1998 में जब अभिनेत्री शायरा बानो की दादी, जिनका नाम शमशाद था, का निधन हुआ तो मीडिया में इसी नाम की एक गायिका के नाम के मृत्यु की खबरें प्रसारित हुईं। बाद में 'बीते हुए दिन' (Beete Huye Din) नाम से चर्चित ब्लॉग के माध्यम से शिशिर कृष्ण शर्मा (Shishir Krishna Sharma) ने उन गायिका को ढूंढ निकाला। इसके बाद उनके साक्षात्कार का दौर चल पड़ा। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं 'होली आई रे कन्हाई', 'कजरा मोहब्बत वाला', 'लेके पहला पहला प्यार', 'कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना', 'मेरे पिया गए रंगून', 'सइयां दिल में आना रे', जैसे हिट गाने देने वाली 40-50 के दशक की सबकी चहेती गायिका शमशाद बेगम (Shamshad Begum) की। Shamshad जब गाती थीं तो लोग उनके मखमली आवाज की मादकता में डूब कर झूम उठते थे।
आज भले ही लता मंगेशकर को संगीत की सरस्वती माना जाता है, पर उनके आने के पहले का भी एक दौर था, जिस समय एक ऐसी गायिका थीं, जिनके गाने जब परदे पर चलते थे तो प्रशंसक परदे पर सिक्के की बौछार कर देते थे। Shamshad Begum का जन्म अविभाजित भारत के पंजाब के लाहौर (Lahore) में 14 अप्रैल, 1919 को एक मुस्लिम जाट परिवार में हुआ था। वैसे कई मीडिया रिपोर्ट में ऐसा मिलता है कि उनका जन्म अमृतसर में हुआ था, पर उनके खुद के साक्षात्कार में उन्होंने बताया कि उनका जन्म लाहौर में हुआ था। उनका भारत के प्रति प्रेम अतुलनीय था। उन्होंने उस समय में, जब देश में धर्म का मुद्दा गरम था, तब एक हिन्दू से विवाह करके वो भारत में ही बस गईं थी।
Shamshad के आठ भाई-बहन थे और पिता एक मेकैनिक थे तथा माँ गृहिणी थीं। शमशाद को बचपन से ही गाने का शौक था। वो शादी-ब्याह, तथा अन्य धार्मिक अवसरों पर गाया करती थीं, जिससे उनकी ख्याति जल्दी ही आसपास के क्षेत्र में फैल गई। हालांकि इनके पिता फिल्मों में गायन के पक्ष में नहीं थे पर चाचा अमीरुद्दीन ने इनके आगे बढ़ने में एहम भूमिका निभाई। उनके चाचा ने उनका ऑडिशन उस समय के एक प्रसिद्ध म्यूजिक कंपनी Jien-Phone Record में दिलवाया। उनका ऑडिशन तब के प्रसिद्ध संगीतकार मास्टर ग़ुलाम हैदर (Ghulam Haider) ने लिया था। बेगम ने बहादुर शाह ज़फ़र की कई ग़ज़लें सुनाई, जिसके बाद उनकी आवाज से प्रभावित होकर मास्टर ग़ुलाम ने उन्हें 12.50 रुपये के हिसाब से 12 गानों को गाने का प्रस्ताव आगे रख दिया। उस समय के हिसाब से यह एक बड़ी रकम थी। इस सबके बीच दिलचस्प बात यह थी कि वो तब 13 वर्ष की थीं और उन्होंने संगीत की कोई शिक्षा नहीं ली थी। शमशाद जी को मास्टर ग़ुलाम चौमुखीया कहकर बुलाते थे।
इस तरह Shamshad का पहला पेशेवर गीत जो रिकार्ड हुआ वो एक भजन था, और उस समय उनका नाम उमा देवी कर दिया गया था। हालांकि बाद में वो Shamshad Begum के नाम से ही प्रसिद्ध हुईं। यहाँ से उनका सफर शुरू होकर धीरे-धीरे रेडियो की तरफ बढ़ने लगा। 1930 के दशक में दिल्ली रेडियो से गायन का प्रस्ताव आया, पर दूर होने की वजह से वो नहीं गईं।
1934 में, जब उनकी उम्र 15 की थी, तब उन्होंने गणपत लाल बट्टु नाम के एक हिन्दू से विवाह कर लिया। उनके इस प्रेम विवाह में विरोध और आलोचनाओं का ज्वारभाटा था पर फिर भी वो एक प्रगतिशील व्यक्तित्व थीं, जो इन तरह की बेबुनियादी चीजों में भरोसा नहीं करती थीं।
