50 साल बाद भी शोले की गूंज - दोस्ती, प्यार और खौफ का बेमिसाल संगम

शोले (Sholay) सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, बल्कि दोस्ती, साहस, प्रेम और विद्रोह की जीवंत लोककथा है। जय-वीरू (Jai-Veeru) की यारी, बसंती (Basanti) की बिंदास अदाएं, राधा का मौन प्रेम और गब्बर (Gabbar Singh) का खौफ आज भी उतना ही ताज़ा है। पचास साल बाद भी शोले भारतीय सिनेमा की आत्मा बनी हुई है।
शोले एक ऐसी फिल्म है, जिसने सिर्फ़ एक ब्लॉकबस्टर होने से कहीं आगे जाकर, एक संस्कृति, एक एहसास और एक लोककथा का रूप ले लिया। (AI)
शोले एक ऐसी फिल्म है, जिसने सिर्फ़ एक ब्लॉकबस्टर होने से कहीं आगे जाकर, एक संस्कृति, एक एहसास और एक लोककथा का रूप ले लिया। (AI)
Published on
4 min read

भारतीय सिनेमा में बहुत सी फिल्में आईं और गईं। कुछ ने बॉक्स ऑफिस पर इतिहास रचा, तो कुछ दर्शकों के दिलों में हमेशा के लिए जगह बना गईं। लेकिन शोले (1975) एक ऐसी फिल्म है, जिसने सिर्फ़ एक ब्लॉकबस्टर होने से कहीं आगे जाकर, एक संस्कृति, एक एहसास और एक लोककथा का रूप ले लिया। पचास साल बाद भी इसकी गूंज उतनी ही ताज़ा है, जितनी 15 अगस्त 1975 को रिलीज़ होते समय थी।

आज़ादी के दिन रिलीज़ हुई इस फिल्म (Sholay) को उस वक्त किसी ने शायद ये भी नहीं सोचा होगा कि ये सिर्फ़ एक मनोरंजन वाली फिल्म नहीं रहेगी, बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी दोस्ती, इंसानियत, साहस और विद्रोह की नई परिभाषा देती रहेगी। बूमर पीढ़ी (1946 और 1964 के बीच पैदा हुए लोगों को कहा जाता है।) हो या जेन-ज़ी, पीढ़ी (1997 से 2012 के बीच पैदा हुए लोगों को कहा जाता है।) हर कोई अपने-अपने नजरिये से इसमें कुछ न कुछ नया खोज ही लेता है। यही वजह है कि शोले आज भी पुरानी नहीं लगती, बल्कि हर बार देखने पर ताज़ा अनुभव देती है।

70 के दशक तक बॉलीवुड के नायक आमतौर पर आदर्शवादी, सीधे-सच्चे और बेदाग़ किरदार हुआ करते थे। लेकिन शोले ने इस परंपरा को तोड़ दिया।  (AI)
70 के दशक तक बॉलीवुड के नायक आमतौर पर आदर्शवादी, सीधे-सच्चे और बेदाग़ किरदार हुआ करते थे। लेकिन शोले ने इस परंपरा को तोड़ दिया। (AI)

70 के दशक तक बॉलीवुड के नायक आमतौर पर आदर्शवादी, सीधे-सच्चे और बेदाग़ किरदार हुआ करते थे। लेकिन शोले ने इस परंपरा को तोड़ दिया। जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) दोनों दोस्त (Jai-Veeru) जेल से छूटने बाद शराब पीने वाले, बन गए और वो दोनों चालाक बदमाश भी थे। उनके अतीत पर धब्बे थे, लेकिन जब वक्त आया तो वही लोग गांव के रक्षक भी बनकर खड़े हुए। यही इस फिल्म (Sholay) का सबसे बड़ा संदेश था, नायक वही नहीं होता जो पवित्र हो, बल्कि वो भी होता है जो अपने अतीत से ऊपर उठकर सही रास्ता चुन ले। जय-वीरू (Jai-Veeru) की दोस्ती भी भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक नया मोड़ थी। इससे पहले दोस्ती अक्सर भावुक, यहां तक कि रोमांटिक अंदाज़ में दिखाई जाती थी। लेकिन शोले (Sholay) में दोनों की दोस्ती असल ज़िंदगी जैसी थी, खिंचाई, मज़ाक, झगड़ा और फिर भी हर हाल में साथ रहना। यही वजह है कि "ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे" जैसे गाने आज भी अमर हैं।

