भारतीय सभ्यता की जड़ों में धर्म, संस्कृति और परंपराओं की एक लंबी श्रृंखला छिपी है। इन्हीं परंपराओं में एक नाम बार-बार चर्चा में आता है, "मनुस्मृति"(Manusmriti)। इसे हिंदू धर्म (Hindu Dharma) की सबसे प्राचीन और विवादास्पद ग्रंथों (Controversial Texts) में से एक माना जाता है। कहा जाता है कि इसे 'मनु' नामक ऋषि ने रचा था, जो मानव जाति के आदि पुरुष माने जाते हैं। इस ग्रंथ में समाज, धर्म, स्त्री-पुरुष के कर्तव्य, जाति व्यवस्था, विवाह, दंड और जीवन जीने के नियमों की व्याख्या की गई है। हालांकि, जहां कुछ लोग मनुस्मृति को समाज के नैतिक नियमों का आदर्श मानते हैं, वहीं कई लोग इसे भेदभाव और असमानता का प्रतीक भी मानते हैं। विशेषकर इसमें स्त्रियों, शूद्रों और निम्न जातियों के लिए लिखे गए नियमों पर आज भी सवाल खड़े होते हैं।
मनुस्मृति क्या है?
मनुस्मृति (Manusmriti) हिंदू धर्म की सबसे पुरानी और चर्चित धर्मशास्त्रों में से एक मानी जाती है। इसे संस्कृत में 'मनु स्मृति' या 'मनव धर्मशास्त्र' ('Manu Smriti' or 'Manav Dharmashastra') भी कहा जाता है। ऐसा विश्वास है कि इस ग्रंथ की रचना ऋषि मनु ने की थी, जिन्हें हिंदू धर्म में पहले मानव और कानून निर्माता माना गया है। इस ग्रंथ में जीवन के हर पहलू से जुड़े नियमों और सिद्धांतों की बात की गई है, जैसे कि धर्म, आचरण, न्याय, दंड, विवाह, जाति व्यवस्था और स्त्री-पुरुष के सामाजिक कर्तव्य। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय और 2,685 श्लोक हैं।
यह ग्रंथ न केवल धार्मिक आस्था (Religious Belief) से जुड़ा है, बल्कि प्राचीन भारतीय समाज की संरचना को दिशा देने वाला दस्तावेज भी माना जाता है। यह किसी संविधान जैसा ही था, जो राजा से लेकर आम नागरिकों तक के आचरण को तय करता था। हालांकि, इस ग्रंथ की कई बातें आज के लोकतांत्रिक और समानता आधारित समाज के मूल्यों से मेल नहीं खातीं। इसी वजह से समय-समय पर इसकी आलोचना होती रही है।
मनुस्मृति के विवादास्पद हिस्से और कारण
मनुस्मृति (Manusmriti) को लेकर सबसे अधिक विवाद इसके जातिवादी और स्त्रीविरोधी (Racist and Misogynist) विचारों को लेकर होता है। इस ग्रंथ में वर्ण व्यवस्था को कठोर रूप में पेश किया गया है, जिसमें ब्राह्मणों को सर्वोच्च, और शूद्रों को सबसे नीच स्थान पर रखा गया है। इसमें यह तक लिखा है कि शूद्रों का काम केवल ऊँची जातियों की सेवा करना है और वे वेद पढ़ने या धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने के अधिकारी नहीं हैं। इसके अलावा, महिलाओं को लेकर भी कई असमानतापूर्ण विचार मनुस्मृति (Manusmriti) में मिलते हैं। जैसे
"स्त्री कभी स्वतंत्र नहीं हो सकती। वह बचपन में पिता के अधीन, युवावस्था में पति के अधीन और वृद्धावस्था में पुत्र के अधीन रहती है।"मनुस्मृति
इन जैसे कथनों से यह ग्रंथ पुरुष प्रधान मानसिकता को बढ़ावा देता दिखता है। यही कारण है कि समाज सुधारकों और दलित आंदोलनों के नेताओं ने इसे अक्सर आलोचना का विषय बनाया है। डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) ने तो इसे जलाकर नष्ट करने तक की बात की थी। उनका मानना था कि यह ग्रंथ सामाजिक समानता और न्याय के विरुद्ध है। आज के समय में जब समाज समता और अधिकारों की बात करता है, तो ऐसे ग्रंथों की प्रासंगिकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
डॉ. अंबेडकर और मनुस्मृति का विरोध
डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) ने भारतीय समाज में जातिवाद, भेदभाव और छुआछूत के खिलाफ आजीवन संघर्ष किया। उनका मानना था कि इन कुरीतियों की जड़ें गहराई से धार्मिक ग्रंथों, खासकर मनुस्मृति में छिपी हैं। अंबेडकर ने मनुस्मृति को एक ऐसा ग्रंथ बताया, जिसने निम्न जातियों और स्त्रियों को नीचा दिखाने का काम किया और समाज को समानता की ओर बढ़ने से रोका।
25 दिसंबर 1927 को महाराष्ट्र के महाड़ में, अंबेडकर ने अपने हजारों अनुयायियों के साथ ‘मनुस्मृति दहन दिवस’ (‘Manusmriti Burning Day’) मनाया। इस दिन उन्होंने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति की प्रतियां जलाईं और इस ग्रंथ का विरोध किया। उनके लिए यह केवल प्रतीकात्मक विरोध नहीं था, बल्कि ब्राह्मणवादी सोच के खिलाफ एक क्रांति की शुरुआत थी। डॉ. अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) मानते थे कि जब तक ऐसे ग्रंथ समाज में प्रभावी रहेंगे, तब तक समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व केवल शब्द भर रह जाएंगे। उन्होंने नए भारत की नींव संविधान पर रखने का संकल्प लिया, जहां हर नागरिक को बराबरी का अधिकार मिले।
मनुस्मृति भारतीय इतिहास और संस्कृति का एक अहम हिस्सा जरूर है, लेकिन यह भी सच है कि इसके कई नियम और विचार आज के समय के समानता, स्वतंत्रता और मानवाधिकार जैसे मूल्यों से मेल नहीं खाते। यह ग्रंथ एक ऐसे युग में लिखा गया था, जब समाज की संरचना, सोच और जीवनशैली आज से बिल्कुल अलग थी। इसलिए इसमें वर्ण व्यवस्था और स्त्रियों को लेकर जो कठोर और असमान नियम दिए गए, वे वर्तमान लोकतांत्रिक और आधुनिक समाज के लिए स्वीकार्य नहीं हैं।
डॉ. भीमराव अंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) जैसे महान नेताओं ने मनुस्मृति का विरोध केवल इसलिए नहीं किया कि यह एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि इसलिए कि इसके कुछ विचार समाज में भेदभाव और अन्याय को बनाए रखते थे। उनका मानना था कि एक ऐसा समाज ही प्रगतिशील हो सकता है, जिसमें हर व्यक्ति को समान अधिकार और सम्मान मिले।
आज जरूरत इस बात की है कि हम इतिहास और परंपरा को सम्मान देते हुए, उन हिस्सों को न अपनाएं जो इंसानियत, बराबरी और न्याय के खिलाफ हैं। आखिरकार, सभ्यता तभी आगे बढ़ती है जब वह अपने अतीत से सीखकर, भविष्य के लिए बेहतर रास्ता चुनती है। [Rh/SP]