1935 में पेशावर में भी एक रेडियो केंद्र खुला जहां से उनको गाने का प्रस्ताव आया। वहाँ वो एक बार ही बस गईं और उन्होंने वहाँ का अनुभव सांझा करते हुए उसे दकियानूस जगह बताई जहां उन्हें पहली बार बुर्का पहनना पड़ा था।
1937 में लाहौर में ही एक रेडियो केंद्र शुरू हुआ जहां उन्होंने कई प्रस्तुतियाँ दी। इसके बाद उन्होंने फिल्मों में गाना शुरू किया। उन्होंने 'यामल जट', 'गवंडी 1', और 'गवंडी 2' जैसी हिट पंजाबी फिल्मों में अपना गायन दिया। इसके बाद उन्होंने 1941 की एक हिट हिन्दी फिल्म 'खजांची' (Khajanchi) में अपने गाने से सबको अभिभूत कर डाला।
इनका लाहौर में तो फिल्मी सफर शुरू हो गया था पर अब भी सपनों का शहर कहा जाने वाला मुंबई शहर दूर था। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में महबूब खान (Mehboob Khan) एक बड़े फिल्म निर्माता थे। वो एक फिल्म बना रहे थे जिसका नाम 'तकदीर' था। इसमें नायक के रूप में मोतीलाल और नायिका के रोपप में 13 वर्षीया नरगिस (Nargis) थीं। पहले तो गायन के लिए नूरजहां को चुना गया था, पर उनकी आवाज नरगिस से मेल खाती नहीं दिख रही थी। उन्हें एक कमसीन आवाज की जरूरत थी। उन्होंने जब फिल्म 'खजांची' में Shamshad Begum की आवाज सुनी तो उन्होंने फौरन अपने असिस्टेंट को इनसे संपर्क करने के लिए कहा। असिस्टेंट पहले से उन्हें जानते थे सो उन्होंने कहा, ' ये यहाँ नहीं आएंगी'। महबूब खान ने पूछा ऐसा क्यों? फिर असिस्टेंट ने कहा उनके पिता की इजाजत नहीं होती। इसके बाद महबूब साहब खुद उनके घर लाहौर पहुंचे और उनके पिता को मना लिए। पिता ने एक शर्त रखते हुए उन्हें इजाजत दे दी कि वो अपने काम से काम रखेंगी, गायन करने जा रहीं हैं तो केवल गायन पर ध्यान देंगी। यही कारण है कि उस वक्त की प्रमुख गायिका नूरजहां और सुरैया अभिनय भी करती थीं, पर Shamshad जी ने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया।
इसके बाद एक से बढ़कर एक गाने देते हुए शमशाद सबके दिलों पर राज करने लगीं। 1946 में महबूब साहब ने जब 'अनमोल घड़ी' बनाई तो उन्होंने इसके अधिकतर गाने नूरजहां और सुरैया को दिए पर शमशाद के एक ही ड्यूएट गीत ने तहलका मचा दिया था जिसे उन्होंने जोराबाई अंबाले वाली के साथ मिलकर गाया था। 1947 के भारत-पाक बंटवारे के बाद भी वो भारत ही रह गईं। यहाँ आने तक वो फिल्म उद्योग का एक चमकता सितारा बन चुकी थीं।
शमशाद ने नवशाद (Navshad), ओपी नइयर (OP Nayyar), शंकर जय किशन (Shankar Jai Kishan), एस डी बर्मन (SD Burman) जैसे सभी प्रमुख संगीत निर्देशक के साथ काम किया। शमशाद ने 1949 में फिल्म 'अंदाज' का संगीत दिया तो उन्होंने एक संगीत में लता मंगेशकर के साथ शमशाद बेगम को भी जगह दिया। शमशाद बेगम सबसे ज्यादा अपने एकांत प्रिय स्वभाव के लिए जानी जाती थीं। ओपी नइयर से जब उनकी मुलाकात हुई थी तब वो एक ऑफिस बॉय का काम कर रहे थे। उनके आग्रह पर शमशाद झट से उनके एक फिल्म में गाने के लिए तैयार हो गई थीं। इतना ही नहीं ओपी नइयर का जब लता मंगेशकर से विवाद हो गया था और अन्य गायिकाओं ने उनके लिए गाने से मना कर दिया था, तब भी शमशाद बेगम ही उनके बचाव में उतरी थीं। 1941 से 1955 तक का दौर बेगम के लिए स्वर्णिम काल था। 'तकदीर', 'हुमायूं', 'शाहजहाँ', 'आग', 'मेल', 'पतंग', 'जादू', इत्यादि ऐसी बेहतरीन फिल्मों में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाली शमशाद के बारे में कहा जाता है कि, उनकी महंगी फीस जो प्रडूसर नहीं दे पाते थे वो उस समय की गायिकाओं जैसे लता मंगेशकर, आशा भोसले आदि से उनकी नकल करके गाने को कहते थे।
