तमिलनाडु में कई बार ऐसी दीवारें बनीं जिसे कह सकते है कि यह सामाजिक भेदभाव और छुआछूत का प्रतीक है,इन्हें अक्सर ‘कास्ट वॉल’, ‘अछूतता की दीवार’ या ‘वॉल ऑफ शेम’ ('Wall of Untouchability' or 'Wall of Shame) कहा जाता है। ऐसी ही सबसे प्रसिद्ध दीवारों में उथापुरम का कास्ट वॉल शामिल है, जो ऊँचाई और लंबाई दोनों में शहर-गांव की दीवारों से अलग था और जिसने दशकों तक दलित लोगों की आवाजाही और पूजा-अधिकारों पर असर डाला। इन दीवारों के बारे में जानना इसलिए जरूरी है क्योकि यह सिर्फ ईंट-पत्थर नहीं, बल्कि यह सामाजिक ऊँचाई-नीचाई और असमानता को भी दिखाता हैं।
कैसे हुई इसकी शुरुआत ?
देखा जाए तो ऐसी दीवारें बहुत सी जगहों पर 1980 और 1990 के दशक के संघर्षों के बाद बननी शुरू हो गयी थी। उदाहरण के लिए बता दें कि उथापुरम में 1989 के बाद मंदिर-प्रवेश व सड़क उपयोग को लेकर संघर्ष हुआ,ऐसा होने के बाद कुछ समुदायों ने मुख्य सड़क से दलितों के रास्ते काटने के लिये दीवार बनाना भी शुरू कर दिए। बाद में ऐसी दीवारें केवल एक गाँव तक सीमित नहीं रहीं बल्कि समय-समय पर तमिलनाडु (Tamil Nadu) के अलग-अलग जिलों में ऐसी घटनाएँ सामने आईं जहाँ किसी समुदाय ने जमीन पर कब्जा कर या सार्वजनिक रास्ता रोकने के लिये ईंटों की दीवारें खड़ी कर दीं।
क्यों बनायीं गई ये दीवार ?
दीवारें बनाने के कई बहाने सामने आये है, कुछ बढ़े हुए जातीय तनाव, पुरानी शत्रुता, भूमि-झगड़े और मंदिर या सार्वजनिक जगहों पर अधिकार के विवाद। वहां रहने वाले ऊपरी जाति के कुछ सदस्यों ने कहा कि दीवारों का मकसद “बाहरी लोगों” को रोकना या शराब पीकर उत्पात मचाने वालों पर रोक लगाना था। वहीं दलित समुदाय और मानवाधिकार कार्यकर्ता कहते हैं कि वास्तविक मकसद दलितों की आवाजाही, पूजा और सार्वजनिक सुविधाओं से दूरी बनाकर रखना था।
किसके द्वारा बनी यह दीवार ?
बेशक यह दीवारें स्थानीय प्रभावशाली जाति-समुदायों (Caste Communities) या ऊपरी जाति के समूहों द्वारा ही बनवाई गईं होंगी। अगर बात उथापुरम के मामले की करे तो वहां इस गांव के प्रभावशाली समूहों ने खड़ा किया था। हाल के सालों में करूर के मुथुलादम्पत्ति (Muthuladampatti) जैसे स्थानों पर भी वहां के स्थानीय समूहों पर आरोप लगा कि उन्होंने सरेआम सरकार की जमीन या सार्वजनिक भूमि पर दीवार बनाकर आस-पास के दलित समुदायों की आवाजाही रोक दी है। इन मामलों में कभी-कभी स्थानीय नेताओं और प्रशासन के भी दखल देने के सवाल सामने आए है।
क्या रहें इसके प्रभाव ?
इन दीवारों का सबसे बड़ा असर लोगो के जीवन-यापन और गरिमा पर पड़ा। इसके कारण वहां के रहने वाले लोगो को बहुत सी परेशानयो का सामना करना पड़ा। लोगो को अपने घर से मुख्य सड़क तक पहुँचने में कई दिक्कत आयी, बच्चों के स्कूल और मरीजों के अस्पताल जाने के रास्ते लम्बे हो गए, और धार्मिक स्थल-पारंपरिक रीति-रिवाजों (Customs and Traditions) में भागीदारी पर रोक लगने लगी। विरोध की घटनाओं और दीवार तोड़ने के प्रयासों के दौरान 2008 में उथापुरम के आसपास बड़े संघर्ष और हिंसा भी हुई,कुछ जगहों पर घरों पर हमले हुए, प्रदर्शन हुए, और पुलिस-कानून लागू करने की भी स्थितियाँ बनीं।
विरोध और कार्रवाई
इन घटनाओं के बाद तमिलनाडु में कई सामाजिक संगठन और राजनीतिक दल इसे रोकने के लिए सामने आए। तमिलनाडु अस्पृश्यता उन्मूलन मोर्चा (Tamil Nadu Untouchability Eradication Front) जैसे समूहों ने लंबे समय से इन दीवारों के खिलाफ अभियान चलाया, शिकायतें दर्ज करवाईं और सरकार से हस्तक्षेप की माँग भी किया। इसके बाद कुछ मामलों में प्रशासन ने हस्तक्षेप भी किया, हिस्सों को तोड़ा गया और सरकारी भूमि पर खड़ी की गयी दीवारों को हटाने के लिए नोटिस जारी किए गए। हाल के वर्षों में भी यह मुद्दा बना रहा, इस बार भी कुछ जगहों पर प्रशासन ने दीवार गिरवाई, और कहीं-कहीं स्थानीय समझौते भी किए गए।
क्या है वर्त्तमान की स्थिति ?
