मस्जिद (Vavar Masjid) पर पहुंचते हैं, जिसे अय्यप्पा के मुस्लिम साथी वावार को समर्पित किया गया है। इस मस्जिद को स्थानीय लोग “वावराम्बलम” (“Vavarambalam”) भी कहते हैं, जो सद्भाव और धार्मिक समन्वय का प्रतीक माना जाता है।

माँदलों-मकरमिलकु उत्सव के दौरान (नवंबर से जनवरी तक), लाखों भक्त यहां आते हैं और सिर झुका कर प्रणाम करते हैं। [Wikimedia Commons]

माँदलों-मकरमिलकु उत्सव के दौरान (नवंबर से जनवरी तक), लाखों भक्त यहां आते हैं और सिर झुका कर प्रणाम करते हैं। इस पूरी परंपरा के दौरान मस्जिद को खाली नहीं किया जाता बल्कि मुस्लिम भाई अपने नमाज की प्रक्रिया को भी पूर्ण करते हैं यानी मस्जिद में हिंदू और मुस्लिम दोनों एक साथ ही मौजूद रहते हैं।

यह परंपरा क्या है और इसमें क्या होता है

तीर्थयात्रा (Sabarimala Pilgrimage) का आरंभ वावर मस्जिद (Vavar Masjid) में श्रद्धा पूर्ण रूप से होता है, जहाँ भक्त काले वस्त्र पहनकर, भस्म लगाकर, और मणिमाला धारण करके मस्जिद के बाहर परिक्रमा करते हैं और वो भी बिना मस्जिद के मुख्य प्रार्थना हॉल में प्रवेश किए। हाथ में नारियल लेकर दान चढ़ाना, मस्जिद के चारों ओर चारों चक्कर लगाना, और मस्जिद के परिसर में नारियल तोड़कर भीड़ के बीच अपनी व्रत संकल्प की शुरुआत करना इस परंपरा की अनिवार्य क्रिया है।

तीर्थयात्रा का आरंभ वावर मस्जिद (Vavar Masjid) में श्रद्धा पूर्ण रूप से होता है [Wikimedia Commons]

इस दौरान मस्जिद की व्यवस्थाएँ भक्तों को आराम, पानी और व्रत के लिए “इरुमुदि” रखने की सुविधा प्रदान करती हैं। इस परंपरा के अनुष्ठान में पीपल, मिर्च, गंध, नारियल, काला/हरा मिर्च, आदि चीज़ें अर्पित की जाती हैं; काला मिर्च को विशेष रूप से समृद्धि और यात्रा की सफलता का प्रतीक माना जाता है। इसके बाद श्रद्धालु पेट्टाथुल्लाल नामक रंगीन उत्सव-नृत्य में भाग लेते हैं, जो वावर मस्जिद से प्रारंभ होकर करीब मंदिर तक जाता है। यह नृत्य महिषी वध के उपलक्ष्य में होता है, जिसमें भक्त रंग-बिरंगे होते हैं, मंत्रों के साथ नाचते हैं, और सामूहिक उत्साह दिखाते है। इसके पश्चात् वे सबरीमाला की तीर्थयात्रा के दूसरे चरण के लिए प्रस्थान करते हैं, पापा नदी में स्नान, १८ पवित्र सीढ़ियों का आरोहण, और अंततः मंदिर की गहन अनुभूति का भाग बनते हैं।

श्रद्धालु पेट्टाथुल्लाल नामक रंगीन उत्सव-नृत्य में भाग लेते हैं [Wikimedia Commons]

क्यों है केरल में ऐसी अनोखी परंपरा?

इस परंपरा की आस्था के जड़ है भगवान अय्यप्पा (Lord Ayyappa) और वावर सूअ्मी की दिव्य मित्रता की कथा। वावर, एक मुस्लिम योद्धा, महिषा वध में अय्यप्पा के खिलाफ थे, लेकिन पराजित होने के बाद उन्होंने अय्यप्पा (Lord Ayyappa) को अपना भगवान मान लिया। इस मित्रता ने दिखाया कि धर्म से ऊपर सम्मान, आदान-प्रदान और मित्रता का मौलिक स्थान है।

इस परंपरा की आस्था के जड़ है भगवान अय्यप्पा [Wikimedia Commons]

भक्त मानते हैं कि वावर की पूजा से यात्रा सुरक्षित रहती है, कष्टों से मुक्ति मिलती है तथा धर्म, जाति या मज़हब की बाधाओं को पार करने की प्रेरणा भी मिलती है। यह संदेश कि सच्चा आस्था अन्य धर्मों की इज्जत से टकराव की जगह संगति बना सकती है, आज की दुनिया के लिए बेहद प्रेरणादायक है।

