धड़क 2 : प्यार, जाति और बगावत की अनसुनी दास्तान

शाज़िया इक़बाल (Shazia Iqbal) की ‘धड़क 2’ (Dhadak 2) जातिगत भेदभाव और प्रेम की टकराहट को साहसिक अंदाज़ में पेश करती है। सिद्धांत चतुर्वेदी (Siddhant Chaturvedi) का दलित युवक नीलेश अहिरवार (Nilesh Ahirwar) समाज के पूर्वाग्रहों से जूझता है। तमिल फिल्म ‘परीयेरुम पेरुमाल’ से रूपांतरित यह कहानी हिंदी सिनेमा में दुर्लभ जाति-केंद्रित नैरेटिव को नई पहचान देती है।
हिंदी सिनेमा में जाति पर चर्चा करना अब भी एक दुर्लभ और साहसिक कदम है। [Sora Ai]
हिंदी सिनेमा में जाति पर चर्चा करना अब भी एक दुर्लभ और साहसिक कदम है। [Sora Ai]
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हिंदी सिनेमा में जाति पर चर्चा करना अब भी एक दुर्लभ और साहसिक कदम है। चमकीले सेट, बड़े सितारे और हिट गानों के बीच यह मुद्दा अक्सर या तो किनारा पर डाल दिया जाता है या बाहरी तरीके से छूकर आगे बढ़ा दिया जाता है। लेकिन शाज़िया इक़बाल (Shazia Iqbal) की पहली फीचर फिल्म ‘धड़क 2’ (Dhadak 2) ने यह परंपरा तोड़ी है। इस फिल्म ने न केवल जातिगत भेदभाव पर सीधी और ईमानदार बहस छेड़ी, बल्कि प्रेम, पहचान और सामाजिक पूर्वाग्रहों के टकराव को भावनात्मक गहराई के साथ पेश किया।

इस फिल्म ने न केवल जातिगत भेदभाव पर सीधी और ईमानदार बहस छेड़ी, बल्कि प्रेम, पहचान और सामाजिक पूर्वाग्रहों के टकराव को भावनात्मक गहराई के साथ पेश किया। [X]
इस फिल्म ने न केवल जातिगत भेदभाव पर सीधी और ईमानदार बहस छेड़ी, बल्कि प्रेम, पहचान और सामाजिक पूर्वाग्रहों के टकराव को भावनात्मक गहराई के साथ पेश किया। [X]

कहानी जो दिल और दिमाग दोनों को छूती है

‘धड़क 2’ के केंद्र में है नीलेश अहिरवार, (Nilesh Ahirwar) एक छोटे शहर का युवक, जो अपने सपनों और पहचान के बीच फंसा है। सिद्धांत चतुर्वेदी (Siddhant Chaturvedi) ने इस किरदार को निभाया है, जो दलित पृष्ठभूमि से आता है और पढ़ाई के लिए शहर पहुंचता है। वहां उसे न केवल जाति के न दिखाई देने वाले मजबूत दीवारों का सामना करना पड़ता है, बल्कि प्रेम में भी इन्हीं सीमाओं से टकराना पड़ता है। शाज़िया इक़बाल ने इस किरदार को किसी ‘बेचारे’ या ‘सुपरहीरो’ की तरह नहीं गढ़ा। नीलेश एक साधारण इंसान है सपने देखने वाला, गलती करने वाला, और अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करने वाला।

 सिद्धांत चतुर्वेदी (Siddhant Chaturvedi) ने इस किरदार को निभाया है, जो दलित पृष्ठभूमि से आता है [X]
सिद्धांत चतुर्वेदी (Siddhant Chaturvedi) ने इस किरदार को निभाया है, जो दलित पृष्ठभूमि से आता है [X]

सिद्धांत चतुर्वेदी (Siddhant Chaturvedi) को दलित किरदार में कास्ट करने और ‘ब्राउन फेस’ मेकअप को लेकर सोशल मीडिया पर काफी चर्चा हुई। आलोचकों का कहना था कि दलित किरदार निभाने के लिए असली दलित कलाकारों को मौका मिलना चाहिए। लेकिन फिल्म को देखने के बाद कई समीक्षकों ने माना कि कहानी का नजरिया महत्वपूर्ण है।

फिल्म में एक और प्रभावशाली किरदार है शेखर, नीलेश का दोस्त, जिसे प्रियांक तिवारी ने निभाया है। यह किरदार असल जिंदगी के रोहित वेमुला से प्रेरित है। शेखर कैंपस में जातिगत अन्याय के खिलाफ खुलकर आवाज उठाता है और एक बिंदु पर कहता है - “जब अन्याय कानून बन जाए, तो उसके खिलाफ आवाज उठाना ही कर्तव्य होता है।” नीलेश की मां (अनुभा फतेहपुरा) भी याद रह जाने वाला किरदार हैं, एक ऐसी महिला जो मुश्किलों के बावजूद अपने बेटे को शिक्षा दिलाने और अधिकारों के लिए लड़ने में यकीन रखती है।

2013-14 में बनी लगभग 300 हिंदी फिल्मों में सिर्फ छह में ही मुख्य पात्र पिछड़ी जाति से थे। यह आंकड़ा बताता है कि ‘धड़क 2’ (Dhadak 2) जैसी फिल्म का आना क्यों अहम है।

