इतिहास की परतों में छिपी पहचान
दिल्ली के प्रतिष्ठित कल्चरल रिवाइवलिस्ट और पब्लिक हिस्टोरियन अबू सुफियान के अनुसार, मुनिरका बावली का निर्माण लोधी युग (15वीं सदी) के आसपास हुआ था। उनका कहना है कि दिल्ली में मौजूद कई प्राचीन बावलियों में यह संभवतः सबसे छोटी बावली है, लेकिन इसका महत्व किसी भी बड़े स्मारक से कम नहीं है।
मुनिरका नाम की उत्पत्ति पर भी रोशनी डालते हुए वे बताते हैं कि प्राचीन काल में यह क्षेत्र 'मुनिरका' के नाम से जाना जाता था और इस नाम से ही इस बावली की पहचान बनी I
जल संरक्षण की अनमोल मिसाल
इतिहासकार बताते हैं कि बावलियों का निर्माण पुराने समय में खासतौर पर मैदानी इलाकों में पानी के भंडारण और संरक्षण के लिए किया जाता था। दिल्ली, जो अधिकांशतः शुष्क और गर्म जलवायु वाला इलाका है, वहां वर्षा जल को संचित करने के लिए इन बावलियों की अत्यंत आवश्यकता थी।
मुनिरका बावली उसी प्रणाली का हिस्सा थी, जहां लोग पीने, स्नान, सिंचाई और धार्मिक अनुष्ठानों के लिए पानी का उपयोग करते थे। इन बावलियों की बनावट इस तरह की जाती थी कि पानी गर्मी में भी ठंडा बना रहे और लंबे समय तक टिके।
यदि आप मुनिरका बावली को देखना चाहते हैं तो यह स्थान दिल्लीवासियों के लिए बेहद सुलभ है।
कैसे पहुंचे:
आपको ओलोफ पाल्मे मार्ग से होकर विवेकानंद मार्ग लेना होगा और फिर आर.के.पुरम सेक्टर-5 में प्रवेश करना होगा।
एक पार्क सबसे पहले दिखाई देगा — वजीरपुर गुंबद पार्क।
इसी पार्क के दूसरी तरफ बावली स्थित है।
एक छोटा गेट, जो एक गुरुद्वारे के पास है, इस परिसर का मुख्य प्रवेश द्वार है। हालांकि, गेट अक्सर आधा बंद रहता है और वहां कोई स्थायी सुरक्षा या परिचारक नहीं होता, इसलिए सतर्कता जरूरी है।
प्रवेश का समय
समय: सुबह 5:00 बजे से रात 8:00 बजे तक
प्रवेश शुल्क: निःशुल्क (Free Entry)
किसी भी दिन आम नागरिक इस ऐतिहासिक स्थल का दर्शन कर सकते हैं।
संरक्षण की आवश्यकता
इतिहासकार और स्थानीय निवासी इस बात को लेकर चिंतित हैं कि इतनी महत्वपूर्ण धरोहर सरकारी उपेक्षा का शिकार है। इस स्थल की सफाई, सुरक्षा और प्रचार-प्रसार की आवश्यकता है ताकि अधिक से अधिक लोग यहां आएं और इसका ऐतिहासिक मूल्य समझ सकें।
निष्कर्ष:
मुनिरका बावली केवल एक जलाशय नहीं, बल्कि दिल्ली की ऐतिहासिक पहचान का जीवित प्रमाण है। यह हमें न केवल अतीत की जल प्रबंधन प्रणाली सिखाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सदियों पहले भी लोग प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को कितना महत्व देते थे। ऐसे गुमनाम लेकिन महत्वपूर्ण स्थल आज हमारी विरासत हैं, जिन्हें पहचान दिलाना और संरक्षित करना हम सबकी जिम्मेदारी है।