हिंदी फिल्मों में हीरोइनें अक्सर सिर्फ़ प्रेमिका या सजावटी किरदार तक सीमित रहती थीं। लेकिन बसंती (हेमा मालिनी) ने ये साबित किया कि नायिका भी कामकाजी, आत्मनिर्भर और मुखर हो सकती है। वो तांगा चलाने वाली गांव की लड़की थी (Basanti), जो चारदीवारी से बाहर निकलकर अपनी रोज़ी-रोटी कमाती थी। बसंती (Basanti) ने साफ़ कह दिया था कि अगर घोड़ी धन्नो तांगा खींच सकती है, तो बसंती भी चला सकती है। ये किरदार अपने समय के लिए बेहद प्रगतिशील था, जिसने महिलाओं की नई छवि गढ़ी जो की महिलाओं को मजबूत, आत्मनिर्भर और बिंदास बनने की प्रेरणा देती है।

जया बच्चन द्वारा निभाया गया राधा का किरदार फिल्म का सबसे गहरा पहलू था। विधवा बहू का प्रेम और दोबारा शादी उस दौर में समाज के लिए अकल्पनीय विषय था।   (AI)
जया बच्चन द्वारा निभाया गया राधा का किरदार फिल्म का सबसे गहरा पहलू था। विधवा बहू का प्रेम और दोबारा शादी उस दौर में समाज के लिए अकल्पनीय विषय था। (AI)

जया बच्चन द्वारा निभाया गया राधा का किरदार फिल्म का सबसे गहरा पहलू था। विधवा बहू का प्रेम और दोबारा शादी उस दौर में समाज के लिए अकल्पनीय विषय था। लेकिन शोले ने दिखाया कि प्रेम उम्र, हालात या सामाजिक बंधनों का मोहताज नहीं है। जब ठाकुर (संजीव कुमार) अपनी विधवा बहू राधा की शादी के लिए उसके पिता से इजाज़त मांगते हैं, तो उनका संवाद आज भी कानों में गूंजता है, "समाज और बिरादरी इंसान को अकेलेपन से बचाने के लिए बने हैं, किसी को अकेला रखने के लिए नहीं।" यह एक ऐसा विचार था जो उस वक्त के लिए विद्रोही और आज के लिए भी प्रगतिशील है।

Also Read: धड़क 2 : प्यार, जाति और बगावत की अनसुनी दास्तान

शोले (Sholay) के बिना गब्बर सिंह (अमजद ख़ान) की चर्चा अधूरी है। गब्बर (Gabbar Singh) सिर्फ़ एक विलेन नहीं था, वो एक खौफ, एक प्रतीक और एक अमर छवि बन गया। उससे पहले के खलनायक अक्सर शहरी सूट-बूट में दिखाए जाते थे। लेकिन गब्बर (Gabbar Singh) धूल से सना, बेरहम डाकू था, जो अपने गैंग के लोगों तक को बख्शता नहीं था।

उसके डायलॉग - "अरे ओ सांभा, कितने आदमी थे?" इस फिल्म में गब्बर सिंह (Gabbar Singh) का खौफ इतना ज्यादा था की जब कोई बच्चा रोता था तो मां कहती थी, "सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा।"

शोले की सबसे बड़ी खूबी थी कि इसमें एक्शन, रोमांस, कॉमेडी, इमोशन और थ्रिल सबकुछ था। और ये सब इतने संतुलन के साथ बुना गया था कि हर सीन यादगार बन गया। सांभा, कालिया, सूरमा भोपाली या हरिराम नाई जैसे छोटे किरदार भी दर्शकों के दिलों पर छा गए। सिनेमैटोग्राफी, बैकग्राउंड म्यूज़िक, एडिटिंग और कहानी का तालमेल इतना जबरदस्त था कि शोले एक फिल्म नहीं, बल्कि एक अनुभव बन गई।

शोले की सबसे बड़ी खूबी थी कि इसमें एक्शन, रोमांस, कॉमेडी, इमोशन और थ्रिल सबकुछ था।   (AI)
शोले की सबसे बड़ी खूबी थी कि इसमें एक्शन, रोमांस, कॉमेडी, इमोशन और थ्रिल सबकुछ था। (AI)

निष्कर्ष

पचास साल बाद भी शोले हमें अतीत की फिल्म नहीं लगती, बल्कि लगता है की जैसे यह फिल्म आज के ज़माने की कहानी हो। ये एक ऐसी लोककथा बन चुकी है, जिसे दादा-पोते तक सुनाते हैं और हर बार नया स्वाद पाते हैं। शोले सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा की आत्मा का हिस्सा है। इसकी विरासत आने वाले पचास सालों तक भी उतनी ही चमकदार रहेगी, जितनी उस दिन थी जब पहली बार परदे पर जय-वीरू (Jai-Veeru), बसंती (Basanti) और गब्बर (Gabbar Singh) उतरे थे। [Rh/PS]

शोले एक ऐसी फिल्म है, जिसने सिर्फ़ एक ब्लॉकबस्टर होने से कहीं आगे जाकर, एक संस्कृति, एक एहसास और एक लोककथा का रूप ले लिया। (AI)
श्रीदेवी: सिनेमा की अमर रानी

Related Stories

No stories found.
logo
hindi.newsgram.com