इस परंपरा से जुड़ी मान्यताएं और स्थानीय विश्वास

स्थानीय लोग और भक्त इस परंपरा को समुदायों का सांस्कृतिक ताना-बाना मानते हैं। वावर मस्जिद में की गई श्रद्धांजलियाँ, जैसे काली मिर्च चढ़ाना, नारियल तोड़ना, दान देना, ये सब इस मान्यता से जुड़े हैं कि वावर और अय्यप्पा की मित्रता यात्रा को पवित्रता और सफलता प्रदान करती है।

कुछ भक्तों को तो ऐसा विश्वास है कि वावर की कृपा से यात्रा के दौरान आने वाली कठिनाइयाँ कट जाती हैं [Wikimedia Commons]

कुछ भक्तों को तो ऐसा विश्वास है कि वावर की कृपा से यात्रा के दौरान आने वाली कठिनाइयाँ कट जाती हैं और इच्छा पूरी होती है। इसके अलावा, यह परंपरा विभिन्न समुदायों की सामूहिक मेहनत और आतिथ्य भावना का प्रतीक भी है, जाहां मस्जिद प्रशासन, स्थानीय हिन्दू प्रशासन और समुदाय मिलकर यात्रा व्यवस्था, भोजन, विश्राम स्थान आदि की व्यवस्था करते हैं और आपसी प्रेम व सहयोग को कायम रखते हैं।

अनुष्ठान संपूर्ण विवरण


रोहना, पांडलम से आया एक भक्त, अपनी 41‑दिन की मंडल‑व्रत की अवधि पूरी करके एरुमेली पहुंचता है। काला वस्त्र, मणिमाला पहनकर भस्म चढ़ाने के बाद सबसे पहले वह वावर मस्जिद पहुंचता है। वहां भक्त परिक्रमा करते हुए, नारियल तोड़ते हुए, और कनिका चढ़ाते हुए, वावर की आस्था समर्पित करता है। यह परंपरा इस कदर पवित्र है कि मस्जिद की ओर से विश्राम की व्यवस्था, पानी और भक्तों के लिए “विवरु” रखने के लिए स्थान तक मुफ़्त में उपलब्ध कराया जाता है। भक्त काले/हरे मिर्च, गंध, नारियल, इत्यादि अर्पित करते हुए वावर की वंदना करते हैं।

पेट्टाथुल्लाल उत्सव आयोजित होता है। [Wikimedia Commons]

इसके बाद पेट्टाथुल्लाल उत्सव आयोजित होता है। यह एक रंगबिरंगी और सामूहिक नृत्य है जिसमें भक्त शारीरिक रूप से सज-धज कर, हाथ में धनुष-बाण लेकर और शरीर पर रंग लगाए जाते हैं। यह उत्सव वावर मस्जिद से शुरू होता है और पास के मंदिरों की ओर बढ़ते हुए भक्तों की ऊर्जा का प्रतीक बनता है। इस प्रक्रिया में मंत्रों के साथ ‘अय्यप्पा‑थिन‑ठाकठोम’ गान होता है, जो सामूहिक शक्ति और जीवन-दर्शन का प्रतीक होती है।

उसके पश्चात् भक्त पांबा नदी के तट पर स्नान करता है, फिर १८ पवित्र सीढ़ियाँ (Pathinettampadi) चढ़कर Sannidhanam (मंदिर का मुख्य स्थान) पहुंचता है। वहां नेय्याभिषेकम् किया जाता है। जिसमें भक्त द्वारा लाये गए घी से अय्यप्पा मूर्ति का अभिषेक होता है यह शरीर और आत्मा के मिलन का प्रतीक है। मंदिर दर्शन के बाद कई भक्त आर्थुन्कल सेंट एंड्रयू बेसिलिका भी जाते हैं, जहाँ वे अपनी मणिमाला उतारते हैं, बैर से स्नान करते हैं और यात्रा की समाप्ति का भावनात्मक अनुभव साझा करते हैं। यह यात्रा का समापन है, जो पहले मस्जिद से शुरू हुआ था, उस पर धर्मों से परे एकता की मिसाल छोड़ता हुआ समाप्त होता है।

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यह परंपरा दर्शाती है कि धार्मिक सीमाएं भले अलग हों, लेकिन विश्वास और आदर की एक साझा भाषा हो सकती है। वावर की पूजा के साथ सबरीमाला यात्रा की शुरुआत और आर्थुन्कल बेसिलिका में समापन यह एक चक्र है जो आस्था, सद्भावना और एकता की कहानी कहता है। आज के विभाजित युग में यह उदाहरण हमें सिखाता है, कि वास्तव में धर्म से ऊपर प्रेम और मानवता होती है। [Rh/SP]

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