मिस चमको से संवेदनशील कलाकार तक: दीप्ति नवल की अधूरी ख्वाहिशें और चमकता सफर

"मिस चमको" (Miss Chamko) से गंभीर कलाकार तक दीप्ति नवल (Deepti Naval) का सफर संघर्ष, संवेदनशीलता और कला से भरी वो कहानी है, जिसने उन्हें सिर्फ अभिनेत्री (Bollywood actress) नहीं बल्कि लेखिका और पेंटर के रूप में भी अमर बना दिया। उनका जीवन सिखाता है कि असफलताएँ ही सफ़लता की जननी है।
दीप्ति नवल सिर्फ एक "मिस चमको" नहीं हैं। वो अभिनेत्री हैं, लेखिका हैं, पेंटर हैं और सबसे बढ़कर एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने असफलताओं को अपनी ताकत बनाया। [Sora Ai]
दीप्ति नवल सिर्फ एक "मिस चमको" नहीं हैं। वो अभिनेत्री हैं, लेखिका हैं, पेंटर हैं और सबसे बढ़कर एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने असफलताओं को अपनी ताकत बनाया। [Sora Ai]
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भारतीय सिनेमा में कई ऐसी अभिनेत्रियाँ रही हैं जिन्होंने अपनी एक्टिंग से दर्शकों के दिलों पर कभी नहीं मिटने वाली छाप छोड़ी हैं। उनमें से एक हैं दीप्ति नवल (Deepti Naval)। 80 के दशक में जब रोमांटिक और हल्की-फुल्की फिल्में दर्शकों को खूब भाती थीं, तभी एक चेहरा "मिस चमको" (Miss Chamko) अचानक सबकी नजरों में छा गया। यह नाम उन्होंने खुद नहीं चुना था, बल्कि फिल्म चश्मे बद्दूर (1981) के हीरो फ़ारूक़ शेख़ ने उन्हें दिया था।

इस फिल्म में नेहा नाम की एक मासूम, खुशमिज़ाज लड़की जो "चमको" नाम का वॉशिंग पाउडर बेचती है और हीरो से टकरा जाती है, इस किरदार ने दीप्ति नवल को रातों-रात स्टार बना दिया। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि दीप्ति नवल खुद इस राय से पूरी तरह सहमत नहीं हैं, कि यही किरदार उनकी सबसे बड़ी पहचान है। वो कहती हैं की "इंसान की शख्सियत में कई परतें होती हैं, उसे किसी एक चीज़ से बांधकर नहीं रखना चाहिए।" आइये आज हम दीप्ति नवल के जीवन, उनके संघर्ष, करियर और उनकी कला की गहराई को जानते हैं।

दीप्ति नवल का फिल्मों की तरफ आकर्षण एक किस्से से शुरू हुआ। साल 1960 में, जब उनकी उम्र लगभग 9 साल थी, उस समय अमृतसर में बलराज साहनी का पंजाबी नाटक “कनक दी बल्ली” खेला जा रहा था।
दीप्ति नवल का फिल्मों की तरफ आकर्षण एक किस्से से शुरू हुआ। साल 1960 में, जब उनकी उम्र लगभग 9 साल थी, उस समय अमृतसर में बलराज साहनी का पंजाबी नाटक “कनक दी बल्ली” खेला जा रहा था। (Wikimedia commons)

उनका बचपन और परिवार

दीप्ति नवल (Deepti Naval) का जन्म अमृतसर में हुआ। उनके पिता हिंदू कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे और माँ पेंटर व टीचर थीं । उनके घर का माहौल बेहद पढ़ाई-लिखाई वाला था। लेकिन उनके परिवार ने दो बार विस्थापन झेला है । पहली बार तब, जब बर्मा पर जापान ने हमला किया और उनका परिवार लाहौर आ गया। फिर दूसरी बार तब हुआ जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन (1947) में हुआ था, जब उन्हें फिर से पंजाब आकर बसना पड़ा। ये अनुभव बचपन में ही दीप्ति के मन में गहरे तरिके से बैठ गए। घर में अक्सर बायरन और कीट्स जैसे कवियों की चर्चा होती रहती थी, तो माँ डांस-ड्रामा गाया करती थीं। यही माहौल उनके भीतर साहित्य और कला के प्रति गहरी दिलचस्पी जगाने वाला साबित हुआ।