शमशाद का स्वभाव बेहद शर्मीला था, जिसके कारण वो अपने जीवन के शीर्ष पर पहुँचने के बाद भी मीडिया में आने से कतराती थीं। यहाँ तक की वो किसी पार्टी में शायद ही कभी गई, जिसके कारण उनकी बहुत काम ही फ़ोटोज़ आज उपलब्ध हैं। उन्होंने अपने फिल्मों के प्रिमियर में भी कभी भी अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवाई।
1955 में अपने पति की मृत्यु के बाद वो खबरों से दूर अत्यंत एकांतवास में चली गईं। इसके बाद ओपी नइयर ने उन्हें वापस लाने के लिए एक अपील की। 'आशा भोसले अ म्यूज़िकल बायोग्राफी' में पत्रकार राजू भारतन ने बताया है कि, ओपी नइयर ने शमशाद बेगम से कहा कि लता मंगेशकर इतनी शक्तिशाली हैं कि यदि वो उनके बचाव में नहीं उतरीं तो वो बिल्कुल खत्म हो जाएंगे। इसपर शमशाद ने पलट कर कहा था, 'मैं तुम्हारे लिए जरूर गाऊँगी। लता मंगेशकर से कौन डरता है? कम से कम वह औरत तो नहीं जिसे शमशाद बेगम कहते हैं।'
इसके बाद ओपी नइयर ने 1956 के फिल्म 'सीआईडी' के गीतों में आशा भोसले और शमशाद की आवाजों को मिलाकर एक अनोखा प्रयोग किया था। इस फिल्म के सभी गाने बेहद हिट हुए। इसके बाद 'मदर इंडिया' में महबूब खान साहब ने नवशाद साहब से आग्रह करके चार गाने शमशाद को दिलवाए जो बहुत लोकप्रिय हुए। 'लव इन शिमला', 'चौदहवीं का चाँद', 'मुग़ल ए आजम', 'घराना', 'ब्लफ मास्टर' और 'लुटेरा' जैसी फिल्मों में उनकी मखमली आवाज ने सबके दिलों को जीत लिया।
इस दौरान उनकी हिट गीतों के बावजूद उन्हें काम मिलना कम हो गया। दरअसल, वो एक शाजिश की शिकार हो गईं। उनकी बेटी उषा रात्रा ने एक साक्षात्कार में बताया था कि उनके माँ के विरुद्ध एक लॉबी काम करने लगी थी, जो मूवी डायरेक्टर्स पर दबाव डालती थीं कि, वो शमशाद से गीत न गवाए। धीरे-धीरे 1971 तक आते हुए वो अपने बेटी दामाद के साथ मुंबई में ही एक एकांत गुमनाम जिंदगी में चली गईं। इसके बाद इनका कोई पता नहीं चला।
1998 में जब अभिनेत्री शायरा बानों की दादी जिनका नाम शमशाद ही था, की मृत्यु हुई तो मीडिया ने शमशाद बेगम के मृत्यु की खबर चला दी। इसके बाद 'बीते हुए दिन' नामक ब्लॉग को चलाने वाले शशि ने इन्हें ढूंढ निकाला, जिसके बाद आनंद भारती ने इस खबर को जब दैनिक जागरण में छापा तो तहलका मच गया। लोगों को Shamshad Begum की सुध आई। 2009 में इन्हें प्रेस्टीजिअस ओपी नइयर अवॉर्ड' मिला और उसी साल भारत सरकार ने इन्हें 'पद्मभूषण' (Padmbhushana) से सम्मानित किया।
इस प्रख्यात पार्श्व गायिका का निधन 23 अप्रैल 2013 को मुंबई में हो गया। उनकी बेटी उषा के मुताबिक उनकी माँ शमशाद हमेशा चाहती थीं कि उनके मौत के बाद ही किसी को पता लगे कि शमशाद दुनिया छोड़ कर जा चुकी हैं। ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि वो नहीं चाहती होंगी कि उनके मृत्यु पर कोई धार्मिक विवाद खड़ा हो।