Transparency: पारदर्शिता

Transparency: पारदर्शिता
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'अविरल पांडेय'

By: अविरल पाण्डेय

कई महानुभाव गाहे-बगाहे मुझसे प्रश्न करते हैं कि भला अरविंद केजरीवाल से मेरी इस नापसंदगी का कारण क्या
है? चूँकि इस प्रश्न का उत्तर बहुत लंबा है और इसे मात्र कुछ पंक्तियों में समेटना कदापि संभव नहीं, अतः अवसर आने पर इस प्रश्नजाल में उलझने से मैं सदैव बचता था।
परंतु मुझे लगता है कि अब मुझे इस प्रश्न का उत्तर मिल गया है और वह भी मात्र दो शब्दों का, उत्तर है- Transparency: Pardarshita भले ही यह औरों के लिए यह एक वेबसीरीज की परिपाटी पर खरी उतरने वाली कोई वस्तु हो, परंतु मेरे लिए यह एक ऐसा उत्तर है जिसकी प्रतीक्षा में मैं वर्षों से था इसके लिए Dr. Munish Raizada जी का कोटि-कोटि आभार, जिन्होंने इस प्रकार के विभिन्न भावों को संचित कर, इन्हें इन 2 शब्दों के पीछे लाकर खड़ा कर दिया। ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार कभी राष्ट्र के हेतु सकारात्मक विचार रखने वाले जन कभी एक नेता के पीछे आकर खड़े हुए थे।
वस्तुतः इसके अवलोकन के पश्चात ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरा अपना कष्ट कोई बहुत विशाल नहीं है। क्योंकि मैने तो
मात्र अपना मन खोया है। जबकि Dr.Raizada जैसे हज़ारों कार्यकर्ताओं ने अपना तन, मन और धन तीनों खोया है।

ट्रांसपेरेंसी: पारदर्शिता।

मेरे मित्र कई बार अरविंद केजरीवाल का बचाव करते हुए कहते हैं कि यह भी तो देखो की उन्होंने विद्यालय और
चिकित्सालय को लेकर कितना उत्तम कार्य किया है। इसके उत्तर में मैं मात्र इतना ही कहता हूँ- अवश्य किया होगा और उसके लिए वह साधुवाद के पात्र हैं। परंतु वह जिस दायित्व के लिए चुने गए थे, वह इससे कहीं वृहत था।

उन्हें उस कार्य के लिए लाया गया था, जो 65 वर्षों में भाजपा और कांग्रेस नहीं कर पायी थी। वही कार्य जिसके
लिए जब वह रामलीला मैदान में बैठे थे, तब हम अपने विद्यालय के समय को धता बताते हुए, अपने शहर में चल रहे आन्दोलन में भाग लेने पहुँच जाते थे। इस बात के विश्वास के साथ की हमारे आगे खड़े लोग हमारा भाग्य बदलेंगे। घर और आस-पड़ोस में पड़ने वाले विभिन्न प्रकार के तानों और उलाहनों को इस विश्वास के साथ भीतर उतार लेते थे कि अवश्य ही एक दिन इन सभी की शंकाएं निर्मूल और हमारा संकल्प विजयी होगा।

एक वह समय था और एक आज का समय है। हम कहाँ खड़े हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है। सरल बात यह है कि उस काल में इस आन्दोलन का ध्वज उठाने वाले 'आज' एक उपहास का विषय बन चुके हैं। पुस्तकीय ज्ञान से उलट आन्दोलन के प्रति नाकारात्मक भाव रखने वाले विजयी और दृढ़ संकल्प रखने वाले सकारात्मक विचार परास्त हो चुके हैं। और इस पराजय ने न जाने कितने ही आन्दोलनों की हत्या उनके भ्रूण में ही कर डाली। वह आन्दोलन जो आगे चलकर इस राष्ट्र की चेतना के कर्णधार बनते। अब आने वाले 30-40 वर्षों तक इस समाज की कोख से निकले हर आंदोलन को अपनी शुचिता की अग्निपरिक्षा देनी होगी। और साथ ही अग्निपरीक्षा देगा हर वह नेता, हर वह कार्यकर्ता जो इन आन्दोलनों की वाणी बनने आगे आएगा। सनद रहे, आन्दोलन किसी भी समाज की चैतन्यता का प्रतीक होते हैं। जिस समाज में आन्दोलन नहीं होते, उस समाज की चेतना की आयु बहुत अल्प होती है। और मरी हुई चेतना वाला समाज हमेशा राजा की 'दया' पर चलता है।

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