दीप्ति नवल का फिल्मों की तरफ आकर्षण एक किस्से से शुरू हुआ। साल 1960 में, जब उनकी उम्र लगभग 9 साल थी, उस समय अमृतसर में बलराज साहनी का पंजाबी नाटक “कनक दी बल्ली” खेला जा रहा था। नाटक खत्म होने के बाद उनके पिता उन्हें ऑटोग्राफ दिलाने ले गए। ऑटोग्राफ देते हुए बलराज साहनी ने कहा की "माई डियर, अगर मैं ऐसे ही ऑटोग्राफ देता रहा तो मेरी ट्रेन छूट जाएगी।" इस "माई डियर" शब्द ने दीप्ति के दिल पर गहरी छाप छोड़ दी। उसी दिन उन्होंने तय कर लिया कि उन्हें भी फिल्मों में जाना है और एक्ट्रेस बनना है।

दीप्ति नवल ने फिल्मों के लिए कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं ली। वो बताती हैं कि उनकी असली ट्रेनिंग आईने से हुई। "मैंने घंटों-घंटों शीशे के सामने बिताए। इमोशन्स को महसूस किया, चेहरों पर खेला, खुद को देखा। मैंने जाना कि मेरे अंदर संवेदनशीलता है या नहीं। यही मेरी असली सीख थी।" हालाँकि वो मानती हैं कि ट्रेनिंग से आत्मविश्वास आता है, लेकिन उन्हें हमेशा लगता रहा कि वह एक्टिंग के लिए ही पैदा हुई हैं।

दीप्ति नवल (Deepti Naval) ने अमेरिका से ग्रेजुएशन की। वहां उन्होंने जीन फ्रैंकल इंस्टीट्यूट जॉइन किया और टीवी, कैमरा व रेडियो से जुड़े काम किए। उसके बाद वहीं उनकी मुलाकात राज कपूर, सुनील दत्त और दिलीप कुमार जैसे सितारों से हुई। भारत लौटने के बाद उनकी किस्मत चमक उठी। चश्मे बद्दूर में "नेहा उर्फ मिस चमको" का किरदार मिल गया। फिल्म रिलीज़ हुई और दीप्ति नवल रातों-रात स्टार बन गईं।

दीप्ति नवल ने अमेरिका से ग्रेजुएशन की। वहां उन्होंने जीन फ्रैंकल इंस्टीट्यूट जॉइन किया और टीवी, कैमरा व रेडियो से जुड़े काम किए।
दीप्ति नवल ने अमेरिका से ग्रेजुएशन की। वहां उन्होंने जीन फ्रैंकल इंस्टीट्यूट जॉइन किया और टीवी, कैमरा व रेडियो से जुड़े काम किए। (Wikimedia commons)

मिस चमको से मिली पहचान

फिल्म चश्मे बद्दूर (1981) में दीप्ति नवल (Deepti Naval) और फ़ारूक़ शेख़ की जोड़ी को खूब पसंद किया गया। उनकी मासूम मुस्कान और सरल अभिनय ने उन्हें लोगों के दिलों में बसा दिया। इसके बाद उन्होंने कथा, अंगूर, साथ साथ जैसी फिल्मों में काम किया और हर बार अपने अभिनय से दर्शकों का दिल जीता। लेकिन एक समय ऐसा आया जब उन्हें लगा कि वो सिर्फ "हल्के-फुल्के" रोल ही करती रह जाएंगी। जब उनके मन में ऐसे ख्याल आने लगे उसके बाद दीप्ति नवल ने एक बड़ा फैसला लिया। उन्होंने 6 महीने तक कोई फिल्म साइन ही नहीं की। उनका मानना था कि वो ऐसी फिल्में करना चाहती हैं जो लोगों के ज़ेहन में छाप छोड़ें, जैसे मदर इंडिया या गाइड। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके हाथ से फिल्में छूटती चली गईं। फिर एक समय आया जब उनके पास कोई फिल्म नहीं थी। वो उसके बाद याद करती हैं, "आखिरी शूटिंग खत्म हो हुई, सब लोग चले गए। मैं खड़ी रह गई और सोचा की मेरे पास अब एक भी फिल्म नहीं है।" यह दौर उनके लिए डिप्रेशन और अंधेरे का दौर था।