वर्त्तमान की स्थिति पर अगर गौर करे तो हाल के वर्षों में भी नए-नए किस्से सामने आते रहे है। जहाँ समुदायों ने पुनः दीवारें खड़ी कीं, फिर प्रशासन और अदालतें हस्तक्षेप करती रहीं। उदाहरण के लिए 2025 में करूर जिले के मुथुलादम्पत्ति में लगभग 200 फुट लंबी और करीब 10 फुट ऊँची दीवार के मामले ने सुर्खियाँ बटोरीं थी।
क्या कहता है भारतीय कानून ?
ये तो हम सब जानते है कि भारत का संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है। अनुच्छेद 14 (Article-14) कहता है कि सभी लोग कानून की नजर में समान हैं और किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता। अनुच्छेद 15 और 17 विशेष रूप से छुआछूत और जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध लगता हैं। और अनुच्छेद 17 स्पष्ट शब्दों में कहता है कि “अछूतपन समाप्त किया जाएगा और इसका किसी भी रूप में पालन करना अपराध माना जाएगा।” इसके साथ ही अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजातिअधिनियम, 1989 (SC/ST Act) के तहत यदि किसी समुदाय को जानबूझकर सामाजिक, धार्मिक या आर्थिक रूप से अलग-थलग करने की कोशिश की जाती है, तो यह दंडनीय अपराध है। इस कानून के अनुसार किसी भी सार्वजनिक रास्ते, कुएँ, तालाब या मंदिर तक लोगो के पहुंच को रोकना कानूनी रूप से गलत है। इसी तरह स्थानीय प्रशासन को अधिकार है कि वह ऐसी दीवारें, जो सार्वजनिक भूमि पर भेदभाव के लिए बनाई गई हों उसे हटाए और दोषियों पर कार्रवाई करे। अगर हम इस दृष्टि से देखे तो तमिलनाडु की “अछूतता की दीवार” न केवल नैतिक रूप से गलत है बल्कि संवैधानिक मूल्यों और कानूनी प्रावधानों का सीधा उल्लंघन भी करती है।
निष्कर्ष
तमिलनाडु की ये ‘अछूतता की दिवार’ (Wall of Untouchables) सिर्फ ईंट-पत्थर की नहीं बल्कि यह समाज में जमी हुई पुरानी धाराओं का भौतिक रूप हैं। इतिहास बताता है कि इन्हें बनाना और हटाना दोनों ही संघर्षों से जुड़ा रहा है। समाज के कुछ हिस्से इन्हें साबित करने की कोशिश करते रहे है कि ‘सुरक्षा’ या ‘आन्यायपूर्ण उपयोग’ इसके कारण हैं, जबकि प्रभावित समुदाय और अधिकारवादी कहते हैं कि यह साफ-साफ भेदभाव है। हाल ही के प्रशासनिक कदम कुछ दीवारें गिरा चुके हैं, पर समस्या की जड़। समांतर आर्थिक असमानता, जमीन पर कब्जे, और सामाजिक भ्रांतियाँ वैसी ही बनी हैं। इसलिए केवल दीवारें गिरा देने से काम पूरा नहीं होगा। न्यायपूर्ण भूमि नीति, शिक्षा, सामाजिक न्याय की सक्रिय पहल और स्थानीय स्तर पर सामुदायिक संवाद आवश्यक है ताकि भविष्य में ऐसे विभाजन दोबारा न खड़े हों। तमिलनाडु का अनुभव बताता है कि जब प्रशासन, सामाजिक संगठन और स्थानीय लोग मिलकर काम करते हैं तो दीवारें टूटती हैं, पर असली मुक़ाबला तब होगा जब मन में बनी दीवारें भी टूट जाए।
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