जानिए क्यों खास है सूर्य उपासना का सबसे पवित्र पर्व - छठ महापर्व

दीपावली के छह दिन बाद मनाया जाने वाला छठ महापर्व सूर्यदेव और छठी माईया को समर्पित आस्था का अद्भुत उत्सव है। बिहार के मुंगेर से शुरू हुई यह परंपरा आज विश्वभर में मनाई जाती है, जहां महिलाएं 36 घंटे निर्जला उपवास रखकर परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करती हैं।
इस तस्वीर में एक नदी है, जिसमें अनेक महिलाएँ छठ पूजा करती हुई दिखाई दे रही हैं। सभी पानी में खड़ी है और हाथ में सुप लिए हुए है।
छठ महापर्व, जिसे षष्ठी पूजा या सूर्य षष्ठी व्रत भी कहा जाता है, यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। (AI)
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भारत में आस्था और परंपराओं का ताना-बाना जितना गहरा है, उतना ही उज्ज्वल भी। दीपावली के बाद जब घरों की रौनक धीरे-धीरे शांत होने लगती है, तभी बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के आसमान में एक नया रंग चढ़ता है, छठ महापर्व का। यह वह पर्व है जब नदियों के घाटों पर लाखों दीप झिलमिलाते हैं, महिलाएं निर्जला उपवास रखकर सूर्यदेव की आराधना करती हैं और वातावरण में भक्ति, अनुशासन और प्रेम की एक अद्भुत लहर दौड़ जाती है।

छठ पूजा क्या है ?

छठ पूजा, जिसे षष्ठी पूजा या सूर्य षष्ठी व्रत भी कहा जाता है, यह पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाया जाता है। आपको बता दें यह पर्व भगवान सूर्यदेव और छठी माता को समर्पित है। माना जाता है कि इस व्रत को रखने से जीवन में सुख-समृद्धि आती है, संतान की रक्षा होती है और परिवार में खुशहाली बनी रहती है। यह पर्व चार दिनों तक चलता है, और हर दिन की अपनी विशेष धार्मिक मान्यता होती है जैसे -

1. नहाय-खाय: पहला दिन, जब व्रती स्नान करके शुद्ध भोजन ग्रहण करते हैं।

2. खरना: दूसरे दिन व्रती पूरे दिन निराहार रहकर शाम को गुड़ और चावल की खीर बनाते हैं, जिसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है।

3. संध्या अर्घ्य: तीसरे दिन व्रती अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हैं।

4. प्रातःकालीन अर्घ्य: चौथे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देकर पर्व का समापन होता है।

इन चार दिनों में अनुशासन, पवित्रता और संयम का पालन किया जाता है। व्रत रखने वाली महिलाएं 36 घंटे तक निर्जला उपवास रखती हैं, जो आत्मबल और श्रद्धा का एक अद्भुत उदाहरण मन जाता है।

छठ पूजा की पौराणिक कथा: राजा प्रियव्रत और देवी षष्ठी

छठ पूजा की जड़ें बहुत ही प्राचीन हैं। आपको बता दें पौराणिक कथा के अनुसार, राजा प्रियव्रत को कोई संतान नहीं था, इसके बाद उन्होंने महर्षि कश्यप की सलाह पर पुत्रेष्टि यज्ञ करवाया। यज्ञ के बाद रानी मालिनी ने प्रसाद स्वरूप खीर खाई और पुत्र को जन्म दिया, लेकिन वह बच्चा मृत पैदा हुआ। राजा अपने मृत पुत्र को लेकर श्मशान पहुंचे और दुःख में डूबकर आत्महत्या करने ही वाले थे कि तभी देवी षष्ठी प्रकट हो गई और देवी ने कहा, "हे राजन, मैं सृष्टि की मूल प्रवृत्ति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हूँ, इसलिए मेरा नाम षष्ठी है। तुम मेरा व्रत रखो और लोगों में इसका प्रचार करो।" राजा ने वैसा ही किया। उन्होंने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को देवी षष्ठी का व्रत रखा, जिसके बाद उन्हें एक जीवित और स्वस्थ पुत्र की प्राप्ति हुई। तभी से इस व्रत की परंपरा शुरू हुई, और देवी षष्ठी को "छठी माईया" के नाम से पूजा जाने लगा।

इस तस्वीर में एक नदी है, जिसमें अनेक महिलाएँ छठ पूजा करती हुई दिखाई दे रही हैं।
यह वह पर्व है जब नदियों के घाटों पर लाखों दीप झिलमिलाते हैं, महिलाएं निर्जला उपवास रखकर सूर्यदेव की आराधना करती हैं और वातावरण में भक्ति, अनुशासन और प्रेम की एक अद्भुत लहर दौड़ जाती है।(AI)