इसके बाद यहां से शुरू होता है इनका दूसरा फेज, धीरे-धीरे हालात बदले। उन्हें कमला और अनकही जैसी फिल्में मिलीं। इन फिल्मों ने उन्हें गंभीर अभिनेत्री के रूप में पहचान दी। दीप्ति कहती हैं, की “कमला मेरे सपनों का रोल था, और वहीं फिल्म अनकही में पागल सी लड़की का किरदार निभाकर बहुत संतोष मिला।” यही उनका दूसरा और पसंदीदा फेज था।

इसके बाद दीप्ति की मुलाकात निर्देशक प्रकाश झा से हुई। दोनों ने शादी कुछ समय बाद दोनों ने कर ली, लेकिन रिश्ता ज्यादा चला नहीं। इस अलगाव ने उन्हें फिर से डिप्रेशन में धकेल दिया। उनकी शादी ज्यादा समय नहीं चली तो टूट गई, पर उन्होंने तय किया कि मैं खुद को ही सहारा दूंगी और आगे बढ़ूंगी।" फिर उन्होंने इस मुश्किल दौर में पेंटिंग और लेखन का सहारा लिया।

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दीप्ति नवल केवल अभिनेत्री (Bollywood actress) ही नहीं, बल्कि बेहतरीन पेंटर और लेखिका भी हैं। वो घंटों कैनवस पर रंग भरती रहती थीं। वो डायरी भी लिखती थीं और अपने अनुभवों को शब्दों में बदलती थीं। वो कहती हैं, की “असफलता बहुत कीमती होती है। ये आपके हुनर को तराशती है। मेरे लिए लेखन और पेंटिंग ही असली थैरेपी साबित हुई।” उनका लेखन और पेंटिंग ने उनके जीवन में फिर से उम्मीद से कुछ कर दिखाने की उम्मीद ला दी

दीप्ति मानती हैं कि "मिस चमको"(Miss Chamko) ने उन्हें पहचान दी, लेकिन उनकी जिंदगी सिर्फ उसी तक सीमित नहीं रही। उन्होंने अंग्रेजी, मनोविज्ञान, खगोलशास्त्र और अमेरिकन थिएटर जैसे विषयों की पढ़ाई भी की। उनका मानना है कि इंसान को हर हुनर को एक्सप्लोर करना चाहिए। दीप्ति नवल मानती हैं कि फिल्म इंडस्ट्री उतनी बुरी नहीं है जितनी बुरी लोग समझते हैं। "हर जगह समस्याएँ होती हैं चाहे बैंक हो या दुकान हो, फर्क बस इतना है कि आप खुद को कैसे पेश करते हैं।"

दीप्ति मानती हैं कि "मिस चमको" ने उन्हें पहचान दी, लेकिन उनकी जिंदगी सिर्फ उसी तक सीमित नहीं रही।
दीप्ति मानती हैं कि "मिस चमको" ने उन्हें पहचान दी, लेकिन उनकी जिंदगी सिर्फ उसी तक सीमित नहीं रही।(AI)

निष्कर्ष

दीप्ति नवल (Deepti Naval) सिर्फ एक "मिस चमको" (Miss Chamko) नहीं हैं। वो अभिनेत्री (Bollywood actress) हैं, लेखिका हैं, पेंटर हैं और सबसे बढ़कर एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने असफलताओं को अपनी ताकत बनाया। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि स्टारडम से ज्यादा अहम है खुद को जानना और खुद पर विश्वास रखना। आज भी लोग जब 80 के दशक की फिल्मों को याद करते हैं तो फारूक़ शेख़ और दीप्ति नवल की जोड़ी ज़रूर सामने आती है। लेकिन उनके जीवन की असली कहानी इससे कहीं ज्यादा गहरी और प्रेरणादायक है। [Rh/PS]

दीप्ति नवल सिर्फ एक "मिस चमको" नहीं हैं। वो अभिनेत्री हैं, लेखिका हैं, पेंटर हैं और सबसे बढ़कर एक ऐसी महिला हैं जिन्होंने असफलताओं को अपनी ताकत बनाया। [Sora Ai]
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