तमिल सिनेमा ने लंबे समय से वंचित तबके की कहानियां कही हैं। मारी सेल्वराज की ‘कर्णन’, पा. रंजीत की ‘सारपट्टा परंबराई’, और टी.के. ज्ञानवेल की ‘जय भीम’ जैसी फिल्मों ने न केवल सामाजिक मुद्दों को उठाया बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी सफलता पाई।‘धड़क 2’ भी इसी परंपरा से जुड़ी है, यह दरअसल तमिल फिल्म ‘परीयेरुम पेरुमाल’ का हिंदी रूपांतरण है, लेकिन शाज़िया इक़बाल ने इसे उत्तर भारतीय पृष्ठभूमि और जेंडर-सेंसिटिव लेंस के साथ पेश किया है।

हिंदी सिनेमा में जाति का सफर

शाज़िया इक़बाल (Shazia Iqbal) का कहना है - “लोग सोचते हैं कि जाति का मुद्दा सिर्फ गांवों में है, लेकिन सच यह है कि यह हर जगह है। आप छोटे शहर से बड़े शहर चले जाएं, आपकी पहचान आपका पीछा नहीं छोड़ती।” उनके मुताबिक, लव स्टोरी समाज के सबसे मजबूत पूर्वाग्रहों को तोड़ने का सबसे असरदार जरिया है।

लोग सोचते हैं कि जाति का मुद्दा सिर्फ गांवों में है, लेकिन सच यह है कि यह हर जगह है। [X]
लोग सोचते हैं कि जाति का मुद्दा सिर्फ गांवों में है, लेकिन सच यह है कि यह हर जगह है। [X]

अगर पीछे देखें, तो जाति पर हिंदी फिल्मों का इतिहास 1936 की ‘अछूत कन्या’ से शुरू होता है, एक निचली जाति की लड़की और ब्राह्मण लड़के की प्रेम कहानी। इसके बाद आई बिमल रॉय की ‘सुजाता’ (1959), जिसने निचली जाति की लड़की और उच्च जाति के युवक की कहानी को संवेदनशील ढंग से बताया। 2000 के दशक में ‘लगान’, ‘आरक्षण’, और ‘आर्टिकल 15’ जैसी फिल्में बनीं, लेकिन इनमें ज्यादातर कहानी ‘उद्धारक’ नायक की नजर से कही गई।

श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ (1974), सत्यजीत रे की ‘सद्गति’ (1981), प्रकाश झा की ‘दामुल’ (1985), और शेखर कपूर की ‘बैंडिट क्वीन’ (1994) ने जातिगत शोषण को बिना ग्लैमर के पेश किया।

नई पीढ़ी की आवाज़

दलित फिल्ममेकर नीरज घेवान ने ‘मसान’ (2015) और ‘गीली पुच्ची’ (2021) में जाति, जेंडर और पहचान के टकराव को गहराई से दिखाया। बिकास मिश्रा की ‘चौरंगा’ और चैतन्य तम्हाणे की ‘कोर्ट’ ने भी नए दृष्टिकोण से कहानियां सुनाईं। नागराज मंजुले की ‘सैराट’ और ‘फैंड्री’ ने यह साबित किया कि वंचित तबके की कहानियां न सिर्फ जरूरी हैं बल्कि व्यावसायिक रूप से भी सफल हो सकती हैं। उनकी हिंदी फिल्म ‘झुंड’ में अमिताभ बच्चन का किरदार ‘मसीहा’ नहीं बल्कि बराबरी का साथी था, एक दुर्लभ दृष्टिकोण।

दलित फिल्ममेकर नीरज घेवान ने ‘मसान’ (2015) और ‘गीली पुच्ची’ (2021) में जाति, जेंडर और पहचान के टकराव को गहराई से दिखाया। [X]
दलित फिल्ममेकर नीरज घेवान ने ‘मसान’ (2015) और ‘गीली पुच्ची’ (2021) में जाति, जेंडर और पहचान के टकराव को गहराई से दिखाया। [X]

‘धड़क 2’ (Dhadak 2) क्यों अहम है

यह जाति के मुद्दे को मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में लाती है। दलित किरदार को कहानी का केंद्र बनाती है। सहायक पात्रों को भी मजबूती से गढ़ती है। प्रेम कहानी के जरिए पूर्वाग्रहों पर चोट करती है। दर्शकों को सोचने और बहस करने के लिए उकसाती है। ‘धड़क 2’ देखते हुए कई दृश्य आपको असहज कर देंगे और यही इसका उद्देश्य है। यह असहजता आपको सोचने पर मजबूर करती है कि आज, 21वीं सदी में, हम कहां खड़े हैं ? क्या सचमुच जाति का भेद मिट चुका है, या बस हमने इसे न देखने का फैसला कर लिया है ? शाज़िया इक़बाल (Shazia Iqbal) की यह फिल्म याद दिलाती है कि जाति कोई पुराना, गांव-भर का मसला नहीं है। यह हमारे शहरों, हमारे रिश्तों और हमारे दिमागों में गहराई से बसा हुआ है।

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निष्कर्ष

'धड़क 2' (Dhadak 2) एक महत्वपूर्ण फिल्म है, जो भारतीय सिनेमा में एक नए युग की शुरुआत कर सकती है। यह फिल्म वंचित तबके की सच्चाई को ईमानदारी से दिखाती है और दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है। [Rh/PS]

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