असम के आजादी की कहानी, महान यौद्धा लचित बोरफुकन

महान योद्धा एवं अहोम साम्राज्य के सेनापति लचित बरफूकन की प्रतिमा। (Wikimedia Media)
महान योद्धा एवं अहोम साम्राज्य के सेनापति लचित बरफूकन की प्रतिमा। (Wikimedia Media)

भारत में कई वीर योद्धाओं का जन्म हुआ, जो अपनी मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर करने से भी नहीं घबराए। ऐसे ही एक महान योद्धा थे लचित बोरफुकन। जिनकी कहानी और शौर्य कई सालों तक भारतीय इतिहास के पन्नों से गायब रहा और अभी भी उनके विषय में इक्का-दुक्का किताबों में ही लिखा गया है।

24 नवम्बर 1622 में जन्मे लचित बोरफुकन अहोम साम्राज्य के सेनापति थे जिन्होंने इतिहास के सबसे सफल युद्धों में से एक सराई घाटी की लड़ाई का नेतृत्व किया था। लचित अपने युद्ध-कौशल, नेतृत्व और नीति के लिए विश्व भर में प्रख्यात थे। असम के पूर्व राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल श्रीनिवास कुमार सिन्हा ने अपनी किताब में लचित के शौर्य की तुलना मराठाओं के पराक्रमी राजा एवं योद्धा शिवाजी से कर दी। दोनों योद्धाओं को मध्यकालीन भारत का महान सैन्य नेता बताया गया।

गोरिल्ला युद्ध-नीति

अहोम सेना को मनोबल शायद शिवाजी और राणा प्रताप के साहस को देखकर ही आया होगा, जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए मुगलों से युद्ध किया। अहोम की सेना मुगलों के सामने भले ही संख्या में कम थी किन्तु आत्मविश्वास और शौर्य में लाखों के बराबर थे। लचित की रणनीति हर समय अहोम को जीत दिलाने में सफल रहती थी।

अहोम सेना मुगलों की विशाल सेना से सीधे युद्ध करने की स्थिति में नहीं थी। मगर लचित ने गोरिल्ला युद्ध करने का फैसला किया और वह भी तब जब मुगलों की सेना रात को आराम करती थी। अहोम सैनिक रात में जिस रौद्र रूप के साथ मुगलों पर टूटते थे जैसा लगता था कि अहोम सैनिकों पर कोई साया सवार है और मुगलों ने यह मान भी लिया था अहोम सैनिक राक्षस हैं। राज्य को बचाने के लिए अगर भी राक्षस बनना पड़े तो वह पीछे नहीं हटते थे। इस रात के हमले से थक कर जब मुग़ल सेनापति ने लचित से रात को हमला न करने के लिए आग्रह किया, तब लचित ने जो जवाब दिया था वह आज याद रखी जाती है। जवाब था कि 'शेर हमेशा रात में ही हमला करते हैं।'

लचित पर हुआ था अहोम राजा को शक

जब औरंगज़ेब ने 70 हज़ार सैनिकों को असम पर हमला करने के लिए भेजा था तब लचित ने गुरिल्ला युद्धनीति के बलबूते पर उन सभी को खामख्या मंदिर के पास ही रोक दिया था। जिस से तंग आकर मुग़ल सेनापति राम सिंह ने एक चाल चली। उसने राजा को एक पत्र लिखा जिसमे कहा गया कि 'लचित ने गुवाहाटी खाली करने के लिए एक लाख रुपये लिए हैं।' और लचित को न पसंद करने वाले सैन्य अधिकारीयों को घूस देकर सेना में फूट डालने को कहा। राजा का लचित पर शक गहरा गया। इधर राम सिंह ने युद्ध का आह्वाहन कर दिया और इधर शक और जल्दबाज़ी में राजा ने भी युद्ध की घोषणा कर दी। किन्तु लचित, सीधे युद्ध के पक्ष में नहीं थे और इसका परिणाम अहोम सेना को भुगतना पड़ा। युद्ध में 10 हज़ार से ज़्यादा अहोम सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गए।

किन्तु, लचित ने हार नहीं मानी और बीमार होने के बावजूद भी मैदान में उतर गए और उनके इसी सहस को देखते हुए जो सैनिक पीछे हट रहे थे वह भी वापस युद्धभूमि में लौट आए। जिसके बाद लचित और उनकी सेना ने छोटी नावों से मुगलों की विशालकाय नावों पर हमला कर दिया। जिसमे मुग़ल सेना के कप्तान मुन्नावर ख़ान अहोम सेना द्वारा मारा गया। इसके बाद मुगलों में भगदड़ मच गई और अंत में राम सिंह को अपनी सेना के साथ पीछे हटना पड़ा। सराइघाट के इस ऐतिहासिक युद्ध के बाद मुग़लों ने फिर कभी असम की तरफ नहीं देखा।

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