त्रेतायुग और द्वापर युग में भी छठ व्रत का उल्लेख

यह व्रत केवल राजा प्रियव्रत तक सीमित नहीं रहा है, आपको बता दें रामायण और महाभारत दोनों में छठ पूजा के प्रमाण मिलते हैं। त्रेतायुग में, जब भगवान श्रीराम रावण वध के बाद अयोध्या लौटे, तो माता सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को कुल की सुख-शांति के लिए सूर्यदेव और षष्ठी देवी की पूजा की थी। उसके बाद

द्वापर युग में द्रौपदी ने अपने पतियों की रक्षा और खोया हुआ राजपाट वापस पाने के लिए छठ व्रत रखा था। इन प्रसंगों से स्पष्ट होता है कि छठ पूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि संकल्प, निष्ठा और पुनर्जन्म की प्रतीक पूजा है।

छठ महापर्व शुरुआत बिहार के मुंगेर से हुई

बिहार का मुंगेर जिला छठ महापर्व का केंद्र माना जाता है। मान्यता है कि माता सीता ने वनवास काल में जब श्रीराम के साथ मुंगेर में निवास की थीं, तब उन्होंने वहीं पहली बार सूर्यदेव की पूजा की थी। यही कारण है कि आज भी मुंगेर के घाटों पर छठ के समय लाखों श्रद्धालु जुटते हैं। यहां का गंगा घाट उस पवित्र क्षण का साक्षी है जब पहली बार छठी माईया की आराधना की गई थी। सबसे बड़ी बात यह है छठ पर्व को बिहार में पर्व नहीं, बल्कि महापर्व कहा जाता है, क्योंकि यह केवल पूजा नहीं, बल्कि पूरे समाज को जोड़ने वाला त्योहार है।

भक्ति, प्रकृति और अनुशासन का संगम

छठ पूजा भारत के उन दुर्लभ पर्वों में से है जिसमें कोई मूर्ति-पूजन नहीं होता है इसमें व्रती सूर्य की उपासना करते हैं। आपको बता दें वह सूर्य जो हर प्राणी को समान रूप से ऊर्जा देता है। यह सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की सूर्यास्त और सूर्योदय ये दो क्षण जीवन के संतुलन के प्रतीक हैं। छठ पूजा इसी संतुलन का उत्सव है, जहां भक्ति और प्रकृति दोनों समान रूप होती है। इस दौरान घाटों पर लोग मिलजुलकर साफ-सफाई करते हैं, बांस की टोकरी में ठेकुआ, फल, नारियल, सिंघाड़ा और गन्ना सजाते हैं। महिलाएं गीत गाती हैं - "केलवा के पात पर उगेलन सुरुज मल झांके ऊंके ..... " ये लोकगीत पीढ़ियों से श्रद्धा और संस्कृति का संगीत बन चुके हैं।

आधुनिक समय में छठ का महत्व

आज छठ पर्व बिहार से निकलकर पूरे देश और विदेशों तक फैल चुका है। दिल्ली, मुंबई, कोलकाता ही नहीं, बल्कि दुबई, लंदन और न्यूयॉर्क तक छठी माईया के गीत गूंजते हैं। यह पर्व आधुनिक समाज को सिखाता है कि श्रद्धा और अनुशासन मिलकर चमत्कार कर सकते हैं। चाहे नदी का किनारा हो या अपार्टमेंट की छत, जहां भी व्रती खड़ी होती हैं, वहां का वातावरण पवित्र हो जाता है।

इस तस्वीर में एक महिला छठ पूजा करती हुई दिखाई दे रही है। उसने लाल रंग की साड़ी पहनी हुई है, वह पानी में खड़ी है और हाथ में सुप लिए हुए है।
छठ पूजा भारत के उन दुर्लभ पर्वों में से है जिसमें कोई मूर्ति-पूजन नहीं होता है इसमें व्रती सूर्य की उपासना करते हैं।(AI)

निष्कर्ष

छठ पूजा केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं है बल्कि यह कृतज्ञता, आत्मबल और मातृत्व की पूजा है। राजा प्रियव्रत की कथा से लेकर माता सीता और द्रौपदी की श्रद्धा तक, यह पर्व हमें सिखाता है कि विश्वास में कितनी शक्ति होती है। जब कोई व्रती 36 घंटे बिना पानी के खड़ी रहती है, तो वह केवल पूजा नहीं कर रही होती है, बल्कि यह संदेश दे रही होती है कि "जहां आस्था है, वहां असंभव कुछ भी नहीं है।" यही वजह है कि छठ महापर्व को "सूर्य उपासना का सबसे पवित्र पर्व कहा जाता है, जो अंधकार से उजाले की ओर ले जाता है।" [Rh/PS]

इस तस्वीर में एक नदी है, जिसमें अनेक महिलाएँ छठ पूजा करती हुई दिखाई दे रही हैं। सभी पानी में खड़ी है और हाथ में सुप लिए हुए है।
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